भारत के शौर्य की गौरव गाथा ( मुगल काल के भूले बिसरे हिंदू योद्धा ) भाग 2
प्रस्तावना
आज हम इतिहास के यात्रा पथ पर इतनी दूर निकल आए हैं कि अपना गौरवपूर्ण अतीत भी हमें अविश्वसनीय सा लगता है। बड़े शोधपूर्ण परिश्रम के पश्चात हमारे अनेक विद्वानों ने इन बातों को स्पष्ट किया है कि किस क्षेत्र का भौगोलिक नाम हमारे किस महापुरुष, राजा , सम्राट या ऋषि के नाम पर पड़ा है ? यह अलग बात है कि उनके परिश्रम और शोध को इतिहास में उचित स्थान नहीं दिया गया। यह केवल इसलिए हुआ है कि हमारे इतिहास का विकृतिकरण करते-करते विलुप्तिकरण भी किया गया है। उपरोक्त वर्णन से यह भी स्पष्ट होता है कि तैमूर और बाबर दोनों ही भारतीय वंश परंपरा के ही पुरुष हैं। यद्यपि उन्हें इतिहास में कुछ इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे उनमें परस्पर तो कुछ निकटता है, परंतु भारत से उनका कोई संबंध नहीं रहा। ऐसा भी आभास दिया जाता है जैसे तुर्की और मंगोलिया सभ्यता का भारत की सभ्यता से कोई मेल नहीं है। इतिहास के इस घालमेल में अच्छे से अच्छा बुद्धिमान पाठक भी भटक कर रह जाता है। जब उन्हें ‘ वैदिक संपत्ति ‘ जैसे किसी ग्रंथ के माध्यम से कुछ नई चीजों का पता चलता है या कुछ प्रचलित मान्यताओं के रहस्यों से पर्दा उठता है तो उसकी बुद्धि चकरा जाती है। वह समझ नहीं पाता कि वह ‘ वैदिक संपत्ति ‘ की बातों को सत्य माने या प्रचलित इतिहास की गप्प भरी निराशाजनक बातों को सही माने।
इस बात को यहां लिखने का हमारा अभिप्राय यह है कि विदेशी आक्रमणकारी अत्याचारी तुर्क और मुगल हमारे होकर भी हमारे इसलिए नहीं हैं कि उन्होंने हमारे देश और धर्म के साथ गद्दारी कर हमको ही मरने काटने का अभियान आरंभ किया। इनके मूल को समझकर इनकी भूल को भी समझने की आवश्यकता है, जो आज हमें शूल बनकर चुभ रही है। इनकी योजना अपने काल में भारत का इस्लामीकरण करने की थी, और इनके मानस पुत्र आज भी उनकी अधूरी योजना को पूरे करने के कार्य में ही लगे हुए हैं। इसलिए उनके वास्तविक इतिहास को समझकर अपने क्रांतिकारियों के व्यक्तित्व को समझना भी समय की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर यह पुस्तक लिखी गई है।
हमारा मानना है कि पंडित रघुनंदन शर्मा जी जैसे उपरोक्त विद्वानों के तथ्यों के आलोक में जिस दिन इस रहस्य से पर्दा उठ जाएगा कि मुगल भी आर्य थे, मंगोल भी आर्य थे और आर्य भी भारतीय ही थे। उस दिन अनेक समस्याओं का समाधान हो जाएगा। संसार में जितना भटकाव है, उसके लिए अधिकांश रूप से यह मान्यता उत्तरदायी है कि हम सबके मूल अलग-अलग हैं। भारत में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत ने मूल की खोज के विषय को छूना तक उचित नहीं समझा है। उसने विभिन्नताओं को यथावत बने रहने देने का संकल्प सा ले लिया है। जिससे कोई मूल को हाथ लगाने का भी साहस नहीं करता और यदि करता है तो उसे भारतवर्ष में हेय दृष्टिकोण से देखा जाता है। कहने का अभिप्राय है कि भारतवर्ष में तुष्टिकरण और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत ने पिता को पिता कहना वर्जित कर दिया है। इसी सोच के चलते हमने अपने उन इतिहासनायकों के साथ भी अन्याय किया है , जिन्होंने हमारी पहचान को जीवित रखने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था।
इस पुस्तक के माध्यम से हम उन लोगों को पहचानने का प्रयास करेंगे ,जिन्होंने हमारी राष्ट्रीय पहचान को जीवित रखने के लिए अपने आप को बलिदानी वेदी पर सहर्ष समर्पित कर दिया था।
विषय की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि यह धारणा पूर्णतया भ्रांतिजनक है कि मुगलों ने भारत पर 800 वर्ष तक शासन किया था। भारत के वर्तमान प्रचलित इतिहास से यह बात भी सिद्ध है कि कथित मुगल भारत में बाबर नाम के मुगल के साथ 1526 ईस्वी में भारत आए थे। भारत में मुगलों का शासन वास्तव में इसके और भी 30 वर्ष पश्चात अकबर के राज्यारोहण के बाद सन 1556 ई0 से ही आरंभ हुआ था। 1707 ईस्वी में औरंगजेब के देहांत के पश्चात इस वंश का कोई भी शासक ऐसा नहीं हुआ जिसे अकबर ,जहांगीर , शाहजहां या औरंगजेब के बराबर का दर्जा दिया जा सके। इस प्रकार लगभग डेढ़ सौ वर्ष में ही मुगल वंश का सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार के तथ्यों और प्रमाणों के होने के उपरांत भी भारत पर मुगलों का 800 वर्ष का शासन बताया जाता है। इतिहास के सम्यक अध्ययन के अभाव के कारण हम इस महाझूठ को भी सत्य मान लेते हैं। बात स्पष्ट है कि हमें इतिहास को आंख खोलकर पढ़ना चाहिए। इस बात को ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास एक नीरस विषय नहीं है। इसके विपरीत इसके साथ हमारा अतीत जुड़ा है। हमारे अतीत का गौरव जुड़ा है। हमारे अतीत का यश और वैभव जुड़ा है। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता जुड़ी है। हमारी राष्ट्रीय पहचान जुड़ी है । वह जाति इतिहास में मिट जाती है जो अपने अतीत के गौरव ,यश, वैभव , राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय पहचान के प्रति सजग और सावधान नहीं रह पाती है। यदि आज हम अपनी इन सब बातों के प्रति आपराधिक तटस्थता अपना लेंगे अर्थात तुष्टिकरण और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाकर अपने अस्तित्व की रक्षा के प्रति उदासीनता का भाव अपनाएंगे तो इतिहास हमें कूड़े के ढेर में बदल देगा। हमें कूड़े का ढेर नहीं बनना है बल्कि कूड़े के ढेर अर्थात इस सारे संसार को सोने के ढेर में बदलना है। अपनी जीवन्तता और जीवटता का परिचय देने के लिए आज हमें यह कार्य करना ही होगा। इस पुस्तक का प्रत्येक महानायक मानो हमसे यही आवाहन कर रहा है कि अपने अतीत को पहचान कर अपनी ऊर्जा को संचित करते हुए सही दिशा में आगे बढ़ो।
हमने ऊपर बताया है कि मुगलों का भारत वर्ष में मात्र डेढ़ सौ वर्ष का शासन काल है। इस काल के बारे में भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इस कालखंड में भी मुगलों का संपूर्ण भारत पर कभी शासन नहीं रहा।
अब बात आती है कि भारत में मुगलों को राज्य सिंहासन से इतनी शीघ्र हटना क्यों पड़ा ? बस, यही बात इस पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय है। हमारे ऐसे अनेक वीर योद्धा हुए जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए मुगल काल में अपने बलिदान दिए। उनके बलिदानों के कारण देश को यथाशीघ्र मुगल बादशाहों से मुक्ति मिली। यदि इस बात को इस प्रकार कहा जाए कि हमने मुगलों के शासनकाल में भी देश में स्वाधीनता का दीर्घकालिक युद्ध लड़ा तो भी कोई अतिशयोक्ति न होगी। वास्तव में हमारे देश के स्वाधीनता आंदोलन को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले कालखण्ड का स्वाधीनता आंदोलन वह है जिसे इतिहास में सल्तनत काल कहा जाता है। जबकि दूसरे स्वाधीनता आंदोलन का कालखंड वह है, जिसे देश के इतिहास में मुगल काल के नाम से जाना जाता है और तीसरा स्वाधीनता आंदोलन वह है जो ब्रिटिश काल में लड़ा गया।
यहां हम इस पुस्तक के माध्यम से अपनी स्वाधीनता आंदोलन के दूसरे कालखंड पर चर्चा कर रहे हैं। भारत के लोगों ने कभी भी विदेशी सत्ता को स्वीकार नहीं किया । कई लोगों ने प्रगतिशीलता के नाम पर भारतवासियों के इस स्वाभिमानी आचरण को उनकी कूपमंडूकता कहकर अपमानित किया है। उनका मानना है कि भारतवासियों ने बाहर से आने वाले प्रगतिशील विचारों का स्वागत नहीं किया। क्योंकि वह कूपमंडूक थे । आत्माभिमान में इतने डूबे हुए थे कि उन्हें बाहर से आने वाले अच्छे विचार भी अपने लिए स्वीकार करने योग्य नहीं लगते थे। इस प्रकार की विचारधारा को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी जमकर हवा दी।
इतिहास को यदि सनातन धर्म की वैश्विक व्यवस्था के दृष्टिकोण से देखा जाता और उसी के अनुरूप लिखा जाता तो हमारे सामने दूसरे ही दृष्टिकोण का इतिहास प्रस्तुत होता। इतिहास बोध की कमी के चलते लोगों की मान्यता रही है कि ” यह ( तुर्क और मुगल ) दोनों ही जातियाँ प्रारम्भ में खानाबदोश थीं । ……. धीरे–धीरे इन खानाबदोश जातियों ने अपने बाहु–बल से अपनी राजनीतिक संस्था स्थापित कर ली और कालान्तर में इन्होंने न केवल एशिया के बहुत बड़े भाग पर वरन दक्षिण यूरोप में भी अपनी राज–सत्ता स्थापित कर ली। धीरे–धीरे इन दोनों जातियों में वैमनस्य तथा शत्रुता बढ़ने लगी और दोनों एक–दूसरे की प्रतिद्वन्दी बन गयीं। तुर्क लोग मुगलों को घोर घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसका कारण यह था कि वे उन्हें असभ्य, क्रूर तथा मानवता का शत्रु मानते थे। तुर्कों में अमीर तैमूर तथा मुगलों में चंगेज़ खां नाम के अत्यन्त प्रसिद्ध योद्धा हैं। यह दोनों ही बड़े वीर, विजेता तथा साम्राज्य–संस्थापक थे। इन दोनों ही ने भारत पर आक्रमण किया था और उसके इतिहास को प्रभावित किया था। चंगेज़ खाँ ने दास–वंश के शासक इल्तुतमिश के शासन काल में ( चंगेज खान मूल रूप से बौद्ध धर्म का मानने वाला था। उसने संपूर्ण संसार में जिहाद का उत्पात मचाने वाले मुसलमानों के साथ तो जमकर संघर्ष किया, परंतु अहिंसा में विश्वास रखने वाले शांतिप्रिय भारत के लोगों का उसने किसी भी दृष्टिकोण से उत्पीड़न करना उचित नहीं माना था। उसने भारत में केवल वहां तक थोड़ा सा प्रवेश किया , जहां तक मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था और जहां तक उसे भारत में प्रवेश करना इस दृष्टिकोण से उचित अनुभव हुआ था। ) और तैमूर ने तुगलक–वंश के शासक महमूद के शासन–काल में भारत में प्रवेश किया था। यद्यपि चंगेज़ खाँ पंजाब से वापस लौट गया था, परन्तु तैमूर ने पंजाब में अपनी राज–संस्था स्थापित कर ली थी और वहाँ पर अपना गवर्नर छोड़ गया था।
लोदी–वंश के पतन के उपरान्त दिल्ली में एक नये राज–वंश की स्थापना हुई जो मुगल राज–वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस राज–वंश का संस्थापक बाबर था जो अपने पिता की ओर से तैमूर का और अपनी माता की ओर से चंगेज़ खाँ का वंशज था। इस प्रकार बाबर की धमनियों में तुर्क तथा मंगोल दोनों का ही रक्त प्रवाहित हो रहा था। परन्तु एक तुर्क का पुत्र होने के कारण उसे तुर्क ही मानना चाहिये न कि मंगोल।”
इतिहासकारों की यह मान्यता पूर्णतया उचित है कि ” दिल्ली में जिस राज–वंश की उसने स्थापना की उसे तुर्क–वंश कहना चाहिये न कि मुगल–वंश। परन्तु इतिहासकारों ने इसे मुगल राज–वंश के नाम से पुकारा है और इसे इतिहास की एक जटिल पहेली बना दिया है।”
हमारा मानना है कि जिस कालखंड को भारत के इतिहास में मुगल काल कहा जाता है, उसे मुगल काल न कहकर ‘ प्रताप शिवा का कालखंड ‘ कहा जाना चाहिए। जिन्होंने विदेशी सत्ताधीशों के इस कालखंड में भारत की स्वाधीनता के झंडे को
कभी झुकने नहीं दिया। इन वीर देशभक्तों पर यदि गहनता से अध्ययन और शोध किया जाए तो इनके राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्यों से बहुत बड़े-बड़े ग्रंथ तैयार हो सकते हैं। क्योंकि मुगल काल में अनेक ऐसे गुमनाम वीर योद्धा हुए हैं , जिन्होंने सनातन को बचाने के लिए चुपचाप अपने बलिदान दे दिए। उन सबको तो यहां स्थान देना संभव नहीं है , परंतु फिर भी इस पुस्तक में हमने भारत की वीरता और पौरुष के प्रतीक योगराज सिंह गुर्जर , शौर्य – संपन्न धूला भंगी और हरवीर गुलिया, साहस और वीरता की प्रतिमूर्ति हेमचंद्र विक्रमादित्य, देशभक्ति के जज्बे से सराबोर छत्रपति शिवाजी महाराज , देश धर्म का दीवाना वीर बंदा बैरागी, अनुपम देश-भक्ति की मिसाल चंपत राय और रानी सारंधा , महान राष्ट्र नायक छत्रसाल बुंदेला , अनुपम शौर्य और साहस के प्रतीक महाराजा जसवंत सिंह – पृथ्वी सिंह , महान देशभक्त महाराणा संग्राम सिंह , बलिदान की अनुपम मिसाल वीर माता पन्नाधाय , राम मंदिर का बलिदानी राजा मेहताब सिंह , लोगों में क्रांति के भाव भरने वाले स्वामी महेश्वरानंद जी महाराज, देश भक्ति की धधकती हुई ज्वाला रानी जयराजकुंवरी , महान वीरांगना रानी दुर्गावती , सारे देशवासियों के लिए प्रात:स्मरणीय महाराणा प्रताप सिंह, हल्दीघाटी के योद्धा राम सिंह और मन्ना सिंह, अनुपम वीरता और उत्साह के नायक जयमल और फत्ता , महान देशभक्त महाराणा उदय सिंह , संस्कृति रक्षक दुल्ला भट्टी, धर्म रक्षक गुरु अर्जुन देव, सनातन के प्रति सम्मान रखने वाले हसन खान मेवाती, घर वापसी का यज्ञ रचाने वाले राव लूणकरण भाटी, सर्वखाप पंचायत मथुरा के योद्धा और हुमायूं, हम सबके लिए श्रद्धा के पात्र गुरु तेग बहादुर , देश के लिए अपना बलिदान देने वाले जोरावर सिंह और फतेह सिंह , योग्य पिता के योग्य पुत्र संभाजी महाराज , छत्रपति राजाराम महाराज, अनुपम वीरता के प्रतीक दुर्गा दास राठौर , इतिहास के महानायक लचित बरफुकन , महान राष्ट्रभक्त गोकुल देव योद्धा, क्रांतिकारी राजाराम और राजा बिशन सिंह जैसे योद्धाओं को स्थान दिया है।
ये सभी क्रांतिकारियों के नायक रहे हैं। जिन्होंने मुगल काल में भारत के स्वाधीनता के लिए अथक परिश्रम किया। उनके इस अथक परिश्रम को भारत की स्वाधीनता के इस अमृत-काल में अमृत की बूंदों के रूप में सर्वत्र बिखेरकर देश के सामने खड़ी अनेक चुनौतियों के दृष्टिगत देश की युवा पीढ़ी को ‘ अमृत चखाना ‘ हम सबका राष्ट्रीय दायित्व है। वैसे भी भारत अमृत पुत्रों की जन्मस्थली है। वेद कहीं पर भी अमृत से नीचे की बात नहीं करता । अपने धर्मशास्त्र वेद की विचारधारा में हमारी सबकी अटूट आस्था है। इसलिए हम अपनी पवित्र भारत भूमि को हृदय से प्रेम करते हैं। परमपिता परमेश्वर ने भी अपनी वेद वाणी में यही कहा है कि मैं इस भूमि को आर्यों को अर्थात अमृत पुत्रों को प्रदान करता हूं।
वेद ने यह संपूर्ण वसुधा अमृत पुत्रों के लिए प्रदान की है। उन कपूतों के लिए नहीं, जो इस स्वर्गसम धरा – धाम को अपवित्र करने के कार्यों में लगे रहते हैं। हमारे ऊपरिलिखित सभी महानायकों ने उन कपूतों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल फूंका जो हमारी पवित्र धरा-धाम को अपने क्रूर कृत्यों से अपवित्र कर रहे थे।
ऐसे में हमारा यह पवित्र दायित्व है कि हम अपने उन महानायकों का वंदन अभिनंदन करें ,जिन्होंने भारत भूमि को अपवित्र करने वाले म्लेच्छ आतंकवादियों का सामना किया और अपनी क्षमताओं, शक्ति और बल के अनुसार उनका विनाश करने में भी सफलता प्राप्त की। इतना ही नहीं, यदि आवश्यक हुआ तो हंसते-हंसते अपने बलिदान भी दे दिए। उनके इस प्रकार के महानतम कार्यों का अनुकरण करते हुए हम देश की वर्तमान चुनौतियों का भी सामना कर सकते हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से हमें यह शिक्षा मिल सकती है कि यदि हमारे पूर्वज निराशा निशा के उस कालखंड में झुके नहीं तो आज हम भी नहीं झुक सकते। तनिक कल्पना कीजिए, जब हमारे पूर्वज विदेशी आतंकवादियों से लड़ रहे थे तो उस समय उनके पास आज जैसी तकनीक नहीं थी , दूरसंचार के साधन नहीं थे ,बीहड़ जंगल सर्वत्र छाया हुआ था, उसमें कोई भी विदेशी आतंकवादी कहां जाकर छुप जाए ? उसका पता लगाना तक कठिन हो जाता था, जनसंख्या भी बहुत कम थी। इसके उपरांत भी उनके पास साहस था। शौर्य था। देश भक्ति थी। देश के लिए मर मिटने की पवित्र भावना थी। उनके पास आज की अपेक्षा अत्यल्प साधन थे।
इसके विपरीत हमारे पास तो बहुत कुछ है। जिन लोगों ने निराशाजनक इतिहास लिखकर हमारे हौसलों को तोड़ने का काम किया है, वे इतिहास के न्यायालय में अपराधी हैं। अपराधियों को आज दण्डित करने का समय आ गया है।
स्मरण रहे कि ये अपराधी दो प्रकार के हैं। एक तो लेखनी के वे अपराधी हैं, जिन्होंने निराशाजनक इतिहास लिखकर हमें प्रस्तुत किया है और उसी का बार-बार उल्लेख करके हमारे हौसलों को तोड़ने का कार्य कर रहे हैं । एक वे हैं जो राजनीति में रहकर तुष्टिकरण का खेल खेलते हुए सनातन को पराजित करने के लिए शत्रुओं का साथ देते दिखाई देते हैं। खतरा दोनों से है। इसलिए दोनों को पहचानने की आवश्यकता है। इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि आपके लिए चुनौती कितनी बड़ी है ? आपको लेखनी की तलवार और युद्ध के मैदान की तलवार दोनों को ही एक साथ निकालकर आगे बढ़ना होगा।
इतिहास लेखन का उद्देश्य भी यही होता है कि जब हम कहीं योग संयोग से किसी प्रकार किसी चौराहे पर आकर खड़े हो जाएं तो इतिहास से पूछ लिया जाए कि उचित मार्ग कौन सा है ?
क्योंकि इतिहास के पास महाजनों अर्थात इतिहास के महानायकों का अनुभव होता है। अतः इतिहास ही हमें बता सकता है कि ऐसी विषम परिस्थितियों में या ऐसे चौराहों से गुजरने के लिए हमारे महाजनों या महान पूर्वजों ने जो रास्ता अपनाया , आप भी उसी पर चलें।
कदाचित इस पुस्तक के लेखन का उद्देश्य भी यही है।
मैं आशा करता हूं कि मेरा यह प्रयास आपको अवश्य ही प्रभावित करेगा। आपसे अनुरोध करता हूं कि पुस्तक को और भी अधिक उपयोगी कैसे बनाया जा सकता है ? इस पर अपने सुझाव अवश्य देने का कष्ट करें।
दिनांक : 13.9.2024
भवदीय
डॉ राकेश कुमार आर्य
दयानंद स्ट्रीट, सत्यराज भवन, (महर्षि दयानंद वाटिका के पास)
निवास : सी ई 121 , अंसल गोल्फ लिंक – 2, तिलपता चौक , ग्रेटर नोएडा, जनपद गौतमबुध नगर , उत्तर प्रदेश । पिन 201309
चलभाष 9911169917