हिन्दू राष्ट्र स्वप्नदृष्टा : बंदा वीर बैरागी
लेखकीय निवेदन
कूड़ेदान में कागज या और दूसरी अनुपयोगी वस्तुओं को फेंकना तो हर देश में और हर समाज में देखा जाता है , परंतु अपने क्रांतिकारियों को उठाकर इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का काम केवल भारत में ही होता है। ऐसा नहीं है कि अपने क्रांतिकारियों को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का यह निंदनीय कृत्य भारत में आज ही हो रहा है । क्रांतिकारियों को या देशभक्तों को या देश के लिए जीने – मरने वाले लोगों को उठाकर कूड़ेदान में फेंकने का यह क्रम भारतवर्ष में सदियों से हो रहा है । निश्चित रूप से इसे मुगल काल की देन कहा जा सकता है । जिसे हमने भारत की तथाकथित ‘ गंगा – जमुनी संस्कृति ‘ को बनाए रखने और अपने अस्तित्व को मिटाने के लिए तत्पर रहने के नाम पर स्वीकार करने का अक्षम्य और राष्ट्र विरोधी कार्य किया है । यद्यपि मुगल काल में ऐसा होना स्वीकार किया सकता था और उनके द्वारा ऐसा क्यों किया जा रहा था या क्यों किया जाता रहा ? – यह भी समझ में आ सकता था ,परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात भी ऐसा होता रहा या आज भी हो रहा है , यह समझ में नहीं आता और यही आज का सबसे बड़ा प्रश्न भी है ।
घात और प्रतिघात की इतिहास दे रहा साक्षी ,
हम आंख मूंदे चल रहे हो भव्य के आकांक्षी ।
माया मोह के चक्र में हमको फंसाया है गया ,
जिससे न हम हो सकें , निज पूर्वजों के पारखी ।।
संसार का यह एक अकाट्य सत्य है कि आप किसी की प्रतिभा पर पहरे नहीं बैठा सकते । प्रतिभा भीतर से फूटने वाला एक ऐसा अजस्र स्रोत है जो विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी फूटेगा और जब फूटकर उसका लावा बहकर चलेगा तो उन सभी विरोधी शक्तियों को समाप्त करता हुआ चला जाएगा जो उसकी प्रतिभा को बलात अवरुद्ध करने का अतार्किक और अप्राकृतिक प्रयास कर रहे थे । किसी को रोकने से कभी सवेरा नहीं रुकता । सूर्य को अपने सही समय पर उदय होना ही है । इसी प्रकार जिन्हें इतिहास बनाना होता है , इतिहास की दिशा को परिवर्तित करना होता है या इतिहास के क्रूर काल को समाप्त कर उसमें सरसता , समरसता और प्रेम का संचार करना होता है , उन्हें भी अपने इस महान कार्य से कोई रोक नहीं सकता। इसका कारण यह है कि ऐसे महान व्यक्तित्व के महान कृतित्व के पीछे दिव्य शक्तियों का वरदहस्त होता है , जो उनसे विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी ऐसे महान कार्य संपादित करा ही लेती हैं जिनके लिए उन्हें इस धर्म धरा पर जन्म लेकर आना पड़ता है। मानो विधाता उन्हें उन विपरीत परिस्थितियों में क्रूर काल और क्रूर व्यक्तित्व से लड़ने और उनका शमन करने के लिए ही विशेष रूप से भेजता है ।
जन्म उन्हीं के सार्थक होते
जो लड़ते झंझावातों से ।
उनके क्या जो रोते रहते
सदा व्यर्थ की बातों पे ।।
बड़े काम ईश्वर करवाता
जो दिव्य विभूति कहलातीं ।
उनसे क्या जो सोती रहतीं
और नहीं कुछ कर पातीं ।।
हम जिस महान व्यक्तित्व के विषय में इस पुस्तक के माध्यम से चर्चा करने जा रहे हैं , उसका नाम बंदा वीर बैरागी है । जिसने मां भारती की अनुपम सेवा करते हुए अपना नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखाने में सफलता प्राप्त की । जिस काल में बंदा वीर बैरागी का जन्म हुआ वह ऐसा काल था , जब हवाओं में भी मुगलों की तलवारों की सनसनाहट होती थी । इस सनसनाहट को सुनकर कोकिला मौन हो जाती थी । यदि जंगल से भी कोई आवाज आती थी तो लोगों को लगता था कि जैसे तलवारों की चलने की आवाज आ रही है । जिसे लोग कान धरकर सुनते थे।
