तिरुपति का मंदिर — साक्षात् शरीरधारी ईश्वर का निवास या निराकार ईश्वर की आराधना हेतु एक उत्तम स्थल – विश्लेषण

-डॉ० डी के गर्ग

पौराणिक मान्यता: तिरुपति मंदिर तिरुमाला की पहाड़ियों पर है जो कि अत्यंत रमणीक स्थल है। तिरुपति से तिरुमलै जाने के लिये दुर्गम मार्ग होने के कारण 1942 ई० में देवस्थानम्‌ ने सड़क मार्ग का निर्माण कराया था। 5वीं शताब्दी तक यह एक प्रमुख धार्मिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। कहा जाता है कि चोल, होयसल और विजयनगर के राजाओं का आर्थिक रूप से इस मंदिर के निर्माण में विशेष योगदान रहा था।तिरुमलै का मंदिर पर पहले यहाँ के भक्त-महंतों के अधिकार में था। बाद में मंहतों के विरोध के बावजूद द्वारा मंदिर की व्यवस्था में शिथिलता का अनुभव कर सरकार ने महंतो के हाथ से सत्ता छीन ली और एक सरकारी समिति बनाकर उसे यह सत्ता सौंप दी। 1933 ई० से समिति मंदिर की व्यवस्था करती है
मंदिर की मान्यता एवं चमत्कार
1.मान्यता है तिरुपति का मंदिर में दर्शन और पैसा दान करने से तिरुपति भगवान चमत्कार द्वारा मनोकामना की पूर्ति करते है।
2 कलयुग में तिरुपति मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर का वास माना जाता है।
3 श्रीहरि विष्णु ने वेंकटेश्वर स्वामी के रूप में अवतार लिया था और ये अवतार कलयुग में कष्ट से लोगों को बचाने के लिए उन्होंने लिया। इसीलिए भगवान के इस रूप में मां लक्ष्मी भी समाहित हैं, एतदर्थ यहां बालाजी को स्त्री और पुरुष दोनों के वस्त्र पहनाने की परम्परा है।
4.भगवान वेंकटेश्वर की आंखों में ब्रह्मांडीय ऊर्जा होने की वजह से भक्त उनके नेत्रों में सीधा नहीं देख सकते हैं।
5.मानव जाति को कलियुग की परीक्षाओं और परेशानियों से बचाने के लिए पृथ्वी पर श्रीहरि विष्णु ने वेंकटेश्वर स्वामी प्रकट हुए थे, इसलिए इस स्थान का नाम कलियुग वैकुंठ भी पड़ा है और यहां के देवता को कलियुग प्रत्यक्ष दैवम कहा जाता है।
6.तिरुपति बालाजी को गोविंदा क्यों कहते हैं?
इसकी भी कहानी है कि श्री वेंकटेश्वर भगवान का अवतरण उस समय हुआ था जब महर्षि भृगु ने त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए भगवान विष्णु के वक्ष पर जोरदार लात मारी। इससे भगवान विष्णु के स्थान पर माता लक्ष्मी क्रोधित हो गई और बैकुण्ठ छोड़कर चली गई। भगवान विष्णु ने उस समय वेंकटेश्वर के रूप में पृथ्वी पर प्रकट होने का निश्चय किया।
पृथ्वी पर अवतार लेने के बाद भगवान ने कहा कि कलियुग के अंत तक, मैं भूलोक पर पवित्र सात पहाड़ियों पर एक मूर्ति के रूप में रहूंगा और मेरे सभी भक्त मुझे108 बार ‘गोविंदा’ कहेंगे। पहाड़ी पर चढ़ते समय या मेरे सामने मंदिर में भक्त मुझे गोविंदा कहेंगे।”

