पेशवा बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब व माधवराव प्रथम
भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास
(हिन्दी स्वराज के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पुस्तक से)
कोई व्यक्ति संसार से जाता है तो सामान्यतः उसके अनुयायी उसके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने का संकल्प लेते देख जाते हैं, परंतु यह सत्य है कि जो भी महापुरुष संसार से जाता है उसके जाने के पश्चात उसके अनुयायियों की चाहे भीड़ बढ़ जाए, परंतु उसके अधूरे कार्य कभी पूर्ण नहीं हो पाते। हर पिता इस भ्रांति में जीता रहता है कि जिन कार्यों की नींव मैं रख रहा हूँ उन्हें मेरा पुत्र पूरा करेगा, परंतु यहाँ भी यह देखा जाता है कि पिता के संकल्पों को, व्रतों को और उसके लिए गये संकल्पों को पुत्र भी अक्षरशः पालन नहीं कर पाता। उनमें भी कहीं ना कहीं कमी या त्रुटि रह जाती है और अधिकतर बार ऐसा होता है कि पिता के लिए गये संकल्प भी अधूरे रह जाते हैं।
पेशवा बाजीराव प्रथम के साथ भी यही हुआ, उसके पश्चात उसके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने वाला कोई भी पेशवा नहीं हो पाया। यहाँ तक कि उसका स्वयं का पुत्र और उत्तराधिकारी बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहिब भी उसके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने का संकल्प नहीं ले पाया। बालाजी बाजीराव उपनाम नानासाहेब अपने पिता बाजीराव प्रथम से भिन्न प्रकृति का था।
पिता जैसा पुत्र हो तो समझो बड़भाग।
विपरीत दिशा में सब चलें भोग रहे दुर्भाग्य।।
बालाजी बाजीराव के गुण-अवगुण
बालाजी बाजीराव का जन्म 1721ई. में हुआ था। वह श्रीमंत बाजीराव के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी यह विशेषता थी कि वह अपने पिता की भांति ही दक्ष शासक तथा कुशल कूटनीतिज्ञ थे। साथ ही बालाजी बाजीराव बहुत ही सुसंस्कृत, मृदुभाषी तथा लोकप्रिय भी थे। उनके चरित्र का सबसे अधिक दुर्बल पक्ष यह था कि वह अपने पिता की भांति दृढ़ निश्चयी नहीं थे। जिससे वह कभी भी ठोस निर्णय लेने में सक्षम नहीं हो सके, यही कारण रहा कि उनके समय में मराठा साम्राज्य के विस्तार में कुछ ठहराव-सा आ गया था। राजनीति के क्षेत्र के लिए यह एक अनिवार्य गुण होता है कि शासक दृढ़ निश्चयी होना चाहिए। वह अपने निर्णय को भली प्रकार सोच समझ कर ले, परंतु जब ले ले तो उससे हटने का विकल्प ना खोजे, अपितु अपने लिए गए निर्णय के अनुसार अपनी नीतियों का निर्धारण करे और शत्रु को परास्त करे। बालाजी बाजीराव शासकों के इस गुण के विपरीत आलसी और वैभवप्रिय था, जिसने उसके जीवन को उतना उत्कृष्ट नहीं बनने दिया, जितना बन जाना चाहिए था। मराठा साम्राज्य जैसे प्रमुख शासन का प्रधानमंत्री यदि प्रमादी, आलसी और वैभवप्रिय था तो स्वाभाविक है कि उसके इन अवगुणों का प्रभाव शासन और साम्राज्य पर पड़ना निश्चित ही था।
बालाजी बाजीराव के समय में सिंधिया और होलकर के संघर्ष को लेकर मराठा संघ के सामने एक विशेष समस्या आई थी, जिसे निपटाने में बालाजी बाजीराव असफल रहे। दिल्ली की राजनीति में भी उसने अपेक्षा से अधिक रुचि दिखाई, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसे विदेशी आक्रांता अहमदशाह दुर्रानी से शत्रुता मोल लेनी पड़ गई। उसके समय जब अंग्रेजों से गतिरोध उत्पन्न हुआ तो उससे निपटने में भी उसने अक्षमता का प्रदर्शन किया। जिससे मराठा साम्राज्य की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा।
विलासी आलसी राजा भयो देश गर्त को जाए।
शत्रु भी झपटे उसे जीवन नरक हो जाए।।
सतारा बन गया सत्ता का केंद्र
जिस समय बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब पेशवा के पद पर नियुक्त हुए थे, उसके कुछ समय पश्चात छत्रपति शाहूजी महाराज रोग ग्रस्त हो गए थे। जिसके कारण राजदरबार में आंतरिक असंतोष को प्रोत्साहन मिला। एक अच्छे प्रशासक के लिए यह आवश्यक है कि ऐसी परिस्थितियों में वह आंतरिक विग्रह की प्रत्येक विषम परिस्थिति का बुद्धिमत्ता से सामना कर उसका हल निकाले, परंतु इसमें भी नाना साहेब असफल रहे।
छत्रपति शाहू के पास नित्य प्रति राजदरबारी नाना साहेब के विरुद्ध कान भरने जाते थे, जिनसे छत्रपति शाहू उत्तेजित हो उठे और उन्होंने नानासाहेब को उनके पद से मुक्त कर दिया। यह अलग बात है कि जब छत्रपति शाहूजी महाराज को अपनी गलती का आभास हुआ तो उन्होंने तुरंत उसको सुधारते हुए नाना साहेब को उनके पद पर पुनः नियुक्ति दे दी। 15 दिसम्बर, 1749 में जब छत्रपति शाहू जी महाराज की मृत्यु हुई तो मराठा शासन विधान के राज्याधिकारों में नई मान्यता ने जन्म लिया। इस घटना के पश्चात रामराजा की अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता राजा के हाथों से निकलकर पेशवा के हाथों में केंद्रित हो गई और सारी राजनीति व सत्ता का केंद्र पेशवा बन गया। इतना ही नहीं, इसके पश्चात सतारा की सत्ता समाप्त होकर पूना शासन का केंद्र बन गया।
सदाशिव राव भाऊ और पेशवा नाना साहेब
पेशवा नानासाहेब के एक चचेरे भाई थे। जिनका नाम था-सदाशिवराव भाऊ। यह अपने आप में बहुत ही पराक्रमी साहसी और वीर थे। जिनका नानासाहेब और मराठा साम्राज्य दोनों को ही लाभ मिला। नाना साहेब के शासनकाल में जितनी भर भी मराठा साम्राज्य की ओर से सैनिक विजयें संपन्न हुईं, उन सब में सदाशिवराव भाऊ का विशेष योगदान था। भाऊ के योग्य और सक्षम नेतृत्व के कारण नाना साहेब के शासनकाल में मराठा साम्राज्य में सन् 1741 में मालवा राज्य सम्मिलित किया गया। सन् 1742 से लेकर 1751 तक मराठा साम्राज्य की ओर से बंगाल पर निरंतर आक्रमण किए गए। सदाशिवराव भाऊ ने सन् 1749 में अपनी सैनिक क्षमताओं का प्रदर्शन करते हुए कर्नाटक पर मराठा साम्राज्य का केसरिया ध्वज फहरा दिया। इतना ही नहीं 1750 में यामाजी रविदेव को पराजित कर संगोला में सदाशिव राव भाऊ ने क्रांतिकारी राजनीतिक व्यवस्था भी स्थापित की, जिससे सतारा की अपेक्षा पेशवा का निवासस्थल पूना शासकीय केंद्र बना।