वैसे भयानक और घोर निराशा निशा से घिरे काल में भी मां भारती पर दिव्य शक्तियों की विशेष अनुकंपा थी । यही कारण था कि हमारे वीर पूर्वज उस भयानक काल में भी तलवारों की टंकार से न तो भयभीत हुए और न ही उनसे पीठ फेरने का कहीं कोई कायरतापूर्ण कार्य ही किया, तभी तो घोर निराशा के उन क्षणों में भी आशा की ऐसी दिव्य किरण सर्वत्र बिखरी हुई दिखाई देती थीं , जो हर व्यक्ति को यह विश्वास दिलाती थीं कि सवेरे पर चाहे कितने ही पहरे बैठा लिया जाएं , पर वह आकर रहेगा अर्थात स्वतंत्रता मिलेगी , निश्चित रूप से मिलेगी।
सवेरा सदा होकर रहता
नहीं रोक सका है कोई ।
फसल वैसी ही सब कोई
काटे जैसी जिसने बोई ।।
कर्म का फल मिलकर रहता ,
यह शाश्वत सनातन बात सही ।
सूर्योदय तो हर हाल में होगा
चाहे कितनी गहरी रात सही ।।
घोर निराशा के उस काल में बंदा वीर बैरागी एक ऐसी ही दिव्य किरण थी । उनका नाम भारत के लोगों में स्वतंत्रता का विश्वास जगाने वाला था और उनका काम लोगों में दिव्यता और देशभक्ति के उत्कृष्ट भावों का संचार करता था । उनके नाम में लगा ‘ बंदा ‘ शब्द उन्हें भगवान के प्रति आस्थावान प्रकट करता था। जिससे पता चलता था कि वह परमपिता – परमेश्वर की न्याय – व्यवस्था में विश्वास रखकर चलने वाले व्यक्ति हैं , एक ऐसे भक्त हैं जो ईश्वरेच्छा को सर्वोपरि मानकर उसके सामने नतमस्तक होकर रहते हैं।
मां भारती के प्रति उनकी अटूट निष्ठा , देशभक्ति , राष्ट्रप्रेम की उत्तुंग भावना उन्हें वीर बनाती थी। जी हां , एक ऐसा वीर जिसके नाम को सुनकर हर व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास जागृत होता था ,हर व्यक्ति अपने आप को सुरक्षित अनुभव करता था और हर व्यक्ति को लगता था कि उनके बीच एक ऐसा महायोद्धा विचरता है ,जो उनकी सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी लेने में सक्षम है।
वीर वही होता है जिसके नाम से सबको सुरक्षा अनुभव होती है । जिसके नाम को सुनकर सज्जन शक्ति कांपने लगती है, वह तो क्रूर होता है । भारत की वीरों की परंपरा ही ऐसी रही है जिसने सज्जन शक्ति को सम्मान देकर उनके भय का हरण किया है ,जबकि दुष्ट और आततायी लोगों के लिए वह काल बनकर विचरे हैं । जिससे उनके नाम को सुनकर दुष्ट प्रवृत्ति के लोग भयभीत होते रहे हैं । हमारे इस महान योद्धा के नाम में लगा ‘ वीर ‘ उनके भीतर के ऐसे ही गुणों का परिचायक था। जबकि हमारे इस इतिहास नायक के नाम में लगा ‘बैरागी ‘ भारत की उस सनातन परंपरा का प्रतीक है जो संसार में रहकर भी उस से विरक्त रहता है , जो कीचड़ में रहकर भी कमल की भांति खिला हुआ रहता है और कीचड़ की गंदगी को अपने आप से लिप्त नहीं होने देता। अनासक्त भाव से संसार में रहना किसी ‘ बैरागी ‘ का ही काम हो सकता है । युद्धों की श्रंखला में नित्य प्रति उलझे रहना और उसके उपरांत भी संसार से विरक्त रहना तो सच में बंदा वीर बैरागी का ही काम हो सकता है।
