ओ३म् “महान् व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित परम ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द”
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महान् व्यक्तित्व के धनी स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्व आश्रम का नाम महात्मा मुंशीराम जी) (1856-1926) का जीवन एवं व्यक्तित्व कैसा था इसका अनुमान हम शायद नहीं लगा सकते। गुरुकुल के स्नातक, देशभक्त, स्वतन्त्रता सेनानी एवं प्रसिद्ध पत्रकार पं0 सत्यदेव विद्यालंकार जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन चरित्र लिखा है। इस पुस्तक में उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रायः सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है। इसी पुस्तक से हम स्वामी श्रद्धानन्द जी की महानता के एक ऐसे पक्ष को प्रस्तुत कर रहे हैं जो अधिकांश जनता के सम्मुख नहीं आया है। यह पक्ष कांग्रेस के सर्वोच्च नेता पं0 गोपाल कृष्ण गोखले तथा उनके परवर्ती गांधी जी के पत्रव्यवहार सहित उनके समकालीन दीनबन्धु एण्ड्रयूज आदि कुछ अन्य व्यक्तियों की सम्मतियों के द्वारा पुष्ट होता है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से हमारे सभी पाठक बन्धु स्वामी श्रद्धानन्द जी की महानता से परिचित होकर लाभान्वित होंगे। बाद के समय में स्वामी श्रद्धानन्द जी के योगदान को भुला दिया गया। ऐसा न केवल स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ हुआ अपितु नेताजी सुभाषचन्द्र बोस तथा सरदार पटेल आदि अनेक नेताओं के साथ भी हुआ।
पं0 सत्यदेव विद्यालंकार जी लिखते हैं ‘स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व के विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। फिर भी सन् 1912 (सम्वत् 1969) की एक ऐसी मनोरंजक घटना का उल्लेख यहां किया जाता है, जिससे आपके महान् व्यक्तित्व पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। सम्वत् 1969 (सन् 1912) में लाहौर के ‘प्रकाश’ में पाठकों से एक प्रश्न किया गया था कि उनकी दृष्टि में भारत के छः महापुरुष कौन-कौन हैं? एक हजार पांच व्यक्तियों ने उस प्रश्न का उत्तर दिया था। उन उत्तरों में दिये गये नामों के लिए प्राप्त सम्मतियों को जोड़ने पर निम्नलिखित परिणाम निकला था-श्रीयुत् गोपाल कृष्ण गोखले-762, महात्मा मुंशीराम-603, लाला लाजपतराय-533, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक-475, पं0 मदनमोहन मालवीय-475 और भीष्म पितामह दादाभाई नौरोजी-433। चार वर्ष पहिले सन् 1907 (सम्वत् 1964) में हिन्दुस्तान ने भी अपने पाठकों से इसी प्रकार का प्रश्न किया था। उसके निर्णय के अनुसार महात्मा मुंशीराम जी का सातवां नम्बर था। इससे प्रतीत होता है कि चार वर्षों में आप बहुत लोकप्रिय हो गये थे। ‘प्रकाश’ ने इसी सम्बन्ध में लिखा था-‘‘महात्मा मुंशीराम जी ने अपनी चुपचाप परन्तु स्थिर लोकसेवा के कारण लोगों के हृदय पर अधिक अधिकार जमा लिया है।” यह स्पष्ट है कि आपके जीवन में आपकी लोकप्रियता इससे भी अधिक अनुपात से बढ़ती चली गई थी और बड़ी तेजी के साथ आप लोगों के हृदय पर अधिकाधिक ही अधिकार जमाते चले गये थे।
इसी सम्बन्ध में एक और घटना भी बड़ी मनोरंजक है। अन्तिम परिणाम के अनुसार बिल्कुल ठीक-ठीक उत्तर देने वाले के लिए प्रकाश की ओर से 50 रुपये का इनाम रखा गया था। ऐसे ठीक-ठीक उत्तर देने वाले नौ सज्जन थे। एक छोटे से बालक से कहा गया कि उनके कार्डों को जमीन पर फैला कर उनमें से कोई एक उठा ले। उसने महात्मा जी के परम-भक्त, अनन्य-सेवक, श्रद्धासम्पन्न, कर्मशील लुधियाना-निवासी श्री लब्भूराम जी नय्यड़ के नाम का कार्ड उठाया और 50 रुपये का वह इनाम आपको मिला। गुरुकुल की ओर से गुरुकुल की सेवा के लिए दिया जाने वाला पुरस्कार महात्मा मुंशीराम-पदक भी आपको ही मिला था। सच्चे स्नेह और अनन्य भक्ति का यह स्वाभाविक परिणाम था।
यदि कहा जाये कि ‘प्रकाश’ तो आर्यसमाजी पत्र था, उसका वैसा परिणाम निकलना कोई बड़ी बात नहीं थी। महात्मा मुंशीराम जी के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में किसी प्रकार के विवाद में पड़ने के लिए यह उपयुक्त स्थान नहीं है। पिछले और अगले पृष्ठों में इस विवाद का स्वयं ही निर्णय हो गया और हो जायेगा। हां, उस महान् व्यक्तित्व के सम्बन्ध में दो-एक विशेष घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। सन् 1907 की सूरत-कांग्रेस में फूट पर 27 जनवरी 1908 को श्रीयुत (गोपाल कृष्ण) गोखले ने आपको कलकत्ता से एक पत्र में लिखा था-‘‘मुझको यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि आप 27 दिसम्बर 1907 को सूरत नहीं पहुंच सके, क्योंकि मैं आपसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। उन दुःखपूर्ण घटनाओं के बाद, जिनसे सूरत-कांगे्रस भंग हो गई, आप सरीखे व्यक्ति से मिलना और भी जरूरी हो गया है। घटनाओं का इस समय जो रुख है, उससे मैं अब भी विक्षिप्त हूं, और आपके साथ वर्तमान स्थिति पर विचार-विनिमय करने से मुझको जो सन्तोष प्राप्त होगा, वह दूसरी तरह नहीं हो सकता। आपको मुझसे मिलने में जो कठिनाई है, वही मुझको आपसे मिलने में है। मैं काम में बुरी तरह गुंथा हुआ हूं। मुझको नहीं मालूम कि उससे मैं कैसे छुटकारा प्राप्त करूं।” इसके बाद अपना कार्यक्रम और इंग्लैण्ड जाने के सम्बन्ध में लिखते हुए गोखले जी ने लिखा था-‘‘इससे आपको पता लग जायेगा कि इस वर्ष भी मेरे लिए गुरुकुल आना संभव नहीं है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि गुरुकुल आने की अपनी असमर्थता के लिए जितना मुझको दुःख है, उतना शायद ही किसी और को हो।” इस पत्र से स्पष्ट है कि महात्मा जी के व्यक्तित्व से श्रीयुत गोखले कितने प्रभावित थे? वे सचमुच महात्मा जी को अपना अंतरंग साथी समझते थे और व्यवस्थापिका सभा के काम के सम्बन्ध में भी आपके साथ सलाह-मशवरा करते रहते थे। आपने 17 अप्रैल सन् 1911 के पत्र में लिखा था-‘‘आपके पत्रों के लिए मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूं। वास्तव में मैं अपना अहोभाग्य समझता हूं कि आप मुझको अपना निजी अंतरंग मित्र समझते हैं।” फिर एक पत्र में लिखा था-‘‘यदि आप पूना आकर हमारी सोसाइटी का अवलोकन कर सकेंगे तो हम लोगों को बड़ी प्रसन्नता होगी। यदि आप आने का निश्चय करें, जैसा कि मुझको विश्वास है कि आप जरूर करेंगे, तो पहिले सूचना दे दें, जिससे मैं आपके अनुकूल अपना कार्यक्रम बना रखूं।”
श्री गोखले के समान गांधीजी भी जिस प्रकार आप के व्यक्तित्व से प्रभावित थे, उसका एक हल्का-सा चित्र उपर्युक्त पुस्तक में पीछे दिया गया है। अहमदाबाद में सत्याग्रह-आश्रम की स्थापना करते हुए उसके सम्बन्ध में गांधी जी आपसे बराबर परामर्श करते रहे। एक पत्र में गांधी जी ने लिखा था-‘‘आप का पत्र मुझको बल देता है। मेरे कार्य में आर्थिक त्रुटि आयेगी तब आपका स्मरण अवश्य करूंगा। …… आश्रमवासी सब आपके आने की राह देखते हैं। अवधि बीतने पर हम सब अधीर हो जायेंगे।” इसी प्रकार एक दूसरे पत्र में लिखा था-‘‘मेरी ये आजीजी है कि थोड़े दिनों के लिए आप अहमदाबाद को और इस आश्रम को पावन करो। आश्रमवासी आप का दर्शन कर कृतार्थ होंगे।” गांधी जी के पत्रों से मालूम होता है कि वह भी आप के साथ अपने हर कार्य के सम्बन्ध में सदा परामर्श करते रहते थे। दीनबन्धु एण्ड्रयूज का अपके प्रति जो स्वाभाविक आकर्षण था, उसका उल्लेख यथास्थान किया जा चुका है। दीनबन्धु अपने लिये आपको आतंरिक स्फूर्ति का प्रधान साधन मानते थे। मि. हावर्ट सरीखे सरकारी अधिकारी ने भी आपसे अपने विवाह के लिए विलायत से पत्र द्वारा शुभ आशीर्वाद मांगा था। विवाह के बाद विलायत से लौटने पर वह पत्नी सहित आपके समक्ष आशीर्वाद लेने के लिए ही उपस्थित हुए थे। मि. रैम्जे मैकडाल्ड आदि आप द्वारा जिस प्रकार प्रभावित हुए थे, उसको दोहराने की आवश्यकता नहीं। (श्री रैम्से मैकडाल्ड इंग्लैण्ड से गुरुकुल आये थे और महात्मा मुंशीराम जी के साथ रहे थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा था कि यदि किसी व्यक्ति को जीवित ईसामसीह के दर्शन करने हों तो मैं उसे महात्मा मुंशीराम के दर्शन करने की सलाह दूंगा। बाद में श्री रैम्जे मैकडानल्ड ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे।)
आपके व्यक्तित्व की महानता को बतलाने वाली यह केवल दो-एक घटनाएं हैं। वैसे भारत के महापुरुषों में आप का चाहे कोई सा भी स्थान क्यों न रहा हो, किन्तु आम जनता और विशेषतः आर्य जगत् के तो आप हृदय-सम्राट् ही थे, जिसने आपकी अंगुली के ईशारे पर गुरुकुल के लिए तन, मन, धन न्यौछावर करने में कभी हीनता, दीनता अथवा कृपणता नहीं दिखाई और उसके भरोसे आपने गुरुकुल सरीखी असंभव जंचने वाली संस्था को इतना महान् और विशाल बना कर ‘महात्मा’ शब्द को वस्तुतः सार्थक कर दिखाया था।’
इस लेख को पढ़कर स्वामी श्रद्धानन्द जी की महानता के विषय में कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है। हम पाठकों को पं0 सत्यदेव विद्यालंकार जी रचित ‘‘स्वामी श्रद्धानन्द” जीवन चरित पढ़ने की सलाह दे रहे हैं। इस ग्रन्थ का प्रकाशन वर्ष 2018 में आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध प्रकाशक कीर्तिशेष ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने अपने प्रकाशन ‘‘हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोनसिटी” से किया था। पुस्तक का सम्पादन सुप्रसिद्ध आर्य विद्वान् यशस्वी डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने किया है। पुस्तक में 448 पृष्ठ हैं। हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोनसिटी का दूरभाष नं0 09414034072/09887452951 है। इस पर सम्पर्क कर पुस्तक प्राप्त की जा सकती है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य