विश्लेषण : उपरोक्त मान्यता से कुछ मुख्य बिंदु सामने आये हैं–
१ वर्तमान में कलियुग है और भगवान् ने इस कलयुग में अवतार लेकर यहां पहाड़ी पर आ चुके है ताकि भक्तो को संकट से बचाए जा सके।
विवेचना = १ क्या ये मतलब निकाला जाएं की भगवान केवल उन्ही भक्तो के लिएं ही इस पहाड़ी पर आए है जो दर्शन के नाम पर एक क्षण के लिए मूर्ति के सामने से गुजरते हैं और बाहर लटकी हुई झोली में अपना काला धन गुप्त दान करके आशीर्वाद पाते है,यदि ऐसा है तो फिर कल्कि अवतार का काम पूरा हो गया
२ यदि भगवान केवल भक्तो के लिए आए है तो भगवान पक्षपाती हो गया। जो लोग चमत्कार की बाते करते है वो भी झूठे है क्योकि इसका कोई प्रमाण नहीं है , लाखो लोग जाते है जिसका काम बना वो तिरुपति को श्रेय देता है बाकि ९९ प्रतिशत से ज्यादा अपने काम में लग जाते है।
३ यदि ये वाला भगवान पक्षपात नहीं करता तो फिर यहाँ भक्तो को यहाँ बुलाने के बजाय उनको अपना काम करने दे और भगवान् अपना समय उन देशों में लगाए , जहा पाप बढ़ते ही जा रहे है,जैसे बांग्लादेश ,अफगानिस्तान ,सोमालिया आदि कुछ उदाहरण है और निर्जीव पशुओं की रक्षा करे ,कम से कम आंध्र के लोगो को शाकाहारी बनाये ,आंध्रप्रदेश में पण्डे के पुजारियों के विरोध के बावजूद गौ हत्या होती है।
२। भगवान् ने श्रीहरि विष्णु ने वेंकटेश्वर स्वामी के रूप में अवतार लिया था।
विवेचना=भगवान ने अपना स्वरूप छोड़ दिया और दूसरा रूप लेकर यहां आ विराजे,फिर बाकी श्रृष्टि को और अन्य सौरमंडल को कौन देखेगा?कोई प्रमाण है क्या ,
3.ऐसा उस समय हुआ था जब महर्षि भृगु ने त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए भगवान विष्णु के वक्ष पर जोरदार लात मारी। इससे भगवान विष्णु के स्थान पर माता लक्ष्मी क्रोधित हो गई और बैकुण्ठ छोड़कर चली गई।

विवेचना; गप्प कथाओं की भी हद पार कर दी है ,अब ये भृगु ऋषि आ विराजे और नई कहानी जोड़ दी,समझ लो कि क्रोध करना ऋषियों का स्वभाव नहीं है।भृगु मारी लात शब्द का प्रयोग अलंकारिक या कहो काव्य की भाषा में अक्सर प्रयोग होता रहा है। भृगु का शब्दार्थ पहाड़ की तीव्र ढाल या खड़ी आकृति के एक ऐसे किनारे से है जहां हलके से धकेलने से भी मनुष्य बिलकुल नीचे आ जाए। ये एक अलंकारिक भाषा है जहा पहाड़ी पर सूर्य की किरणे उतरती है और तेजी से भूमि पर गिरते हुए दिखाई पड़ती है जैसे लात मारने से माने किसी को पर्वत से नीचे धकेल दिया हो। और इस मंदिर के स्थान के लिए ये बात सच उतरती है।
४.इस पर्वत पर यहाँ लक्ष्मी के साथ स्वयं विष्णु विराजमान हैं।
लक्ष्मी और विष्णु किसे कहते है ये भी जान लेते है —
लक्ष्मी;(लक्ष दर्शनाङ्कनयोः) इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो लक्षयति पश्यत्यङ्कते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तै-र्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः’ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र-सूर्यादि चिह्न बनाता, तथा सबको देखता, सब शोभाओं की शोभा है और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है।

विष्णु;–विषॢ व्याप्तौ) इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर ‘विष्णु’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः परमात्मा’ सब जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम ‘विष्णु’ है।

अब आप ही बताए,की अंधविश्वास की हद हो गई

5 भगवान् का कहना है कि मैं अब अवतार लेने के बाद भूलोक पर पवित्र सात पहाड़ियों पर एक मूर्ति के रूप में रहूंगा और मेरे सभी भक्त मुझे “गोविंदा” कहेंगे। पहाड़ी पर चढ़ते समय या मेरे सामने मंदिर में भक्त मुझे गोविंदा कहेंगे।
विवेचना=वाह ,ऐसा कब कहा इसका कोई प्रमाण है,किस भाषा में कहा हिंदी ,संस्कृत ,तमिल ,मलयालम आदि ,लगता है कि किसी मौलवी ने ऐसा भ्रम फैलाया क्योंकि कुरान का अल्ला अपने नाम की नमाज और अल्ला को स्वीकार करने वाले को ही जन्नत देता है।
६.भगवान वेंकटेश्वर की आंखों में ब्रह्मांडीय ऊर्जा होने की वजह से भक्त उनके नेत्रों में सीधा नहीं देख सकते हैं।
विवेचना=100% झूट,मैने वहा जाकर देखा है।

वर्तमान स्थिति :
१. इस मंदिर में भगवान के साक्षात् दर्शन के लिए भक्तों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है —
•VVIP भक्त; जिनके आगे पीछे पुजारी आदि घूमते हैं और मंदिर में सबसे पहले अग्रिम पंक्ति में उनको दर्शन कराये जाते हैं।
•दूसरे, पैसे वाले भक्त जो दर्शन के लिए ऑनलाइन बुकिंग कराते हैं।
•तीसरे, साधारण इंसान जिनके पास बहुत पैसा नहीं है। ये घंटो तक पंक्ति में लगते हैं तब जाकर एक क्षण के लिए चलते-चलते दर्शन होते हैं। वहां खड़ा एक सिपाही जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने के लिए धकेलता रहता है।
2.इस मंदिर की सालाना आमदनी लगभग ६०० करोड़ है। जिस पर राज्य सरकार का अधिकार होता है और बैंक में सोना-चांदी-हीरे आदि जमा होते रहते हैं। कुछ फिक्स्ड डिपॉजिट और हुंडई के रूप में भी। इसमें भी सच्चाई है कि राज्य सरकार इस पैसे से इमामों और मौलवियों आदि के लाभ हेतु खुले आम खर्चा करती है और सरकार के इस मनमाने तरीके से ईश्वर को दिया चढ़ावा बेकार हो जाता है।
3.पूजा के बाद एक-एक लड्डू सभी को दिया जाता है।
•अभी हाल ही में घटित हिंदू आस्था पर एक सुनियोजित षड्यंत्र – कुछ ही दिनों पहले तिरुपति मंदिर के लड्डू के विषय में चारों ओर टीवी और अखबार में समाचार आ रहे थे कि लड्डू के निर्माण के लिए मछली का तेल, सूअर और गौ की चर्बी से बना घी प्रयोग में काफी समय से लाया जाता रहा है। इसके बाद पूरे देश विदेश के हिन्दू भक्तो में आक्रोश शुरू हो गया। फिर अनेकों प्रसिद्ध मंदिरों के प्रसाद की जांच शुरू हुई तो उधर मथुरा-वृंदावन में भी एक दुकानदार का भेद खुला। वह दुकान बंद करके फरार हो गया यानि कुछ तो गड़बड़ है। यदि इस गड़बड़ की जांच हो तो मंदिर के पुजारी से प्रबंध समिति तक का गिरोह और बहुत से भक्त रंगे हाथों पकड़े जाएंगे।

गंभीरतापूर्वक विचार करे=
१ क्या उस मंदिर में ही रहने वाले भगवान के लिए सभी भक्त एक जैसे नहीं है?
ये VVIP कल्चर क्या है? क्या यही तिरुपति भगवान का न्याय है जो अपने निवास पर उसके दर्शन हेतु आने वालों के साथ भेदभाव करता है।
इससे ये प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि भगवान के घर धन देने वाले की सुनवाई होती है।
2 तिरुपति और आसपास में अपराध, गरीबी, पशु वध, मांसाहार क्यों है?
3.पशु की चर्बी और मछली के तेल के प्रयोग को लड्डू के घी में मिलाने वालों को पौराणिक ईश्वर ने क्यों नहीं रोका? पहले दिन ही उन धूर्तों के अपंग बना देना चाहिए था।
4.जब भगवान् जी तिरुपति मंदिर में साक्षात् विराजमान हैं तो बाकि मंदिरो में कौन विराजमान है?
सच ये है कि हमारे देश में अधिकांश मंदिर पहाड़ियों पर ही है जैसे ज्वालाजी, वैष्णो देवी,नैना देवी, तिरूपति,आदि जहां जल , वनस्पति और एकांत का रम्य वातावरण हो,लेकिन जब भारत में मूर्ति पूजा सुरु हुई तब पण्डो और राजाओं ने इन स्थानों मंदिर बनवाए और पण्डो ने कहानियां रच कर अपनी दुकानें सुरु कर दी।
5.क्या साक्षात भगवान भी दूसरे पर निर्भर हैं जिसको रोजाना नहलाना, कपड़े, श्रृंगार, भोग आदि की जरूरत है और जिस भगवान को अपने लिए पैसा, हीरे, जवाहरात आदि का दान भी चाहिए और दर्शन देने के लिए भी पैसा चाहिए?
भला परमात्मा को हार-श्रृंगार की क्या आवश्यकता है? पूरी सृष्टि ही उसका श्रृंगार है, रात्रि को चांद-तारों से सजे आकाश को देखो! कल-कल करती बहती नदियों को देखो! हिम से ढकी पर्वत मालाओं को देखो! रिमझिम वर्षा करते बादलों को देखो….. ये सब अनगिनत श्रृंगार ही तो हैं। हम तुच्छ जीव क्या उसका श्रृंगार करेंगे? महाकाल की भद्दी-सी शक्ल बना कर उसका श्रृंगार करना पागलपन नहीं तो क्या है।
6.आप बताएं कि कौन बड़ा है- नकली घी पकड़ने वाला, उनका पता लगाने वाला, उनको सजा देने वाला, या मंत्री जी जो मंदिर का प्रबंध और सुरक्षा भी देखते हैं और पुजारी जी जो भगवान् को भोजन, कपड़ा, श्रृंगार, नहलाने का काम करते हैं?
7 आज ये पंडित स्वयं प्रायश्चित करने और वहां से कमाई का जरिया छोड़ने के बजाय मंदिर धोकर शुद्ध करने का नाटक कर रहे हैं। यदि चर्बी वाला घी प्रयोग नहीं करना है तो मंदिर समिति सस्ते घी के चक्कर में ना पड़कर, 50000 गाये क्यों नहीं पालन कर लेती? मंदिर के पास अकूत संपत्ति बैंकों में हुंडी के रूप में और सावधि जमा धन के रूप में किस काम आयेगी? आज भी आंध्र में गौ हत्या होती है। कृष्ण तो गौ पलक थे फिर उनके पुजारी क्या अपना पेट भर रहे और और भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं!
सत्य को समझने का प्रयास:—

1.ईश्वर कभी अवतार नहीं लेता
2.ईश्वर या भगवान की परिभाषा क्या है?
— अवतारवाद पूर्णतः वेद विरुद्ध है। वेद में ईश्वर के जन्म लेने व अवतार का कहीं वर्णन नहीं अपितु वह अजन्मा है (जन्म नहीं लेता), अनादि है। उसका न आदि है, न अन्त है। वह एक स्थान पर नहीं रहता, सर्वव्यापक है, कण-कण में समाया है। हमारे अन्दर बाहर है, आकाश-जल-पृथ्वी-चन्द्रमा-सूर्य और उससे आगे तक भी है, जहाँ हमारा मन नहीं पहुँचता, वहाँ भी है। पहले से है, सृष्टि की उत्पत्ति से पहले भी रहता है, प्रलय के बाद भी रहता है, सर्वशक्तिमान् है, अपनी शक्ति से ग्रह, तारों को नियमानुकूल नियंत्रित कर रहा है। यह सब जगत् उसी का है, उसने ही तो बनाया है, नियम से चला रहा है-
“ईशावास्यमिदं सर्वयत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा ग्रधः कस्यस्विद्धनम्।।” -ईशोपनिषद्
अर्थात् इस संसार में जो भी यह जगत् है, सब ईश्वर से आच्छादित है, अर्थात् ईश्वर सृष्टि के कण-कण में बसा है, सर्वव्यापक है। यह सब धनादि जिसका हम उपयोग कर रहे हैं, सब उसका ही है। हम यह सोच कर प्रयोग करें कि यह हमारा नहीं है। जो कुछ हमें उस प्रभु ने दिया है, उस सबका त्याग के भाव से प्रयोग करें। सृष्टि में जो कुछ भी है, उसी का है। ग्रह, उपग्रह, पृथ्वी व चन्द्रमा आदि निश्चित वेग से घूम रहे हैं, एक नियम से चक्कर काट रहे हैं, गति कर रहे हैं। समय पर ऋतुएँ आती हैं, जाती हैं। वह जगत् को नियम में चला रहा है। वह बिना जन्म लिए ही सब काम कर रहा है। उसे जन्म लेने की क्या आवश्यकता है? कहते हैं, रावण को मारने के लिए राम के रूप में ईश्वर ने अवतार लिया या जन्म लिया- ये सब बातें काल्पनिक हैं, मनगढ़न्त हैं।

ईश्वर एक ही है–

कोई भी अन्य साहित्य केवल एक ईश्वर के अस्तित्व का इतनी खूबसूरती से वर्णन नहीं करता जितना वेद करता है। अथर्ववेद तेरहवें अध्याय के मंत्र संख्या १९ और २० के अनुसार-
न द्वितियो न त्रियाश्चथुरथो नाप्युच्यते।
न ए पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते।
नष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते।
यानि कि न दूसरा ईश्वर है, न तीसरा, न चौथा ईश्वर कहा गया है। न पाँचवाँ, न छठा, न सातवाँ ईश्वर है। न आठवाँ ईश्वर है, न नौवाँ। दसवें के विषय में भी कुछ नहीं कहा गया है। यह अद्वितीय शक्ति अपने आप में है। वह ईश्वर एक ही है, एकमात्र सर्वव्यापी है। वह एक और एकमात्र है।

ईश्वर के ब्रह्म परमात्मा आदि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त हैं। जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता-हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।
सखाय: क्रतुमिच्छ्त कथा राघाम शरस्य।
उपस्तुतिं भोज: सूरिर्यो अह्रय:।। -ऋक् ८/७०/१३

एक ईश्वर जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है और बिल्कुल निराकार है, जो कभी अप्रकट है और जो कभी मानव रूप धारण नहीं करता है या कभी भी किसी भी रूप में पृथ्वी पर नहीं आता है- मानव या अन्य।
देखो, ऋग्वेद कहता है “विश्वार्क्य विमान अद्विहाय” जिसका अर्थ है “ईश्वर अचेतन और चेतन जगत् को एक विशिष्ट प्रकार से देखता है।” सम्पूर्ण जगत् उसी में स्थित है। वह “येषाः येकाः” अर्थात् एक ही है। वह चेतन है, अविभाज्य है। वह “येकाः येवः” केवल एक ही है।
गायत्री मंत्र का जप करो, गायत्री मंत्र से यज्ञ करो- यही सब ऋषि-मुनियों का उपदेश है।

परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बना सकता और वेदों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है – जान लें कि पुराण भी मूर्तिपूजा करने को मना करता है–
वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं-
•न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। (यजु० अ० ३२ । मं० ३)
शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है।
अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है।

•सपर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। (यजु० ४०/८)
भावार्थ:-वह सर्वशक्तिमान्, शरीर-रहित, छिद्र-रहित, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, पवित्र, पुण्य-युक्त, अन्तर्यामी, दुष्टों का तिरस्कार करने वाला, स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है। वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है।

•यद् द्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमिरुत स्युः।
न त्वा वज्रिन्सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी।। (अथर्व० २०/८१/१)
भावार्थ:-सैंकड़ों आकाश ईश्वर की अनन्तता को नहीं माप सकते। सैकड़ों भूमियाँ उसकी तुलना नहीं कर सकतीं। सहस्रों सूर्य, पृथिवी और आकाश भी उसकी तुलना नहीं कर सकते।

तिरुपति का भावार्थ क्या है?
वैसे तो अपनी सुविधा के अनुसार तिरु शब्द के अनेकों अर्थ बना दिए गए हैं, लेकिन तिरु का वास्तविक अर्थ है श्री, पवित्र, माननीय एवं पति का अर्थ है स्वामी।
अतः तिरुपति तमिल भाषा का शब्द है जिसमें तिरु का अर्थ श्री एवं पति का अर्थ प्रभु है। सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के प्रथम समुल्लास में श्री की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है।
“(श्रिञ् सेवायाम्) इस धातु से‘श्री’शब्द बनता है।‘यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः’- जिसका सेवन सब जगत्, विद्वान् और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम‘श्री’है।”

एक अन्य विचार के अनुसार तिरु शब्द तीनों लोको के देवता के लिए तमिल भाषा का शब्द है ।जिसे वेदों ने संस्कृत भाषा में त्र्यम्बकं भी कहा है।इसलिए शायद इस मंदिर का नाम भी तिरुपति हुआ। जहां कभी पर्वतमाला के पास शांति से तीनों लोकों के स्वामी परमात्मा की एकांत में ध्यान , धारणा,समाधि आदि द्वारा उपासना की जाती रही होगी और बाद में जब मूर्ति पूजा का आरम्भ हुआ तो नई कहानियां रच दी गयी। एक वेद मंत्र इस प्रकार है-
ओ३म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।
यह ऋग्वेद ७/५९/१२ का मंत्र है। इसमें भक्त ईश्वर से प्रार्थना करता है कि- हे ईश्वर! आप निराकार, सर्वव्यापक, तीनों लोकों के स्वामी, सर्वज्ञ और सब जगत को पुष्टि प्रदान करने वाले हो, सबके पालनहार हो। जिस प्रकार खरबूजा सुगन्धि व रस से पककर बेल रुपी बन्धन से स्वत: ही अलग हो जाता है उसी प्रकार हम भी आपकी भक्ति द्वारा ज्ञान, बल व आनन्द में परिपक्व होकर इस संसार रुपी बन्धन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जावें! स्मरण रहे, इस मंत्र का शिवलिंग, महाकाल वा ज्योतिर्लिंग से दूर दूर का भी कोई वास्ता नहीं है। इस मंत्र के उल्टे पुल्टे अर्थ करके पण्डे पुजारियों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है। गायत्री मंत्र की तरह यह मंत्र भी परमात्मा की स्तुति प्रार्थना व उपासना का मंत्र है।महामृत्युंजय मंत्र में किसी ने ‘जय श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग नमो नम:’ वाली पंक्ति अपनी ओर से जोड़ दी है।ये भस्मारती श्रृंगार दर्शन कोरा पाखंड है। वेदों में कहीं भी ऐसी बात नहीं कही गई है। पण्डे पुजारियों की ये मनघडंत बातें हैं।

ईश्वर को प्राप्त करने की सरल विधि क्या है’ ? एक जिज्ञासा हो सकती है की यदि तिरुपति में भगवन प्राप्त नहीं हो सकते तो ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकते है। बहुत से भोले-भाले लोग ऐसे मायाजाल में फंस जाते हैं परन्तु विवेकी पुरूष जानते हैं कि यह सब मृगमरीचिका के समान है। जब रेगिस्तान की भूमि में जल है ही नहीं तो वह वहां प्राप्त नहीं हो सकता। अतः धार्मिक लोगों द्वारा अपने भोले-भाले अनुयायियों को बहकाना एक धार्मिक अपराध ही कहा जा सकता है। दोष केवल बहकाने वाले का ही नहीं, अपितु बहकने वाले का भी है क्योंकि वह संसार की सर्वोत्तम वस्तु ‘ईश्वर’ की प्राप्ति के लिए कुछ भी प्रयास करना नहीं चाहते और सोचते हैं कि कोई उसके स्थान पर तप व परिश्रम करे और उसे उसका पूरा व अधिकतम लाभ मिल जाये।
आजकल के माता-पिता व आचार्य स्वयं सत्य व आध्यात्मिक ज्ञान से हीन है, अतः उनकी सन्तानों व शिष्यों में भी सत्य वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं आ पा रहा है। इसका हमें एक ही उपाय व साधन अनुभव होता है और वह महर्षि दयानन्द व वेद सहित प्राचीन ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों एवं वेदांगों, उपांगों अर्थात् 6 दर्शन तथा 11 उपनिषदों सहित प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि का अध्ययन है। इन्हें पढ़कर मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा व संसार से संबंधित सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को वेद के आधार पर सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया है।
ईश्वर के वास्तविक स्वरूप के समझना जरुरी है। यधपि विषय बहुत बड़ा है। और इसके लिए स्वाध्याय की जरुरत है , अपना समय निकालकर अष्टांगयोग का अध्ययन करिये। आपको जरुरु निराकार ईश्वर के सानिध्य का आनंद आएगा । नुष्य जब ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व ध्यान-उपासना करते हुए ईश्वर में मग्न हो जाता है तो समाधि के निकट होता है। कालान्तर में ईश्वर की कृपा होती है और जीवात्मा को ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होता है। इसका वर्णन करते हुए उपनिषद में कहा गया है कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, जिसने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है, उसको जो परमात्मा के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। तभी आपको असली ईश्वर के लड्डू का स्वाद भी मिलेगा।
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥
मंत्रार्थ – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकलजगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूरकर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं,उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।

आप स्वयं निर्णय कर लें कि ये तिरुपति मंदिर चमत्कार ,भगवान् के दर्शन के नाम पर पाखंड है या कुछ और? निर्णय आप करें

Comment: