ओ३म् “आर्यसमाज वेदनिहित सत्य सिद्धान्तों पर आधारित एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन है”

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आर्यसमाज एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन है जो विद्या से युक्त तथा अविद्या से सर्वथा मुक्त सत्य सिद्धान्तों को धर्म स्वीकार करती है और इनका देश देशान्तर में बिना किसी भेदभाव के प्रचार करती है। आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व देश व विश्व अविद्या से ग्रस्त था। धर्म तथा मत-मतान्तरों में अविद्या प्राबल्य था। लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं था। अविद्या के कारण ही देश व समाज का पतन होने के साथ आर्य जाति में अनेकानेक दुःख व पतन की अवस्था उत्पन्न हुई थी। लोग दुःखों को दूर करने का प्रयास तो करते थे परन्तु अविद्या को दूर करने तथा विद्या को अपनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं था। ऋषि दयानन्द ने बाल्यकाल में ही मूर्तिपूजा में निहित अविद्या को जाना था। उन्होंने मूर्तिपूजा से जुड़ी मान्यताओं व आस्थाओं पर ज्ञान व बुद्धि को सन्तुष्ट करने वाले प्रश्न अपने पिता व अनेक विद्वानों से किये थे। किसी के पास उनकी शंकाओं को दूर करने का ज्ञान व साधन नहीं थे। ऐसी स्थिति में ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की प्राप्ति व विद्या की खोज को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था तथा अपने जीवन के 22वें वर्ष में अपना पितृ-गृह त्याग कर वह सत्य ज्ञान सहित ईश्वर, जीवात्मा, ईश्वरोपासना, मनुष्य के कर्तव्य, दुःखों से मुक्ति के उपायों सहित देश की उन्नति के साधन व उपायों को जानने के लिये निकल पड़े थे। 16 वर्ष तक वह अपने इष्ट को जानने में लगे रहे। इस बीच वह एक सच्चे योगी बन चुके थे। मथुरा के गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से उनको वेद और वेदांगों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस ज्ञान से उनकी सभी शंकायें वा अविद्या दूर हुई थी तथा उन्होंने जितना सोचा भी नहीं था, उससे कहीं अधिक ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ था। सन् 1863 में विद्या पूरी कर लेने पर स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने ही उन्हें देश व समाज से अविद्या को दूर कर विद्या का प्रसार करने की प्रेरणा की थी जिसे स्वीकार कर उन्होंने सन् 1863 से 30 अक्टूबर, सन् 1883 तक अपनी मृत्यु पर्यन्त सत्यज्ञान के भण्डार ईश्वरीय ज्ञान वेद तथा वेदानुकूल सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने वेद ज्ञान के आधार पर सभी धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं की समीक्षा की और उनसे अविद्या व अज्ञान को दूर कर उन सबको अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा कुरीतियों से मुक्त किया था। आज के आधुनिक भारत में उनके विचारों व मान्यताओं का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। देश की आजादी सहित देश से अज्ञान व अविद्या को दूर करने के लिये शिक्षा जगत में जो क्रान्ति हुई है, उसकी पृष्ठ-भूमि में भी ऋषि दयानन्द के सत्य-ज्ञान पर आधारित सिद्धान्तों का प्रभाव ही दृष्टि गोचर होता है। उनके बनाये दो नियम भी सर्वत्र स्वीकार किये जाते हैं जिसमें सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने तथा अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने का नियम मुख्य हैं। आर्यसमाज ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से ओतप्रोत पूरे विश्व के मनुष्यों को एक ईश्वर की सन्तान मानकर उनके कल्याण की योजना प्रस्तुत करता है। सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञ विधि तथा संस्कार विधि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही रचे गये ग्रन्थ हैं। इनका अध्ययन कर मनुष्य अविद्या व अज्ञान से मुक्त हो जाता है जिससे उसके जीवन की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है।

आर्यसमाज एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन वा अपने महान् उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक आन्दोलन है। आर्यसमाज मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों का आधान व उनको मनुष्य जीवन में व्यवहारिक रूप देने को ‘‘धर्म” मानता है। सत्य व न्याय मनुष्य जीवन में धारण करने योग्य धर्म है। जो मनुष्य अपने जीवन में सत्य एवं पक्षपात रहित न्याय का पालन करता है वही मनुष्य धार्मिक कहलाता व कहा जा सकता है। सत्य के स्थान पर असत्य और न्याय के स्थान पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाले मनुष्य, संगठन व समुदाय धार्मिक नहीं होते। सत्य के साथ, परस्पर प्रेम, त्याग, अपरिग्रह, बाह्य व आन्तरिक शौच, परोपकार, दूसरों की सेवा, सहायता, मार्गदर्शन, विद्यादान, ईश्वर के सत्य स्वरूप का यथोचित ज्ञान एवं तदनुरूप उपासना, वायु शुद्धि एवं ईश्वर की उपासना के लिये अग्निहोत्र यज्ञ करना, आत्मा की शुद्धि के लिए ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् सहित गायत्री आदि मन्त्रों का जप व चिन्तन करना आदि भी धर्म पालन के अन्तर्गत आते हैं। मत-मतान्तरों में हम इन बातों की उपेक्षा देखते हैं। मत-मतान्तरों की बहुत सी बातें एक दूसरे समुदाय के विरुद्ध तथा सत्य ज्ञान से रहित भी देखी जाती हैं। अतः कोई भी मत धर्म वा सत्यधर्म का पर्याय नहीं हो सकता। ऋषि दयानन्द ने अपने ज्ञान के आधार पर सभी मत-मतान्तरों की समीक्षा कर उनमें निहित अविद्या को बानगी के रूप में प्रस्तुत किया है जिससे मत-मतान्तरों में ज्ञान की अपूर्णता सहित उनकी अनेक मान्यताओं का सत्य के विपरीत होना विदित होता है। अतः सभी मत धर्म नही कहे जा सकते।

धर्म का पर्याय सत्य वैदिक मान्यतायें एवं सिद्धान्त हैं। सत्य मान्यतायें वह होती हैं जिनकी ज्ञान, विवेक, चिन्तन व मनन सहित तर्क एवं युक्तियों से पुष्टि होती हैं तथा जो अज्ञान से मुक्त होती हैं तथा मानव मात्र सहित प्राणी मात्र के लिये भी हितकारी होती हैं। ऐसी मान्यतायें वेद एवं वैदिक साहित्य में ही प्राप्त होती है। ऋषि दयानन्द ने वेदों को स्वतः प्रमाण बताया है। वेदेतर समस्त साहित्य परतः प्रमाण की कोटि में आता है। जो वेदानुकूल नहीं है वह किसी भी ग्रन्थ में क्यों न हो, प्रमाण योग्य व माननीय नहीं होता। संसार में ईश्वरीय वाक्य वा ईश्वरीय ज्ञान केवल व एकमात्र वेद हैं। वेद ज्ञान के समान ईश्वर ने सृष्टि उत्पत्ति के बाद किसी मनुष्य व जाति को धर्म ज्ञान नहीं दिया है। वेद ईश्वर प्रदत्त प्रथम व अन्तिम ज्ञान कहा जा सकता है। यदि इस मान्यता को नहीं मानेंगे तो ईश्वर सर्वज्ञ एवं पूर्ण ज्ञानी होना सिद्ध नहीं किया जा सकेगा। वेद व वैदिक साहित्य के आधार पर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर, जीव व प्रकृति संबंधी त्रैतवाद का सिद्धान्त दिया है जो तर्क एवं युक्ति सहित वेदों से भी पुष्ट हैं। अन्य मतों में इस सिद्धान्त का उल्लेख व चर्चा देखने को नहीं मिलती। अतः वेद ही संसार में सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और अपनी इसी महत्ता के कारण वह सब मनुष्यों का परमधर्म भी है। यह नियम भी ऋषि दयानन्द जी ने ही दिया है जो उनकी संसार को एक महानतम देन है। इन सिद्धान्तों व मान्यताओं को मानने से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है सभी मतों को परस्पर प्रेम व सद्व्यवहार-पूर्वक अपने अपने मत व दूसरे मतों के सिद्धान्तों का अध्ययन करना चाहिये और ऐसा करके उन्हें असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करना चाहिये। आर्यसमाज यह कार्य करता है और इसी कारण आर्यसमाज देश व विश्व का प्रमुख धार्मिक एवं सामाजिक संगठन है। सब मनुष्यों को आर्यसमाज सहित इसके सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कारविधि सहित वेदभाष्य एवं ऋषि दयानन्द के जीवन चरितों का अध्ययन कर सत्य को स्वीकार तथा असत्य का त्याग करना चाहिये।

आर्यसमाज एक ऐसा धार्मिक संगठन है जिसके सिद्धान्तों के प्रति विज्ञान के अध्येता व वैज्ञानिक भी आकर्षित होते हैं। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी विज्ञान के विद्यार्थी थे। उन्हें जनता ‘मनीषी’ के नाम से जानती है। वह भी आर्यसमाज के प्रत्येक सिद्धान्त के न केवल अनुयायी थे अपितु वह सभी सिद्धान्तों को अपने मौलिक तर्कों से सत्य सिद्ध करते थे। विदेशी विद्वानों की वेद विरुद्ध मान्यताओं का भी उन्होंने तर्कों सहित सप्रमाण खण्डन किया। वह वैदिक धर्म के आदर्श आचरण करने वाले मनीषी व पालक थे। डा. स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी उच्च कोटि विद्वान व वैज्ञानिक थे। तेईस से अधिक लोगों ने उनके मार्गदर्शन में डी.एस-सी. व पी.एच-डी. की उपाधियां प्राप्त की। वह भी वेद और सत्यार्थप्रकाश के विद्वान, व्याख्याता व अनुयायी थे। उन्होंने चार वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। डा. रामप्रकाश जी भी रसायन शास्त्र के प्रोफेसर व अनुसंधानकर्ता विद्वान, राजनेता व सांसद रहे थे। आप भी वैदिक धर्म, ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज के आदर्श के अनुयायी थे।यह सूची लम्बी है। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि वेद एवं विज्ञान में कहीं किसी प्रकार का विरोध नहीं है। यह बात मत-मतान्तरों पर लागू नहीं होती। वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को मानने से मनुष्य की सामाजिक उन्नति भी होती है। वेदानुयायी अन्धविश्वासों, पाखण्डों सहित सामाजिक भेदभाव के व्यवहारों से दूर रहते हैं। वेदानुयायी प्रत्येक मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभावों को ही महत्व देते ओ३म्
“आर्यसमाज वेदनिहित सत्य सिद्धान्तों पर आधारित एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन है”
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
आर्यसमाज एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन है जो विद्या से युक्त तथा अविद्या से सर्वथा मुक्त सत्य सिद्धान्तों को धर्म स्वीकार करती है और इनका देश देशान्तर में बिना किसी भेदभाव के प्रचार करती है। आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व देश व विश्व अविद्या से ग्रस्त था। धर्म तथा मत-मतान्तरों में अविद्या प्राबल्य था। लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं था। अविद्या के कारण ही देश व समाज का पतन होने के साथ आर्य जाति में अनेकानेक दुःख व पतन की अवस्था उत्पन्न हुई थी। लोग दुःखों को दूर करने का प्रयास तो करते थे परन्तु अविद्या को दूर करने तथा विद्या को अपनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं था। ऋषि दयानन्द ने बाल्यकाल में ही मूर्तिपूजा में निहित अविद्या को जाना था। उन्होंने मूर्तिपूजा से जुड़ी मान्यताओं व आस्थाओं पर ज्ञान व बुद्धि को सन्तुष्ट करने वाले प्रश्न अपने पिता व अनेक विद्वानों से किये थे। किसी के पास उनकी शंकाओं को दूर करने का ज्ञान व साधन नहीं थे। ऐसी स्थिति में ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की प्राप्ति व विद्या की खोज को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था तथा अपने जीवन के 22वें वर्ष में अपना पितृ-गृह त्याग कर वह सत्य ज्ञान सहित ईश्वर, जीवात्मा, ईश्वरोपासना, मनुष्य के कर्तव्य, दुःखों से मुक्ति के उपायों सहित देश की उन्नति के साधन व उपायों को जानने के लिये निकल पड़े थे। 16 वर्ष तक वह अपने इष्ट को जानने में लगे रहे। इस बीच वह एक सच्चे योगी बन चुके थे। मथुरा के गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से उनको वेद और वेदांगों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस ज्ञान से उनकी सभी शंकायें वा अविद्या दूर हुई थी तथा उन्होंने जितना सोचा भी नहीं था, उससे कहीं अधिक ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ था। सन् 1863 में विद्या पूरी कर लेने पर स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने ही उन्हें देश व समाज से अविद्या को दूर कर विद्या का प्रसार करने की प्रेरणा की थी जिसे स्वीकार कर उन्होंने सन् 1863 से 30 अक्टूबर, सन् 1883 तक अपनी मृत्यु पर्यन्त सत्यज्ञान के भण्डार ईश्वरीय ज्ञान वेद तथा वेदानुकूल सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने वेद ज्ञान के आधार पर सभी धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं की समीक्षा की और उनसे अविद्या व अज्ञान को दूर कर उन सबको अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा कुरीतियों से मुक्त किया था। आज के आधुनिक भारत में उनके विचारों व मान्यताओं का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। देश की आजादी सहित देश से अज्ञान व अविद्या को दूर करने के लिये शिक्षा जगत में जो क्रान्ति हुई है, उसकी पृष्ठ-भूमि में भी ऋषि दयानन्द के सत्य-ज्ञान पर आधारित सिद्धान्तों का प्रभाव ही दृष्टि गोचर होता है। उनके बनाये दो नियम भी सर्वत्र स्वीकार किये जाते हैं जिसमें सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने तथा अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने का नियम मुख्य हैं। आर्यसमाज ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से ओतप्रोत पूरे विश्व के मनुष्यों को एक ईश्वर की सन्तान मानकर उनके कल्याण की योजना प्रस्तुत करता है। सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञ विधि तथा संस्कार विधि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही रचे गये ग्रन्थ हैं। इनका अध्ययन कर मनुष्य अविद्या व अज्ञान से मुक्त हो जाता है जिससे उसके जीवन की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है।

आर्यसमाज एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन वा अपने महान् उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक आन्दोलन है। आर्यसमाज मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों का आधान व उनको मनुष्य जीवन में व्यवहारिक रूप देने को ‘‘धर्म” मानता है। सत्य व न्याय मनुष्य जीवन में धारण करने योग्य धर्म है। जो मनुष्य अपने जीवन में सत्य एवं पक्षपात रहित न्याय का पालन करता है वही मनुष्य धार्मिक कहलाता व कहा जा सकता है। सत्य के स्थान पर असत्य और न्याय के स्थान पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाले मनुष्य, संगठन व समुदाय धार्मिक नहीं होते। सत्य के साथ, परस्पर प्रेम, त्याग, अपरिग्रह, बाह्य व आन्तरिक शौच, परोपकार, दूसरों की सेवा, सहायता, मार्गदर्शन, विद्यादान, ईश्वर के सत्य स्वरूप का यथोचित ज्ञान एवं तदनुरूप उपासना, वायु शुद्धि एवं ईश्वर की उपासना के लिये अग्निहोत्र यज्ञ करना, आत्मा की शुद्धि के लिए ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् सहित गायत्री आदि मन्त्रों का जप व चिन्तन करना आदि भी धर्म पालन के अन्तर्गत आते हैं। मत-मतान्तरों में हम इन बातों की उपेक्षा देखते हैं। मत-मतान्तरों की बहुत सी बातें एक दूसरे समुदाय के विरुद्ध तथा सत्य ज्ञान से रहित भी देखी जाती हैं। अतः कोई भी मत धर्म वा सत्यधर्म का पर्याय नहीं हो सकता। ऋषि दयानन्द ने अपने ज्ञान के आधार पर सभी मत-मतान्तरों की समीक्षा कर उनमें निहित अविद्या को बानगी के रूप में प्रस्तुत किया है जिससे मत-मतान्तरों में ज्ञान की अपूर्णता सहित उनकी अनेक मान्यताओं का सत्य के विपरीत होना विदित होता है। अतः सभी मत धर्म नही कहे जा सकते।

धर्म का पर्याय सत्य वैदिक मान्यतायें एवं सिद्धान्त हैं। सत्य मान्यतायें वह होती हैं जिनकी ज्ञान, विवेक, चिन्तन व मनन सहित तर्क एवं युक्तियों से पुष्टि होती हैं तथा जो अज्ञान से मुक्त होती हैं तथा मानव मात्र सहित प्राणी मात्र के लिये भी हितकारी होती हैं। ऐसी मान्यतायें वेद एवं वैदिक साहित्य में ही प्राप्त होती है। ऋषि दयानन्द ने वेदों को स्वतः प्रमाण बताया है। वेदेतर समस्त साहित्य परतः प्रमाण की कोटि में आता है। जो वेदानुकूल नहीं है वह किसी भी ग्रन्थ में क्यों न हो, प्रमाण योग्य व माननीय नहीं होता। संसार में ईश्वरीय वाक्य वा ईश्वरीय ज्ञान केवल व एकमात्र वेद हैं। वेद ज्ञान के समान ईश्वर ने सृष्टि उत्पत्ति के बाद किसी मनुष्य व जाति को धर्म ज्ञान नहीं दिया है। वेद ईश्वर प्रदत्त प्रथम व अन्तिम ज्ञान कहा जा सकता है। यदि इस मान्यता को नहीं मानेंगे तो ईश्वर सर्वज्ञ एवं पूर्ण ज्ञानी होना सिद्ध नहीं किया जा सकेगा। वेद व वैदिक साहित्य के आधार पर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर, जीव व प्रकृति संबंधी त्रैतवाद का सिद्धान्त दिया है जो तर्क एवं युक्ति सहित वेदों से भी पुष्ट हैं। अन्य मतों में इस सिद्धान्त का उल्लेख व चर्चा देखने को नहीं मिलती। अतः वेद ही संसार में सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और अपनी इसी महत्ता के कारण वह सब मनुष्यों का परमधर्म भी है। यह नियम भी ऋषि दयानन्द जी ने ही दिया है जो उनकी संसार को एक महानतम देन है। इन सिद्धान्तों व मान्यताओं को मानने से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है सभी मतों को परस्पर प्रेम व सद्व्यवहार-पूर्वक अपने अपने मत व दूसरे मतों के सिद्धान्तों का अध्ययन करना चाहिये और ऐसा करके उन्हें असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करना चाहिये। आर्यसमाज यह कार्य करता है और इसी कारण आर्यसमाज देश व विश्व का प्रमुख धार्मिक एवं सामाजिक संगठन है। सब मनुष्यों को आर्यसमाज सहित इसके सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कारविधि सहित वेदभाष्य एवं ऋषि दयानन्द के जीवन चरितों का अध्ययन कर सत्य को स्वीकार तथा असत्य का त्याग करना चाहिये।

आर्यसमाज एक ऐसा धार्मिक संगठन है जिसके सिद्धान्तों के प्रति विज्ञान के अध्येता व वैज्ञानिक भी आकर्षित होते हैं। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी विज्ञान के विद्यार्थी थे। उन्हें जनता ‘मनीषी’ के नाम से जानती है। वह भी आर्यसमाज के प्रत्येक सिद्धान्त के न केवल अनुयायी थे अपितु वह सभी सिद्धान्तों को अपने मौलिक तर्कों से सत्य सिद्ध करते थे। विदेशी विद्वानों की वेद विरुद्ध मान्यताओं का भी उन्होंने तर्कों सहित सप्रमाण खण्डन किया। वह वैदिक धर्म के आदर्श आचरण करने वाले मनीषी व पालक थे। डा. स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी उच्च कोटि विद्वान व वैज्ञानिक थे। तेईस से अधिक लोगों ने उनके मार्गदर्शन में डी.एस-सी. व पी.एच-डी. की उपाधियां प्राप्त की। वह भी वेद और सत्यार्थप्रकाश के विद्वान, व्याख्याता व अनुयायी थे। उन्होंने चार वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। डा. रामप्रकाश जी भी रसायन शास्त्र के प्रोफेसर व अनुसंधानकर्ता विद्वान, राजनेता व सांसद रहे थे। आप भी वैदिक धर्म, ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज के आदर्श के अनुयायी थे।यह सूची लम्बी है। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि वेद एवं विज्ञान में कहीं किसी प्रकार का विरोध नहीं है। यह बात मत-मतान्तरों पर लागू नहीं होती। वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को मानने से मनुष्य की सामाजिक उन्नति भी होती है। वेदानुयायी अन्धविश्वासों, पाखण्डों सहित सामाजिक भेदभाव के व्यवहारों से दूर रहते हैं। वेदानुयायी प्रत्येक मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभावों को ही महत्व देते हैं। जिसमें जो सद्गुण होता है उसका ग्रहण करते हैं तथा अपने अवगुणों का त्याग करते रहते हैं। विद्या की निरन्तर उन्नति करते हैं तथा अविद्या का नाश करते हैं। इसी से मनुष्य की सामाजिक उन्नति होती है। मनुष्य को अपनी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक उन्नति के लिये वेद और आर्यसमाज की शरण में आना चाहिये। इससे निश्चय ही इस जन्म व परजन्म में मनुष्य वा मानव समाज का कल्याण होगा। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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