भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 413
हिंदवी स्वराज के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पुस्तक से ..
महान पेशवा बालाजी विश्वनाथ – अध्याय11
मराठा शासनकाल में प्रधानमंत्री को ही पेशवा कहा जाता था। राजा की अष्टप्रधान परामर्शदात्री परिषद में इसका स्थान सबसे प्रमुख होता था। इसलिए बराबर वालों में प्रथम या प्रधान होने के कारण यह पद प्रधानमंत्री का पद बन गया। यही स्थिति हमारे आज के शासन में प्रधानमंत्री की होती हैं, वह प्रधान नहीं है, अपितु बराबर वालों में प्रथम है। मराठों के हिंदवी स्वराज्य में अष्टप्रधान परामर्शदात्री परिषद के इस प्रमुख व्यक्ति को ही पेशवा कहा जाता था। मुगल काल में प्रधानमंत्री को वजीर के नाम से पुकारा जाता था, परंतु शिवाजी ने प्रचलित मुगलिया व्यवस्था का अनुकरण न करके भारत की प्राचीन राज्य शासन प्रणाली को अपनांया था। यही कारण था कि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को वजीर न कहकर पेशवा कहा और अष्टप्रधान परामर्शदात्री परिषद का गठन किया। जिस पर हम पूर्व में ही प्रकाश डाल चुके हैं।
छत्रपति राजाराम के समय में पंच प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवा बालाजी विश्वनाथ 7वें पेशवा थे। इनके समय से यह पद वंश परंपरागत हो गया था। छत्रपति शाहूजी महाराज की सहमति भी इस पर रही थी।
बालाजी विश्वनाथ श्रीवर्धन नामक गाँव के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार से थे। इनका जन्म 1662 ईस्वी में हुआ था। अपनी प्रतिभा के बल पर मराठा साम्राज्य के उस समय के सबसे प्रमुख पद पर पहुँचने में सफल हुए थे। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उन्होंने उस समय जो भी कार्य किये उससे उन्होंने समकालीन इतिहास को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की। शिवाजी के पश्चात जब मराठा साम्राज्य के उत्तराधिकारी अपनी दुर्बलता के कारण साम्राज्य विस्तार करने में स्वयं को असफल और अक्षम अनुभव कर रहे थे, तब पेशवा ने राज्य विस्तार के कार्य को बहुत ही उत्तम ढंग से सफल करके दिखाया। यही कारण रहा कि 18वीं सदी के प्रारंभ में ही मराठा साम्राज्य का प्रभावी नियंत्रण पेशवाओं के हाथों में आ गया। बालाजी विश्वनाथ ने शाहुजी महाराज की सहायता की और अपने बौद्धिक बल एवं बाहुबल से ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं कि सारे शासन का सूत्र उन्हीं के हाथों में केंद्रित होकर रह गया, अन्यथा उस समय की स्थितियाँ ऐसी थीं कि मराठा साम्राज्य के शासक लोग मुगलों और उनके सेनापतियों का इतनी सफलता के साथ सामना नहीं कर पा रहे थे, जितनी उनसे अपेक्षा की जाती थी। इससे मराठा साम्राज्य की दुर्बलता प्रकट हो रही थी। अतः नियति ने सही समय पर पेशवाई पद को सुदृढ़ता प्रदान की। इस पर एक से एक बढ़कर ऐसे पेशवाओं को विराजमान कराया जिनसे मराठा साम्राज्य और हिंदवी स्वराज्य के शिवाजी के सपने को साकार करने में हमें सहायता मिली।
बालाजी विश्वनाथ ने शिवाजी के सपनों को साकार करने की दिशा में ठोस कदम उठाया। उन्हें यह भली प्रकार ज्ञात था कि मुगलों की सत्ता के चलते दुर्बल मराठा साम्राज्य शीघ्र ही समाप्त हो सकता है। अतः उन्होंने बहुत ही धैर्यपूर्वक दीर्घकालिक रणनीति बनाई और साम्राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करने की दिशा में सोचना आरंभ किया। छत्रपति साहू के शासनकाल में उन्होंने गृह युद्ध में व्यस्त अपने ही लोगों को उन विनाशकारी युद्धों और परिस्थितियों से बचाते हुए साम्राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित की। जिसके कारण उन्हें भारत के इतिहास में मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक कहकर भी सम्मानित किया जाता है। पेशवा बालाजी विश्वनाथ की अपनी नीतियाँ इस प्रकार की थीं कि उन्होंने साम्राज्य की उन्नति के लिए जिस मार्ग का अनुसरण किया उसी पर चलते हुए उनके पुत्र पेशवा बाजीराव ने मराठा साम्राज्य को आधे भारत में फैला दिया था। समकालीन इतिहास की यह बहुत ही चमत्कारिक घटना थी, जिसे इतिहास में छद्म वामपंथी इतिहासकारों ने उचित स्थान और सम्मान आज तक नहीं दिया है। इसके उपरांत भी जिस साम्राज्य के किसी पेशवा ने अपने साम्राज्य को आधे भारत तक विस्तार दिया उसका इतिहास में गुणगान नहीं है और उन लोगों का गुणगान है जो मुगल वंश के अंतिम सम्राट के नाम पर केवल पेंशन पाते रहे और लाल किले से पालम तक जिनका राज्य सिमट कर रह गया था।
वंश व सेनापति का पद
बालाजी विश्वनाथ एक साधारण परिवार के बच्चे थे। जहाँ से उठकर जब उन्होंने अपना रास्ता बनाना या खोजना आरंभ किया तो बहुत ऊँचाई तक पहुँच कर मराठा साम्राज्य के सेनापति के दायित्व को निभाते हुए एक दिन पेशवा के पद को भी उन्होंने गौरवान्वित और सुशोभित किया। बालाजी विश्वनाथ अपनी बुद्धि एवं प्रतिभाजन्य क्षमताओं के कारण प्रसिद्ध हुआ था। उसने भारतीय शासन प्रणाली का गहनता से अध्ययन किया था। फलस्वरूप उसे करों के बारे में अच्छी जानकारी हो गई थी। जिस कारण मराठा साम्राज्य के छत्रपति शाहूजी महाराज ने उसे अपनी सेना में ले लिया था। अपनी बौद्धिक प्रतिभाओं के चलते 1669 से 1702 ई. के मध्य बालाजी विश्वनाथ पूना एवं दौलताबाद का सूबेदार भी रहा था। अपने अपने इस दायित्व पर रहते हुए भी बहुत ही उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था। उसकी उन्नति अभी और भी होनी थी, तभी तो नियति ने उसे एक दिन पेशवा के सर्वोच्च पद पर पहुँचा दिया। 1707 ई. में ‘खेड़ा के युद्ध’ में उसने अपना समर्थन शाहू को प्रदान किया था, जिससे उसे ताराबाई के सेनापति धनाजी जाधव को शाहू की ओर करने का अवसर मिल गया था। धनाजी जाधव की मृत्योपरान्त उसके पुत्र चन्द्रसेन जाधव को शाहू ने अपना सेनापति नियुक्त किया था। चन्द्रसेन जाधव ने प्रारंभ से ही अपना झुकाव महारानी ताराबाई की ओर कर लिया था, जिससे मराठा परिवार में चल रहे संघर्ष में महारानी का पलड़ा भारी होने लगा था, जब साहू को इस बात की जानकारी हुई तो उसने उसे सेनापति के पद से हटा दिया और साथ ही अपना नया सेनापति बालाजी विश्वनाथ को बना दिया।
पेशवा का पद
. क्रिया के पश्चात उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक होता है। राजनीति में तो क्रिया की प्रतिक्रिया का परिणाम बहुत ही शीघ्र देखने को मिलता है। फलस्वरूप जब चंद्रसेन को साहू ने उसके महत्वपूर्ण पद से मुक्त किया तो वह भी प्रतिक्रिया किए बिना रह ना सका, क्योंकि जो कुछ भी उसके साथ किया गया था उसे वह अपने लिए अपमानजनक अनुभव कर रहा था। महारानी ताराबाई ऐसी स्थिति का लाभ उठाने के लिए तैयार बैठी थी। अतः उन्होंने चंद्रसेन को तुरंत लपक लिया और उसे सम्मानजनक ढंग से अपने साथ ले आईं। छत्रपति शाहू को उसकी करनी का फल देने के लिए कालान्तर में चन्द्रसेन एवं ‘सीमा रक्षक’ कान्होजी आंगड़े के सहयोग से ताराबाई ने छत्रपति शाहू एवं उसके पेशवा बहिरोपन्त पिंगले को कैद कर लिया। परन्तु बालाजी की सफल कूटनीति रंग लायी। कान्होजी बिना युद्ध किये ही शाहू के पक्ष में आ गया। फलस्वरूप इस युद्ध में चन्द्रसेन को पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस प्रकार शाहू की कूटनीति सफल हो गई और उसे अपने आपको स्थापित करने का एक अवसर मिल गया। ऐसी परिस्थितियों में 1713 ई. में बालाजी को शाहू ने अपना पेशवा बनाकर सम्मानित किया।
ताराबाई ने सम्भाला मराठा साम्राज्य
महारानी ताराबाई के विषय में हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उन्होंने किस प्रकार मराठा साम्राज्य को अपनी प्रतिभा से प्रभावित किया था? छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के उपरांत उनके दो पुत्र सम्भाजी और राजाराम ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपना अभियान जारी रखा। इस समय बादशाह औरंगजेब भी मराठा साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करने की पूरी योजनाएँ बना रहा था। उसने 1686 ई. में दक्कन में प्रवेश किया। जिससे कि वह मराठा साम्राज्य को लेकर बनाई जा रही अपनी योजनाओं में सफल हो सके। यह अलग बात है कि वह जब वह दक्षिण में गया तो मराठा शेरों ने उसे अगले 21 वर्ष तक अपने साथ युद्ध में उलझाए रखा। इतने दीर्घकालीन युद्ध की कल्पना तो औरंगजेब ने भी नहीं की होगी कि मराठा उसे इतनी देर तक युद्ध में उलझाए रखेंगे। जिन लोगों ने मराठा शक्ति को एक क्षेत्रीय शक्ति मान कर उनका इतिहास में उपहास उड़ाने का प्रयास किया है, उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि यह मराठा शक्ति ही थी जिसने औरंगजेब जैसे विशाल साम्राज्य के स्वामी को दक्षिण में 21 वर्ष तक निरंतर चुनौती दी।
सम्भाजी की निर्मम हत्या और राजाराम की असमय हो गई मृत्यु के उपरांत राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई ने मराठा साम्राज्य को सम्भाला, क्योंकि उस समय सम्भाजी के पुत्र साहू को छोटी अवस्था में ही मुगलों ने बंदी बना लिया था। 1707 में अहमदनगर में 88 वर्ष की अवस्था में औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन होना आरंभ हो गया और उसकी सेना भी छिन्न-भिन्न हो गई। दक्षिण के दीर्घकालीन युद्ध ने औरंगजेब के राजकोष को रिक्त कर दिया था। उत्तराधिकार के युद्ध में मुगल साम्राज्य पर राजकुमार मुअज्जम को बहादुर शाह नाम के साथ मुगल सिंहासन पर बिठाया गया। इसे इतिहास में बहादुर शाह प्रथम के नाम से जाना जाता है।
पेशवा पद किया वंशानुगत
बालाजी विश्वनाथ के सदप्रयासों और पुरुषार्थ से मराठा साम्राज्य अपने उसी गौरवपूर्ण पद को प्राप्त करने में सफल हुआ, जिस पर कभी शिवाजी महाराज ने उसे प्रतिष्ठित किया था। इस प्रकार बालाजी विश्वनाथ ने इस माध्यम से मराठा साम्राज्य की अप्रतिम सेवा की। उसकी इन महान सेवाओं को पुरस्कार देते हुए ही छत्रपति साहू ने उन्हें पेशवा के पद पर विराजमान किया। छत्रपति शाहू ने अब पेशवा का पद वंशानुगत कर दिया और इस पर बालाजी विश्वनाथ के परिवार का एकाधिकार हो गया। वास्तव में पेशवा और छत्रपति महाराज के दो पद मराठा साम्राज्य के ऐसे पद थे जो आज के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पदों के समकक्ष माने जा सकते हैं। इस प्रकार भारत में मराठा साम्राज्य के माध्यम से वर्तमान लोकतंत्र का पूर्वाभ्यास हो गया था। यद्यपि इससे भी उत्तम लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप चलने वाली शासन प्रणाली हमें भारत के प्राचीन गणराज्य में मिलती है। पेशवा पद के वंशानुगत हो जाने के कारण ही बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के उपरांत उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा का पद प्रदान कर दिया गया, जो एक वीर, साहसी और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था।
पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु
मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य है। संसार में जो आया है, उसे जाना अवश्य है। अतः पेशवा बालाजी विश्वनाथ भी इस अकाट्य सत्य के अपवाद नहीं हो सकते थे। उनका भी एक न एक दिन देहांत होना ही था। अतः 2 अप्रैल, 1720 को मराठा साम्राज्य के इस महान नक्षत्र का देहांत हो गया। सचमुच यह उनके प्रारब्ध और पुरुषार्थ का ही परिणाम था कि एक साधारण से परिवार से निकल कर उन्होंने देश की महानतम सेवा की और अपने जीवन में मराठा साम्राज्य के शीर्ष पद को सुशोभित किया। बालाजी विश्वनाथ को सन् 1713 में पेशवा की उपाधि दी गई थी।
पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने सन् 1719 में सैय्यद बंधुओं के कहने पर मुगल सम्राट से जो संधि की थी उसमें पेशवा ने अपना पूर्ण राजनीतिक और कूटनीतिक कौशल दिखाया था। जिसके माध्यम से उन्होंने मुगलों की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार मराठों के लिए प्राप्त कर लिया था। वास्तव में यह उनकी बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता थी। तभी तो इस सन्धि को सर रिचर्ड टेम्पल ने मराठा साम्राज्य का मैग्नाकार्टा कहा है। छत्रपति शाहू अपने आप में बहुत अधिक प्रशासनिक क्षमता रखने वाले शासक नहीं थे। इसके उपरांत भी उनकी स्थिति को पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने अपने देहावसान से पूर्व बहुत सुदृढ़ कर दिया था।
ऐसे लोगों के लिए ही किसी कवि ने कहा है- उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है। सुख नहीं धर्म भी नहीं न तो दर्शन है।। विज्ञान ज्ञान बल नहीं न तो चिंतन है। जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है।। सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा। पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा।।
क्रमशः