सन् 1760 में भाऊ ने ऊदगिर में निजामअली को पूर्ण रूप से पराजित कर उसकी शक्ति का पतन करने में सफलता प्राप्त की, किंतु सन् 1760 में ही अहमदशाह दुर्रानी के भारत आक्रमण पर भयंकर अनिष्ट की पूर्व सूचना के रूप में दत्ताजी सिंधिया की हार हुई। नाना साहेब के शासनकाल में ही सन् 1761 में पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय हुई। पानीपत के युद्ध के समय यदि बाजीराव प्रथम रहे होते तो निश्चय ही परिणाम दूसरे होते, परंतु नानासाहेब निर्णय लेने में मजबूत नहीं थे। अतः परिणाम आशा के अनुरूप न आकर विपरीत आया। जिससे मराठा साम्राज्य को अपमानित होना पड़ा। यद्यपि हिंदवी स्वराज और मराठा साम्राज्य को पानीपत के युद्ध से जो हानि उठानी पड़ी, उसको पेशवा बालाजी बाजीराव ने भी हृदय से अनुभव किया। कहा जाता है कि इसी आघात के कारण उसी वर्ष उनका देहांत हो गया था।
1761 में हुआ पानीपत का यह युद्ध वास्तव में भारतीय इतिहास की धारा को मोड़ने वाला था। इसी युद्ध में मिली पराजय के कारण नाना साहेब की मृत्यु हो जाना यह बताता है कि नाना साहेब अपने मूल स्वभाव में बहुत देशभक्त थे। तभी तो उन्हें यह आघात सहन नहीं हुआ। उन्होंने इस बात को हृदय से अनुभव किया कि जिन विदेशी आक्रमणकारियों और सत्ताधीशों के विरुद्ध हिंदवी साम्राज्य स्थापित किया गया था, उन्हीं के समक्ष आज उसे पराजय झेलनी पड़ी है। इस पराजय के लिए उन्होंने व्यक्तिगत जिम्मेदारी भी वहन की और उस दायित्व बोध के कारण ही वह इस संसार से चले गए।
पेशवा माधवराव प्रथम
मराठा साम्राज्य के किसी भी छत्रपति या पेशवा को अपनी पूर्ण आयु भोगने का अवसर नहीं मिला, सभी अल्पायु में ही विदा होते रहे। जिस कारण इस साम्राज्य को बहुत क्षति उठानी पड़ी। जब बालाजी बाजीराव उपनाम नाना साहेब भी असमय इस संसार से चले गए तो उस समय उनके ज्येष्ठ पुत्र माधवराव की अवस्था मात्र 16 वर्ष थी। इसी अवस्था में उन्होंने पेशवा पद को प्राप्त किया और इस पद पर रहते हुए उन्होंने कई ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किए जिनके कारण वह इतिहास में अमर हो गए। यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि नए पेशवा माधवराव प्रथम मात्र 16 वर्ष की अवस्था में पेशवा बने और 27 वर्ष की अवस्था में वह भरी जवानी में इस संसार से चले गए। जबकि माधवराव प्रथम के भीतर नेतृत्व की असीम संभावनाएँ थीं। उसने अपने संक्षिप्त शासनकाल में अपने महान कार्यों से इतिहास में अपना स्थान बनाया और मराठा साम्राज्य की अप्रतिम सेवा की।
मराठा साम्राज्य अभी पानीपत के युद्ध के परिणामों से उभर नहीं पाया था। सर्वत्र उसका आघात अनुभव किया जा रहा था। इसी समय जब नानासाहेब इस संसार से चले गए तो नये पेशवा बने माधवराव प्रथम के शासन काल के प्रथम दो वर्ष मराठा साम्राज्य में चल रहे गृहयुद्ध को शांत करने में व्यतीत हो गए। माधवराव प्रथम ने कुल 11 वर्ष पेशवा के रूप में मराठा साम्राज्य की सेवाएँ कीं। अपने शासनकाल के अंतिम वर्ष में उसे यक्ष्मा जैसे गंभीर और प्राणघातक रोग से जूझना पड़ा। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि मराठा साम्राज्य के पेशवा के रूप में उसे कार्य करने का केवल 8 वर्ष का ही समय मिला। इसके उपरांत भी माधवराव प्रथम के विषय में यह एक गौरवपूर्ण तथ्य है कि उसने समय का सदुपयोग करते हुए मराठा साम्राज्य की विशेष सेवा की और साम्राज्य का विस्तार करने पर भी विशेष ध्यान दिया। इसके कारण इस युवा पेशवा का मराठा साम्राज्य के सभी पेशवाओं में प्रमुख स्थान बना। बाजीराव प्रथम के पश्चात माधवराव प्रथम ही सुयोग्य पेशवा थे। उनके पश्चात इतनी सैन्य क्षमताओं से भरपूर अन्य पेशवा मराठा साम्राज्य को नहीं मिला।
माधवराव प्रथम के चारित्रिक गुण
गौरव बना स्वराज्य का और प्रतीक भारतवर्ष का।
हिंदू के उत्थान का और मराठों के उत्कर्ष का।।
जीवन समर्पित कर दिया निज देश हित के लिए।
स्वपनद्रष्टा था वह अपने महान भारत के लिए।।
माधवराव प्रथम एक कुशल सेनानायक और चरित्रवान व्यक्ति था। उसके भीतर ऐसे सभी सैनिक व प्रशासनिक गुण समाहित थे जो तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री के भीतर होने अपेक्षित थे। वह व्यक्तिगत जीवन में तो पवित्र था ही राजनीति के क्षेत्र में भी उसने पवित्रता और शुचिता को अपनाया, जिससे उसका जीवन आदर्श बना। उसके विषय में यह सुविख्यात तथ्य है कि वह चरित्र में धार्मिक, शुद्धाचरण, सहिष्णु, निष्कपट, कर्तव्यनिष्ठ तथा जनकल्याण की भावना से ओतप्रोत था। उसका व्यक्तिगत जीवन भी पूर्णतया निर्दोष था। जिससे उसे अपनी जनता के बीच लोकप्रियता मिली। उसके भीतर जो भी गुण थे वे जन्मजात थे, जिनका उसे अपने जीवन में भरपूर लाभ भी मिला। क्योंकि उसके प्रति जनता स्वाभाविक रूप से समर्पित थी और उसे हृदय से सम्मान देती थी। मराठा साम्राज्य के अन्य अधिकारी और स्वयं छत्रपति भी उसका सम्मान करते थे।
इतिहासकारों का मानना है कि उसमें बालाजी विश्वनाथ जैसी दूरदर्शिता, बाजीराव प्रथम जैसी नेतृत्व शक्ति और संलग्नता एवं अपने पिता के जैसी शासकीय क्षमता थी। उसके चारित्रिक गुणों में इन तीनों महान पेशवाओं का सम्मिश्रण होने के कारण उसका व्यक्तित्व अप्रतिम था। यही कारण रहा कि उसने जितनी देर भी शासन किया उसे कहीं से भी अपने विरुद्ध जनता की ओर से किसी बड़े विद्रोह जैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा।
प्रतिभा प्रदर्शन
जिस समय माधवराव प्रथम ने पेशवा पद को प्राप्त किया उस समय हैदराबाद के निजाम ने उनकी अल्पावस्था का लाभ उठाने के दृष्टिकोण से महाराष्ट्र पर आक्रमण कर दिया। उसकी सोच थी कि पेशवा के अल्पायु होने के कारण वह महाराष्ट्र को इस समय पराजित करने में सफल हो सकता है। परंतु पेशवा माधवराव प्रथम ने चुनौती को चुनौती के रूप में लिया। इस समय माधवराव प्रथम को अपने ही सगे चाचा से भी चुनौती और धोखे का सामना करना पड़ा। उसकै महत्वाकांक्षी और स्वार्थी चाचा रघुनाथराव ने अपने भतीजे को अपने अधीन रखने के ध्येय से मराठा साम्राज्य और हिंदवी स्वराज्य के परमशत्रु हैदराबाद के निजाम से गठबंधन कर, माधवराव को आलेगाँव में परास्त कर उसे बंदी बना लिया। इतिहास में यह घटना 12 नवंबर, 1762 को हुई। माधवराव प्रथम को जब अपने चाचा के इस प्रकार के छली और कपटी आचरण की जानकारी हुई तो उसने उसका कड़ा प्रतिरोध किया। फलस्वरूप रघुनाथराव माधवराव का गत्यवरोध करने में सफल रहा। 1763 ई. में पेशवा ने राक्षसभुवन में निजाम व अपने चाचा के गठबंधन को तार-तार कर दिया और निजाम को पराजित कर धूल चटाई। युद्धक्षेत्र से लौटकर उसने अपने अभिभावक बने रघुनाथराव के प्रभुत्व से स्वयं को मुक्त किया। अब माधवराव प्रथम का ध्यान अपने आंतरिक शत्रुओं की ओर गया, जो राज्य में अव्यवस्था फैला रहे थे। ये विद्रोही प्रजा के लोग नहीं थे, अपितु पेशवा के अपने ही लोग थे। इनमें रघुनाथराव तथा जानोजी भोंसले का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इनके विरोध का दमन कर उसने आंतरिक शांति की स्थापना की। इसी समय पेशवा माधवराव प्रथम को हैदर अली जैसे मुस्लिम शासक के प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा। उसकी भृकुटि मराठा साम्राज्य पर तनी हुई थी और वह नहीं चाहता था कि कोई हिंदू स्वराज उसके पड़ोस में आगे बढ़े।
हैदरअली के आतंक से अंग्रेज भी आतंकित थे। उसका सामना करने का साहस अन्य किसी शक्ति के भीतर भी नहीं था। इसे चार अभियानों में माधवराव द्वारा परास्त किया गया। फलस्वरूप मालवा तथा बुंदेलखंड पर मराठों का एकाधिकार स्थापित हो गया। माधवराव सिंधिया के इन अभियानों के कारण राजपूत राजा विजित हुए। जाट तथा रुहेलों का दमन हुआ। मराठा सेना ने गौरवपूर्ण ढंग से दिल्ली तक अभियान कर मुगल सम्राट् शाहआलम को पुनः सिंहासनारूढ़ किया। इस प्रकार के गौरवपूर्ण कृत्यों से मराठा साम्राज्य को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त हो गई और जो सम्मान उसे पानीपत के युद्ध से पूर्व प्राप्त था, वही सम्मान उसे पुनः प्राप्त हो गया। यहाँ पर यह स्मरण रखने की बात है कि खोई हुई प्रतिष्ठा या सम्मान तभी प्राप्त होता है जब उसको पाने वाला या उसके लिए पुनः प्रयास करने वाला व्यक्ति नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमताओं से भरा होता है, और यह गुण माधवराव प्रथम के भीतर कूट-कूट कर भरे थे।
इतने महान कार्यों को संपादित करने वाला मराठा साम्राज्य का यह तेजस्वी पेशवा हम से शीघ्र ही विदा हो गया। उसने 27 वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त कर लिया, क्योंकि वह अपने जीवन के अंतिम वर्ष में यक्ष्मा जैसे रोग से पीड़ित हो गया था। जिस पर वह विजय प्राप्त नहीं कर सका। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि संसार के रणक्षेत्रों में अपनी विजय की छाप छोड़ने वाला यह महातेजस्वी पेशवा यक्ष्मा जैसी बीमारी पर विजय प्राप्त नहीं कर सका। माधवराव प्रथम के विषय में यह भी एक तथ्य है कि उसकी मृत्यु के पश्चात मराठा साम्राज्य के पास फिर कोई ऐसा तेजस्वी पेशवा नहीं आया, जो उसके साम्राज्य विस्तार में वृद्धि करने का कार्य कर पाता। इसके पश्चात मराठा साम्राज्य पतनोन्मुख हो चला।
मौत की भी मौत होती जब प्राण निकलें देशहित।
इतिहास अभिनंदन करे मानकर उसे अपराजित।।
झुक बादलों के रूप में विधाता भी करता है नमन।
बधाइयाँ सब देव देते जीवन होता उसका धन-धन ।।
क्रमशः
– डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)
मुख्य संपादक, उगता भारत