इस प्रकार बंदा वीर बैरागी के व्यक्तित्व और कृतित्व को यदि उनके नाम के अनुरूप व्याख्यायित करना हो तो यह माना जा सकता है कि हमारा यह इतिहास नायक एक ऐसा बंदा था जो वीर भी था और बैरागी भी था अर्थात जिसके व्यक्तित्व और कृतित्व में गंगा यमुना की ऐसी दो धाराएं प्रवाहित होती थीं जो एक भारत के क्षत्रबल की प्रतीक थी तो दूसरी ब्रह्मबल की प्रतीक थी। इस प्रकार भारत की इस महान परंपरा का समागम बंदा वीर बैरागी के व्यक्तित्व और कृतित्व से झलकता है। यह समागम सचमुच बड़ा दुर्लभ है , क्योंकि या तो व्यक्ति क्षत्रबल से संपन्न मिलता है , या फिर ब्रह्मबल से संपन्न मिलता है । जो क्षत्रबल से संपन्न है , वह अध्यात्म की ऊंचाई को छूने वाला नहीं हो सकता और जो अध्यात्म अर्थात ब्रह्मबल से युक्त है , वह क्षत्रबल से सामान्यतः हीन होता है।
अध्यात्म की ऊंचाई को छूने वाला व्यक्ति कई बार राष्ट्र के लिए अनुपयोगी सिद्ध होता है , जब वह यह मान लेता है कि मेरा समाज , देश या राष्ट्र से क्या लेना देना ? मुझे तो आत्मोत्थान करना है , आत्मोद्धार करना है , आत्म कल्याण करना है । तब ऐसा व्यक्ति बहुत ऊंची साधना का साधक होते हुए भी स्वार्थी हो उठता है। वास्तव में उसी साधक की साधना फलीभूत होती है जो मानवता के लिए ‘ राष्ट्र प्रथम ‘ के सिद्धांत को अपनाते हुए अपनी अध्यात्म – साधना को लात मारकर राष्ट्र – साधना में भी उतर जाता है ,और उस व्यक्तित्व के तो कहने ही क्या जो राष्ट्र साधना के साथ – साथ अध्यात्म साधना में भी लगा रहे ? बंदा वीर बैरागी निसंदेह ऐसे ही व्यक्तित्व के स्वामी थे जो आत्मकल्याण रत रहते हुए मानवता की हितसाधना में भी रत रहे , जिनके लिए राष्ट्र प्रथम हो गया और आत्मोन्नति , आत्मकल्याण या आत्मोत्थान बाद की चीज होकर रह गया।
तनिक स्मरण करें जब वह अपनी ऊंची साधना में रत थे ,तब उन्हें गुरु गोविंदसिंह उनकी साधना से उठाकर लाते हैं ,और कहते हैं कि देश भी इस समय किसी बड़े साधक की साधना की इच्छा कर रहा है , तनिक इसकी भी चिंता करो । गुरु महाराज के इस निवेदन को बंदा वीर बैरागी टालने का तनिक सा प्रयास भी नहीं करते । वह अपनी अध्यात्म साधना से उठते हैं और राष्ट्रसाधना के लिए स्वयं को सहर्ष प्रस्तुत कर देते हैं।
इसीलिए भाई परमानंद जी ने बंदा बैरागी के बारे में लिखा है कि :– ” मुझे उसके जीवन में वह विचित्रता दिखाई देती है जो न केवल भारत वर्ष के प्रत्युत संसार भर के किसी महापुरुष में नजर नहीं आती । उच्च आत्माओं की परस्पर तुलना करना व्यर्थ है , फिर भी बैरागी के जीवन में कुछ ऐसे गुण पाए जाते हैं जो न राणा प्रताप में दिखाई देते हैं और न शिवाजी में । मुसलमानों के राज्य काल में इस वीर का आदर्श एक सच्चा जातीय आदर्श था । हिन्दू पदाक्रांत और पराधीन अवस्था में थे । बैरागी एक पक्का हिंदू था । सिखों के अंदर अपने पंथ के लिए प्रेम का भाव काम करता था , राजपूत और मराठे अपने – अपने प्रांत को ही अपना देश समझे बैठे थे । बैरागी न तो पंथ में सम्मिलित हुआ और न ही उसे किसी प्रांत विशेष का ध्यान था। उसकी आत्मा में हिंदू धर्म और हिंदू जाति के लिए अनन्य भक्ति और अगाध प्रेम था । हिंदुओं पर अत्याचार होते देख उनका खून खौल उठता था । इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए उसने उन्हीं साधनों का उपयोग किया जिनसे मुसलमानों ने हिंदुओं को दबाने की कोशिश की थी ।”
राष्ट्र साधकों के चिंतन में जितनी अधिक समग्रता और सर्व समावेशी चिंतन धारा होती है , उतना ही वह महान होता है । यदि उसके चिंतन में संकीर्णता है तो उसका व्यक्तित्व भी संकीर्ण होता है ,और तब वह संपूर्ण राष्ट्र वासियों के लिए न् तो प्रेरणा का स्रोत हो पाता है ,और न ही आराधना का केंद्र बन पाता है । श्रीराम संपूर्ण मानवता के श्रद्धा के केन्द्र इसलिए हैं कि वह संपूर्ण मानवता के लिए काम करने वाले व्यक्तित्व थे । उन्होंने मर्यादाएं स्थापित कीं इसलिए लोगों ने उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर सर्वोत्कृष्ट सम्मान दिया । यह सम्मान विश्व इतिहास में श्री राम जी के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्तित्व को उपलब्ध नहीं हो पाया। बंदा बैरागी जीवन भर देश को हिंदूराष्ट्र बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। उनका चिंतन भारत की उसी प्राचीन राजनीतिक प्रणाली की खोज में लगा रहा जो दुष्टों का संहार कर सज्जन शक्ति का परिष्कार करने में विश्वास रखती थी। उनकी सोच अपने उन्हीं प्राचीन वैदिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए संघर्ष करती रही जो मानवतावाद में विश्वास रखते हैं। वह भारत को खोज रहे थे – भारत का निर्माण करने के लिए । मुगलों के अत्याचारों के उस भयानकतम काल में इतनी ऊंची साधना और इतनी ऊंची परिकल्पना करके चलना बड़ा साहसिक कार्य था , जिसे बंदा बैरागी ने करके दिखाया।
भारत के छद्म इतिहासकारों ने चाहे हमारे इस महामानव , महानायक और महान राष्ट्रवादी चिंतक को इतिहास की मुख्यधारा से अलग फेंकने का अपराध किया हो , परंतु मां भारती के हृदय में अपने इस महान सपूत के प्रति असीम आदर और सम्मान का भाव था। यही कारण है कि देश का हर राष्ट्रवादी व्यक्ति अपने इस राष्ट्र साधक को हृदय से नमन करता है।
वीरता और शौर्य का आलोक सर्वत्र व्याप्त था ,
हर व्यक्ति देश भक्ति से मानो पूर्ण आप्त था ।
हर देशवासी के लिए सदा राष्ट्र प्रथम पूज्य था ,
तभी तो सिरमौर विश्व का मेरा भारत देश था ।।
जिस महामानव बंदा बैरागी ने अपने देश के प्रति इतने उत्कृष्ट भाव अपने जीवन में उतारे हों और उन्हें साकार रूप दिया हो , उस महामानव को हमारा कोटि कोटि प्रणाम । उसके ऐसे दिव्य और भव्य स्वरूप को ही इस पुस्तक में प्रस्तुत करने का मेरी ओर से प्रयास किया गया है ।पुस्तक को सार्थक सफल और प्रमाणिक बनाने में जिन विद्वानों , लेखकों , विचारकों और इतिहासकारों के उद्धरण मैंने यहां प्रस्तुत किए हैं उनके प्रति भी मैं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं । साथ ही पुस्तक के प्रकाशन के लिए प्रकाशक महोदय का भी हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ , जिन्होंने इसे अल्प समय में सुबुद्ध पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में मेरी सहायता की है । ईश्वरीय अनुकंपा और ज्येष्ठ , श्रेष्ठ , वरिष्ठ ,कनिष्ठ सभी प्रियजनों और परिजनों के सहयोग , आशीर्वाद व शुभकामनाओं के प्रति भी मैं हृदय से अपना धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिनके कारण यह कार्य संपन्न हो पाया है ।
मैं आशा करता हूं कि इस यह पुस्तक आप सभी के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी और आपका प्रेम पूर्ण सहयोग एवं आशीर्वाद मुझे पूर्ववत ही प्राप्त होगा।
आपका स्नेहाभिलाषी
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत