भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 410 [हिन्दवी – स्वराज के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पुस्तक से] *हिंदवी स्वराज्य का संघर्ष और छत्रपति राजाराम महाराज (अध्याय -09)*

छत्रपति संभाजी महाराज का जिस प्रकार मुगलों ने निर्दयता और क्रूरता के साथ वध कर दिया था, उसके परिणामस्वरूप मराठा साम्राज्य के सामने कई प्रकार के प्रश्न आ खड़े हुए थे। सर्वप्रथम स्वराज्य की रक्षा के लिए चल रहे संघर्ष को यथावत बनाए रखने के लिए एक योग्य उत्तराधिकारी के ढूँढने का प्रश्न था, क्योंकि संभाजी महाराज के औरंगजेब की जेल में जाने के पश्चात मुगल कुछ अधिक ही उत्साहित हो गए थे। अब वह हिंदवी स्वराज्य अर्थात मराठा साम्राज्य को छिन्न- भिन्न करने के लिए निर्भय होकर आक्रमण करते जा रहे थे। इनका मुंहतोड़ प्रत्युत्तर देने के लिए कोई ना कोई योग्य शासक होना अपेक्षित था। मुगल हिंदवी स्वराज्य के गढ़, कोट व चौकियों को एक-एक कर अपना ग्रास बनाते जा रहे थे। राजधानी रायगढ़ को भी औरंगजेब के सेनापति जुल्फीकार खान ने घेर डाला था। मराठा साम्राज्य को छिन्न भिन्न करने और बड़े प्रयत्न से तैयार किए गए हिंदवी स्वराज्य की नींव को उखाड़ फेंकने के लिए औरंगजेब स्वयं दक्कन में डेरा डाले बैठा था। उसकी योजना थी कि इस बार वह अपने उद्देश्य में सफल होकर ही दिल्ली लौटेगा। इस बार औरंगजेब दक्षिण की आदिलशाही और कुतुबशाही सहित मराठा शक्तियों का दमन कर दिल्ली लौटना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि इस बार दक्षिण से निश्चिंत होकर वह दिल्ली लौटे तो अच्छा है।

ऐसे भयंकर और कठिनाइयों से भरे हुए समय में छत्रपति शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र राजाराम को राज्य की मंत्रिपरिषद ने अपना राजा नियुक्त किया।

इसमें संभाजी महाराज की रानी येसूबाई एवं स्वराज्य के प्रमुख अधिकारियों ने अपनी स्वतंत्र सहमति प्रदान की और हिंदवी स्वराज्य के हित में एक अच्छा और सराहनीय निर्णय लिया। छत्रपति राजाराम महाराज ने भी बहुत ही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने आप को साहू जी महाराज का प्रतिनिधि मानकर शासन करना आरंभ किया। कहा जाता है कि उन्होंने राजगद्दी पर बैठने से इंकार कर दिया, परंतु हिंदवी स्वराज्य की रक्षा के लिए काम करने पर सहमति प्रदान की। छत्रपति शाहू शंभुजी के पुत्र और शिवाजी महाराज के पौत्र थे जो अपने पिता संभाजी के साथ औरंगजेब की जेल में डाल दिये गए थे। उनके जीवित रहने का अभिप्राय था कि राजा का पद उन्हीं को मिलना चाहिए था, इसलिए राजाराम महाराज ने स्वयं को उनके रहते राजा न मानकर उनका प्रतिनिधि मानकर काम करना आरंभ किया। जब सत्ता स्वार्थ के लिए लोग लड़ रहे हो तब भी निहित स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के लिए काम करने के दृष्टिकोण से समकालीन इतिहास की यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है।

साहू जी के बारे में

साहू जिसे शिवाजी द्वीतीय के नाम से भी इतिहास में जाना जाता है, छत्रपति शिवाजी का पौत्र तथा शंभूजी और एसुबाई का पुत्र था। साहू शंभु जी का उत्तराधिकारी था। जिसने राजाराम और ताराबाई के पुत्र शिवाजी तृतीय को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया था। बादशाह औरंगजेब ने शिवाजी द्वीतीय साहू को साधु कहना आरंभ कर दिया था। इसी से उसका नाम साहू हो गया था। साहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की सहायता से मराठा साम्राज्य को एक नवीन शक्ति के रूप में स्थापित किया था। 1689 में रायगढ़ महाराष्ट्र के पतन के बाद साहू और उसकी मां येसूबाई एवं अन्य महत्वपूर्ण मराठा लोगों को कैद कर औरंगजेब के शिविर में नजरबंद कर दिया गया। उस समय वह बालक था और वह बंदी बनाकर मुगल दरबार में लाया गया। उसका भी वास्तविक नाम शिवाजी था, किंतु उसे शिवाजी द्वीतीय के नाम से जाना जाता था। औरंगजेब ने साहू को साधु का नाम दिया और यही साधु शब्द साहू हो गया। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के उपरांत सम्राट बहादुर शाह प्रथम ने उसे मुक्त कर दिया।

छत्रपति राजाराम महाराज ने की घोषणा

छत्रपति राजाराम महाराज ने अपना राज्याभिषेक होते ही मुगलों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया कि, “मराठों का राज्य नामशेष नहीं हुआ है, इतना ही नहीं, यदि आवश्यक हुआ तो अंतिम समय तक मराठों का शत्रु मुगलों के साथ निश्चयपूर्वक युद्ध जारी ही रहेगा।” इससे औरंगजेब को यह भली प्रकार ज्ञात हो गया कि वह जिस योजना को बनाकर दक्कन में पड़ा हुआ है, उसकी वह योजना इतनी सरलता से संपन्न होने वाली नहीं है। उसे चुनौती देने वाला एक और मराठा महारथी दक्षिण में उत्पन्न हो गया है।

 माता एसुबाई के मार्गदर्शन में यह निर्णय लिया गया कि मुगलों को चकमा देते हुए परिवार एवं स्वराज्य दोनों के हित में यह उचित होगा कि राजाराम महाराज कर्नाटक की ओर जिंजी के किले में चले जाएँ और वहाँ से मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखें। इस परामर्श को मानकर राजाराम महाराज रायगढ़ से निकलकर प्रतापगढ़ की ओर गए। प्रतापगढ़ से सज्जनगढ़, सातारा, वसंतगढ़ होते हुए पन्हाळगढ पर पहुँचे। वे जहाँ भी गए, वहाँ वहाँ मुगल सेना उनके पीछे लगी रही। शीघ्र ही पन्हाळगढ़ पर भी मुगलों ने अपना घेरा डाला। स्वराज्य की स्थिति दिनोंदिन कठिन बनने लगी। तब पूर्व में ही लिए गए निर्णय के अनुसार राजाराम महाराज ने अपने प्रमुख लोगों के साथ जिंजी की ओर जाने का निर्णय लिया।

औरंगजेब ने अपने गुप्तचरों के माध्यम से यह जानकारी ले ली थी कि राजाराम महाराज जिंजी की ओर जाने की तैयारी कर रहे हैं। अतः उसने दक्षिण के सभी संभावित मार्गों पर अपने थानेदार और सैन्यकर्मी नियुक्त कर दिये। जिससे कि राजा को घेरा जा सके और गिरफ्तार कर उसको भी संभाजी के रास्ते पर ही भेज दिया जाए। इतना ही नहीं उसने राजा को घेरने और समाप्त करने के लिए पुर्तगाली वायसराय को भी सचेत कर दिया था कि राजा जिंजी जाने के लिए समुद्री मार्ग का भी आसरा ले सकता है, इसलिए तुम अपने स्तर पर राजा को जल मार्ग में घेरने का प्रयास करना।

राजाराम महाराज ने अपनाया दूसरा मार्ग

पन्हाळगढ़ के घेरे के जारी रहते हुए ही 26 सितम्बर, 1689 को राजाराम महाराज एवं उनके सहयोगी लिंगायत वाणी का वेश परिधान कर गुप्त रूप से घेरे से बाहर निकले। मानसिंग मोरे, प्रहलाद, निराजी, कृष्णाजी अनंत, निळो मोरेश्वर, खंडो बल्लाळ, बाजी कदम इत्यादि लोग साथ थे। घेरे के बाहर निकलते ही अश्वयात्रा आरंभ हुई। सूर्योदय के समय सभी कृष्णा तट पर स्थित नृसिंहवाडी को पहुँचे। पन्हाळगढ़ से सीधे दक्षिण की ओर न जाकर शत्रु को चकमा देने के लिए महाराज पूर्व की ओर गए। औरंगजेब की जेल से आगरा से निकल भागने के समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी ऐसी ही चाल चली थी। वे सीधे दक्षिण की ओर न जाकर पहले उत्तर एवं तत्पश्चात पूर्व एवं तत्पश्चात दक्षिण की ओर गए थे। कृष्णा के उत्तर तट से कुछ समय यात्रा कर उन्होंने पुनः कृष्णा पार कर दक्षिण का मार्ग पकड़ा; क्योंकि जिंजी की ओर जाना है, तो कृष्णा को पुनः एक बार पार करना आवश्यक था। यह सब झंझट केवल शत्रु को चकमा देने के लिए था। महाराज की शिमोगा तक की यात्रा गोकाक सौंदत्ती-नवलगुंद-अनेगरी- लक्ष्मीश्वर-हावेरी-हिरेकेरूर-शिमोगा ऐसी हुई।

देश की स्वाधीनता के लिए कितने ही अनपेक्षित कष्टों को सहन करना पड़ता है। परंतु वही देश अपनी स्वतंत्रता की रक्षा भी कर पाता है जो ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों को या स्वतंत्रता प्रेमियों को जन्मता है जो स्वतंत्रता के लिए प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने को तैयार हों। राजाराम महाराज भी उन्हीं वीर स्वतंत्रताप्रेमियों में से एक थे, जो अपनी स्वतंत्रता के लिए और अपने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने को तत्पर होते हैं। अपनी यात्रा को सफल बनाने के लिये उन्होंने बहिर्जी घोरपडे, मालोजी घोरपडे, संताजी जगताप, रूपाजी भोंसले इत्यादि अपने सरदारों को पहले से ही भेजा था। यात्रा करते समय महाराज उनसे मिलते थे। जब राजाराम महाराज अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बहुत दूर निकल चुके थे तब कहीं जाकर मुगलों को इस बात का आभास हुआ कि राजाराम महाराज उनके चंगुल से निकल चुके हैं, तब बादशाह द्वारा भी उन्हें घेरने और पकड़ने के लिए विविध प्रयास किए गए। औरंगजेब बादशाह द्वारा भेजी गई एक सेना वरदा नदी के निकट महाराज के पास पहुँच गई; तब उन्होंने बहिर्जी एवं मालोजी इन बंधुओं की सहायता से शत्रु को चकमा देकर नदी पार की; किंतु आगे मुगलों की अन्य सेना ने उनका मार्ग रोक दिया। तब रूपाजी भोंसले एवं संताजी जगताप जैसे वीर बरछैतों ने (बरछाद्वारा युद्ध करने वाले) विशालकाय पराक्रम द्वारा मुगलों को थाम लिया। ऐसे अन्य कई अवसरों पर राजाराम महाराज अपने वीर सेना नायकों और योद्धा साथियों के सहयोग से मुगलों को चकमा देकर अपनी यात्रा को निरंतर जारी रखते रहे।

रानी चेन्नम्मा से मिली राजाराम महाराज को हर प्रकार की सहायता

रानी चेन्नम्मा भारतीय इतिहास की वह वीरांगना हैं जिनके नाम पर हमारा देश अनंतकाल तक गर्व अनुभव करता रहेगा। वह मार्ग में स्थित बिदनूर की रानी थीं। उन्होंने भी राजाराम महाराज को अपनी ओर से देश की स्वतंत्रता के लिए महान सेवाएं अर्पित कीं, जिनके कारण वह इतिहास में अमर ख्याति को प्राप्त हुईं। राजाराम महाराज को यदि रानी चेन्नम्मा का इस समय सहयोग नहीं मिलता तो संभव था कि वह मुगलों को इस स्थान पर चकमा देने में सफल नहीं हो पाते। रानी को जैसे ही पता चला कि उसके राज्य से राजाराम महाराज सुरक्षित निकलकर जिंजी जाना चाहते हैं तो उन्होंने उन्हें सुरक्षित निकलने का न केवल रास्ता दिया अपितु उनका हर संभव सहयोग भी किया। यद्यपि वह जानती थीं कि इस सहयोग करने का अभिप्राय होगा औरंगजेब बादशाह की शत्रुता मोल लेना, परंतु उन्होंने इस सबके उपरांत भी यह कार्य इसलिए किया कि वह शिवाजी महाराज के स्वतंत्रता प्रेमी कार्यों और महान देशभक्ति से भरे जीवन से बहुत अधिक प्रभावित थीं। उनके भीतर देशभक्ति की भावना भरी थी और वह प्रत्येक स्थिति में शत्रु औरंगजेब को समाप्त कर हिंदवी स्वराज्य की सुरक्षा करने को अपना राजधर्म मानती थीं। रानी की इस सहायता के कारण ही मराठा राजा अपने सहकारियों के साथ तुंगभद्रा के तट पर स्थित शिमोगा में सुरक्षित पहुँचे। जैसे ही औरंगजेब को यह पता चला कि राजा के शिमोगा तक पहुँचने में रानी चेन्नम्मा ने विशेष सहयोग दिया है तो उसने एक विशाल सेना रानी को उसके इस देशभक्ति पूर्ण कार्य का दंड देने के लिए भेजी।

रानी चेन्नम्मा के बारे में

कर्नाटक के केलाड़ी साम्राज्य की रानी चेन्नम्मा का भारतीय इतिहास में बहुत ही सम्मानजनक स्थान है। केलाड़ी साम्राज्य को ही बिदनूर के नाम से भी इतिहास में जाना जाता है। इसका गठन विजयनगर साम्राज्य के पतन के पश्चात हुआ था। 1667 में रानी चेन्नम्मा का विवाह राजा सोमशेखर नायक के साथ हुआ था। राजा सोमशेखर की मृत्यु 1677 में हो गई थी। उसके पश्चात चेन्नम्मा ने केलाड़ी नायक वंश के प्रशासन को अपने हाथों में लिया और बड़ी कुशलता से शासन करने लगी। 25 वर्षों के अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने औरंगजेब जैसे क्रूर शासक से टक्कर ली और उसकी सेना को अपने राज्य से खदेड़ दिया था। उन्होंने बसप्पा नायक को गोद लिया था जो उनके निकट के संबंधी थे। आगे चलकर हिरिया बसप्पा नायक के रूप में इतिहास में स्थापित किया गया। इसी रानी’ ने राजाराम महाराज को अपनी सहायता प्रदान की और औरंगजेब के हमले की धमकी से भी आक्रांत नहीं हुई। शिवाजी के पुत्र राजाराम छत्रपति ने जब उनसे आश्रय मांगा तो उन्होंने अपने मंत्रीगण के साथ बैठक कर उन्हें आश्रय देते हुए उनका सम्मान भी किया। उसके पश्चात औरंगजेब ने केलाड़ी पर हमला कर दिया। जिन्होंने बिना हार के युद्ध लड़ा और मुगलों के साथ चला यह युद्ध एक संधि के साथ कालांतर में समाप्त किया। केलाड़ी की रानी चेन्नम्मा भारतीय इतिहास में वीरता शौर्य और साहस की प्रतीक एक वीरांगना के रूप में अमर हो गई।

लड़े वो वीर जवानों की तरह
ठंडा खून फौलाद हुआ,
मरते मरते भी शत्रु मार गिराए
तभी तो देश आजाद हुआ।’
क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य

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