वैदिक संपत्ति 255, वेदमंत्रों के उपदेश

(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं)

प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’)

गतांक से आगे …

अर्थात् जहाँ जहाँ अन्न का वर्णन मिलता है, वहाँ -वहाँ सर्वत्र ही अन्न का तात्पर्य आहार ही है, अनाज नहीं। इसीलिए आहार की परिभाषा करते हुए उपनिषद् में लिखा गया है कि अद्यतेति च भूतानि तस्माद तदुच्यते’ अर्थात् प्राणीमात्र का जो कुछ आहार है, वह सब अन्न ही है। क्योंकि अन्न शब्द ‘अभड़जूक्षणे’ बातु से बनता है, जिसका अर्थ यही होता है कि जो कुछ खाया जाय वह सब अन्न ही है। इसीलिए मनु भगवान् ने पिशाचों और राक्षसों का अन्न मद्य और मांस बतलाया है। कहने का मतलब यह कि अन्न शब्द से अनाज का ही ग्रहण नहीं है। प्रत्युत अन्न में उन समस्त पदार्थों का समावेश है, जो प्राणीमात्र का आहार हैं। अब रही कृषि । कृषि के लिए लिखते हुए मनु भगवान् कहते हैं कि-

वैश्यवृत्त्यापि जीवस्तु ब्राह्मणः क्षत्रियोऽपि वा ।
हिसाप्रायां पराधीनां कृषि यत्नेन वर्जयेत् ।।
कृषि साध्विति मन्यन्ते सा वृत्ति सद्विर्गाहता ।
भूमि भूमिशमांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम् ॥ (मनु० 10/83-84)
अर्थात् वैश्य वृति से जीते हुये भी ब्रहामण और क्षत्री बहुत हिंसा वाली और पराधीन खेती को यत्न से छोड दे।
खेती अच्छी है ऐसा लोग कहते हैं, परन्तु यह वृत्ति सत्पुरुषों द्वारा इसलिए निन्दित है कि किसान का लोहा लगा हुआ हल भूमि और भूमि के रहनेवालों का नाश कर देता है। क्योंकि धान्य की खेती से वन और वाटिकाओं का नाथ हो जाता है. पशुयों के चारागाह नष्ट हो जाते हैं और वनवृक्षों से जो प्राकृतिक शीतलता प्राप्त होती है वह नहीं रहती। जंगलों को शीतलता के प्रभाव से वर्षा कम हो जाती है और प्राणनाशक वायु का खर्च कम हो जाने से वायु जहरीली हो जाती है और नाना प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। अवर्षण से भूमि निरस हो जाती है और अनावृष्टि तथा बीमारियों से मनुष्य पशुदि मर जाते हैं। इसीलिए कृषि को ग्रहित बतलाया गया है और कहा गया है कि कृषि से भूमि और भूमि के प्राणी मर जाते हैं। इसके आगे मनु भगवान् कहते हैं कि-

अकृतं च कृतात्क्षेत्राद् गौरजाविकमेव च ।
हिरण्यं धान्यसन च पूर्व पूर्वमदोषवत् । (मनुस्मृति 10/114)

अर्थात् बनाए हुए खेत से स्वाभाविक खेत में, बकरी भेड़ से गौ में और धान्य तथा अन्न से सोना में कम दोष है अर्थात् उत्तर उत्तर से पूर्व पूर्व अच्छा है। अन्न से सोना अच्छा है, बकरी से गो अच्छी है और अन्नवाले खेतों से वाटिका वाले अकृत खेत उत्तम हैं। इसमें भी पाया जाता है कि अन्न वाली खेती का दर्जा आर्य सभ्यता में बहुत ही निष्कृष्ट है। मनु भगवान् जहाँ खेती को इतनी हीन दृष्टि से देखते हैं, वहाँ वृक्षों की हिफाजत के लिए बहुत बड़ा जोर देते है। आप कहते हैं कि-

इश्थनार्थमशुष्काणां इमाणामवपातनम् ।
आत्मार्थ च क्रियारम्भो निन्दितान्नवनं तथा ।। (मनु० 11/64)
फलदानां तु वृक्षाणां छेदने जप्यमृक्शतम् ।
गुस्ववल्लीलतानां च पुष्पितानां च वीरुधाम् ।। (मनु० 11/142)
वनस्पतीनां सर्वेषामुपभोगं यथा यथा ।
तथा तथा दमः कार्यो हिसायामिति घारणा ।। (मनु० 8/285)

अर्थात् इंधन के लिए हरे वृक्षों का काटना और निन्दित अन्नों का खाना उपपातक है। फल देनेवाले वृक्षों, गुल्म, बेल, लता और पुष्पित वीरूधों का काटनेवाला एक सौ ऋचायों का जप करे। समस्त वनस्पतियों का जो मनुष्य जैसा जैसा नुकसान करे उसको राजा उसी प्रकार दण्ड देवे । इन आज्ञाओं से सिद्ध होता है कि वन और वाटिकाओं का दर्जा खेती के बहुत बड़ा है। ऋग्वेद १०/१४६।६ में लिखा है कि ‘बह्वनामकृषीवलाम्’ अर्थात् वनवृक्षों से बिना खेती के ही बहुत सा अन्न अर्थात् मनुष्य के आहार की उत्पत्ति होती है। कहने का मतलब यह कि आर्य सभ्यता में कृषि से बाग बगीचों का माहात्म्य अधिक है। यद्यपि बाग बगीचों का माहात्म्य बड़ा है, तथापि जीविका का प्रबन्ध रखनेवाले वैश्यों को कृषि करने की भी थोड़ी सी आज्ञा है। इस निबल आज्ञा के तीन कारण हैं। एक तो कृषि से उत्पन्न अनाज यज्ञों के काम में आता है अर्थात् अनेक प्रकार के यज्ञ अनेक प्रकार के अन्नों से ही होते हैं।
क्रमशः

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