हमारा यह जन्म हमारे पूर्व जन्म का पुनर्जन्म है और यह सत्य सिद्धांत है
ओ३म्
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
वैदिक धर्म एवं संस्कृति इस सृष्टि की आद्य एवं प्राचीन धर्म एवं संस्कृति है। यह धर्म व संस्कृति ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के आधार पर प्रचलित एवं प्रसारित हुई है। महाभारत काल तक इसका प्रचार व प्रसार पूरे विश्व में था। वेद के सभी सिद्धान्त ईश्वर प्रदत्त होने से सत्य एवं विज्ञानसम्मत हैं। वेदों से ही हमें ईश्वर और आत्मा सहित इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हुआ है तथा अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य सहित उसके साधनों का भी ज्ञान प्राप्त हुआ है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ती व उसका साक्षात्कार है। ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में होता है। इसके लिये मनुष्य को योगदर्शन के अनुसार योगाभ्यास करते हुए जीवन व्यतीत करना होता है। योगदर्शन का उद्देश्य चित्त की वृत्तियों के निरोध से अपनी आत्मा, मन व बुद्धि को ज्ञानयुक्त बनाकर ईश्वर का साक्षात्कार कर जीवन को परोपकारी बनाना होता है। जिस प्रकार से परीक्षा में असफल परीक्षार्थी को पुनः परीक्षा देने का अवसर दिया जाता है उसी प्रकार से परमात्मा भी जीवात्मा को पुनर्जन्म देकर जीवन की परीक्षा में बार-बार परीक्षा में पास होने का अवसर देते हैं। इससे जीवात्मा अपने लक्ष्य मोक्ष व मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ होता है। यही कारण है कि हम मनुष्य सहित नाना योनियों में जीवात्माओं व प्राणियों को ईश्वर द्वारा उनके कर्मों के अनुसार जन्म लेते व अपने प्रारब्ध के अनुसार फल भोग करते हुए देखते हैं।
पुनर्जन्म को समझने के लिये हमें सृष्टि के तीन अनादि पदार्थों ईश्वर, जीव व प्रकृति को समझना होगा। यह तीनों पदार्थ अनादि व नित्य सत्तायें हैं। ईश्वर व जीवात्मायें चेतन सत्तायें हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही एकमात्र हमारा उपास्यदेव है। चेतन पदार्थ वा सत्ता का गुण ज्ञान व कर्म की शक्ति से विहित होना होता है। जीवात्मा भी एक सत्य, चेतन, आनन्द से रहित, मनुष्य जन्म में सुख व आनन्द की प्राप्ति में प्रयत्नशील, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, अजर, अमर, सृष्टि का भोक्ता, मनुष्य योनि में ईश्वर का उपासक, यज्ञकर्ता, परोपकार व दान आदि कर्मों को करने वाला है। प्रकृति संसार की तीसरा अनादि, नित्य, अविनाशी सत्ता है जो त्रिगुणों सत्व, रज व तम से युक्त है। ईश्वर इस प्रकृति में विकार कर इससे महत्वत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें सूक्ष्म भूत, दश-इन्द्रियां, मन, पंच-महाभूत आदि की रचना कर इस सृष्टि को अस्तित्व में लाते हैं। सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि भी ईश्वर के द्वारा प्रकृति के विकारों से ही उत्पन्न व निर्मित किये गये हैं। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है जो अपने ज्ञान व सामथ्र्य से इस प्रकृति में विकार उत्पन्न कर इस समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करता है। इस सृष्टि का संचालन व इसका पालन करना भी ईश्वर का कार्य है। ईश्वर द्वारा इस सृष्टि को उत्पन्न करने का प्रयोजन अपनी अनादि शाश्वत प्रजा जीवों को उनके पूर्व कल्प व जन्मों के अनुसार, जिनका भोग शेष है, सुख व दुख रूपी अनुभूतियों का भोग कराना है। इसके साथ ही जीव का मुख्य लक्ष्य दुःखों की निवृत्ति करते हुए मोक्ष की प्राप्ति है जो मनुष्य योनि में वेदविहित कर्मों को करते हुए ईश्वर साक्षात्कार कर जीवनमुक्त होकर व मृत्यु होने पर मोक्ष अवस्था की प्राप्ति होने पर होता है। जीवात्मा जन्म व मरण धर्मा है। इसीलिये परमात्मा जीवात्मा को प्रत्येक कल्प व सृष्टि में जन्म व मृत्यु के चक्र में घुमाता है जिससे वह वेदविहित कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार कर ले और दुःखों से सर्वथा रहित होकर मोक्ष को प्राप्त कर ले। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और इसी प्रकार अनन्त काल तक चलता रहेगा। जब तक जीव मुक्त नहीं होगा तब तक उसकी मुक्ति प्राप्ति की यात्रा चलती रहेगी। मुक्ति की प्राप्ति के इस लक्ष्य को प्राप्त करने में अनेक व असंख्य जन्म भी लग सकते हैं। यही कारण है कि वैदिक धर्म व संस्कृति में जीवात्मा के जन्म व मरण सहित मुक्ति पर्यन्त जन्म-पुनर्जन्म चक्र के सिद्धान्त को माना जाता है जो कि युक्ति व तर्क से भी सिद्ध होता है। मनुष्य का पुनर्जन्म होता है इसके कुछ कारण निम्न हैं।
पुनर्जन्म का प्रमुख कारण मनुष्य के वह कर्म होते हैं जिनका वह मृत्यु से पूर्व सुख व दुःख रूपी भोग प्राप्त नहीं कर पाता। हम संसार में भी देखते हैं कि लोग अपराध करते हैं और उनके विरुद्ध फौजदारी के मुकदमें चलते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी निर्णय से पूर्व मृत्यु हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि जब मनुष्य कोई कर्म करता है तो उसका वह कर्म उसकी आत्मा से जुड़ा रहकर अथवा आकाश में रहकर पकता है और पकने पर उसका फल आत्मा को मिलता है। किसान खेती करता है। वह अपने खेत में बीज बोता है परन्तु उस बीज से नई फसल पकने में पर्याप्त समय लगता है। इसी प्रकार कर्म करने पर उसका फल मिलने में भी समय लगता है। कुछ पूर्व किये हुए कर्मों का फल उसे मिल रहा होता है। वह इसके साथ ही नये कर्म भी कर रहा होता है। अतः सभी पूर्व व नये कर्मों का फल एक साथ मिलना सम्भव नहीं होता। जिन कर्मों का फल मृत्यु से पूर्व भोग लिया जाता है वह तो समाप्त हो जाते हैं परन्तु जिनका पूरा फल नहीं भोगा गया होता या जिनका फल बिल्कुल नहीं भोगा गया होता, वह कर्म वा प्रारब्ध मनुष्य के नये जन्म वा पुनर्जन्म का आधार होते हैं। यदि पुनर्जन्म नहीं होगा तो ईश्वर का एक नाम न्यायकारी होना सत्य सिद्ध न होने से इसका विपरीत व बुरा प्रभाव उसके अस्तित्व व न्यायप्रणाली पर पड़ेगा। इससे उसकी सत्ता पर भी प्रश्न चिन्ह लगेगा। ईश्वर की न्याय प्रणाली श्रेष्ठ व सर्वोत्तम न्याय प्रणाली है। ईश्वर सर्वान्तर्यामीस्वरूप से जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’ के वेदसम्मत सिद्धान्त के अनुसार जीव को अपने प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। ईश्वर इस कर्म फल व्यवस्था को क्रियान्वित करता है। अतः मनुष्य जन्म के उन कर्मों का जिनका मृत्यु से पूर्व भोग शेष रहता है, ईश्वर जीवात्मा को पुनर्जन्म देकर उन कर्मों के फलों का भोग कराता है। संसार में भी हम देखते हैं कि जो लोग बैंक आदि से ऋण लेते हैं, उनको उस ऋण को ब्याज के साथ चुकाना पड़ता है। जो विफल रहते हैं उनको न्याय व्यवस्था के द्वारा उस ऋण की सम्पत्ति की कुर्की आदि के द्वारा भुगतान करना पड़ता है। ईश्वर की न्याय व्यवस्था में भी बिना कर्म का फल भोगे बैंक व सरकारी ऋण के समान मुक्ति नहीं मिलती।
हम संसार में जितने भी मनुष्य आदि प्राणियों को देख रहे हैं यह उन सबका पूर्वजन्मों का पुनर्जन्म है। उन्होंने पूर्वजन्म में जो कर्म किये और उनका भोग उस जन्म में ही मृत्यु आने तक नहीं कर सके, उसी का भोग करने के लिये उनका नाना योनियों में जन्म हुआ है। जिन्होंने पूर्वजन्म में शुभ व पुण्य कर्म अधिक किये थे, वह इस जन्म में मनुष्य जन्म लेकर सुख भोग रहे हैं और जिन्होंने शुभ कर्म कम किये थे और अशुभ कर्म अधिक किये थे, वह इस जन्म में मनुष्येतर योनियों में सुख कम तथा दुःख अधिक भोग रहे हैं। हमारे कुछ मित्र कई बार प्रश्न करते हैं कि यदि हमारा पुनर्जन्म हुआ है तो हमें पूर्वजन्म की बातों का ज्ञान क्यों नहीं है? इसका एक उत्तर यह है कि मनुष्य वा आत्मा में पूर्व कर्मों को भूलने की प्रवृत्ति विद्यमान है। हमें वर्तमान की कुछ बातें ही स्मरण रहती है। हम आपस में जो वार्ता करते हैं उसके उन्हीं शब्दों व वाक्यों को कुछ देर बाद ठीक-ठीक वैसा का वैसा दोहरा नहीं सकते। इसका कारण हमारी स्मरण शक्ति का सीमित होना है। हमने कल, परसो व उससे पूर्व क्या-क्या पदार्थ कब व किस समय खाया, हमें स्मरण नहीं रहता। हमने कल, परसो व उससे पूर्व किस दिन कौन से रंग के वस्त्र पहने थे, किन-किन लोगों से मिले थे, उनसे क्या-क्या बातचीत की थी, यह भी हमें स्मरण नहीं रहता।
हम पुस्तक पढ़ते हैं। एक घटां व पन्द्रह मिनट पढ़ने के बाद उस पाठ को ठीक वैसा दोहरा नहीं सकते। अतः पूर्वजन्म की बातों का स्मरण न होने का कारण उन सुदूर घटनाओं की विस्मृति का होना है। हमारा पूर्वजन्म का शरीर भी हमारी आत्मा से पृथक हो जाता है। वह भौतिक मन, मस्तिक, बुद्धि हम वहीं छोड़ आये हैं, यह भी एक कारण होता है। इसका एक अन्य कारण यह भी होता है कि हमारा मन एक समय में एक ही कार्य करता है। हमें अपने वर्तमान का ज्ञान रहता है अतः सुदूर अतीत की बातों का ध्यान हम नहीं कर पाते। यदि करने की कोशिश करते हैं तो हमारी विस्मृति बाधक बनती है। इसका यह अर्थ नहीं कि इस जन्म से पूर्व हमारा अस्तित्व नहीं था। यदि न होता तो हमारा यह जन्म कदापि न हो सकता। अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती। आटे से रोटी बन सकती है परन्तु बिना आटे के रोटी नहीं बन सकती। आत्मा जन्म से पूर्व था तभी पुनर्जन्म हुआ है और यदि न होता तो पुनर्जन्म न होता। हमें विश्वास है कि हमारा जन्म एक शिशु के रूप में जन्म हुआ, उसके बाद बाल्यकाल आरम्भ हुआ फिर हम किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध हुए। उन सब अवस्थाओं का पूरा ज्ञान न होना इस बात का उत्तर देता है कि हमें पूर्वजन्म की बातों का ज्ञान क्यों नहीं है। कुछ ऐसे प्रमाण यदा-कदा देखने को मिलते रहते हैं जिसमें किसी दुर्घटना होने तथा उस मृतक आत्मा का आसपास जन्म होने के बाद बचपन में उसको अपने पूर्वजन्म की घटनाओं का ज्ञान रहता है। हम ऐसे व्यक्तियों से मिले हैं जिन्हें अपने बचपन में अपने पूर्वजन्म की बातें याद थी। उन्होंने अपने माता-पिता व घरवालों को प्रसंगवश याद आने पर उसके बारे में सब कुछ बताया था जिनकी पुष्टि भी की गई थी। आज भी हमारे वह मित्र वर्तमान हैं। हमारे वह मित्र श्री नरेशपाल मीणा अपने मित्रों को अपने पूर्वजन्म की उन बातों वा स्मृतियों को शेयर करते हैं। अतः इन सब बातों से पूर्वजन्म का होना सिद्ध होता है, न होना सिद्ध नहीं होता।
पूर्वजन्म पर विद्वानों ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। ऋषि दयानन्द जी अपने जीवन काल में पूर्वजन्म व पुनर्जन्म पर व्याख्यान दिया करते थे। उन्होंने दिनांक 17-7-1875 को पूना में जन्म वा पुनर्जन्म विषय पर एक व्याख्यान दिया था। यह व्याख्यान सम्प्रति सुलभ है। इसे पढ़कर पुनर्जन्म पर विश्वास पुख्ता होता है। पं0 लेखराम जी ने भी पुनर्जन्म पर उत्पन्न होने वाली सभी शंकाओं का संकलन कर उनका समाधान अपनी पुनर्जन्म की पुस्तक में दिया है। इनसे पुनर्जन्म विषयक सभी शंकाओं का समाधान होने सहित पुनर्जम्न पर विश्वास हो जाता है। लेख को और विस्तार न देकर हम इसे यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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मुख्य संपादक, उगता भारत