*धरती देती धैर्य , नभ देता विस्तार -*

बिखरे मोती

धरती देती धैर्य ,
नभ देता विस्तार।
प्राणित करती है पवन,
अग्नि दोष पखार॥2721॥ तत्त्वार्थ :-भाव यह कि मनुष्य को केवल तत्त्व ही आगे बढ़ने अथवा ऊंचा उठने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं अपितु जड़ पदार्थ भी उसे मूक भाषा में प्रेरणा देते हैं , जैसे धरती से धैर्य सीखना चाहिए। आकाश से विस्तार अर्थात महानता की ऊंचाई आकाश जैसी अन्नत हो ,उसके यश की सुगंध जीवन पर्यंत रहे। ध्यान रहे संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं – पाषाणमुखी और आकाशमुखी पाषाणमुखी वे होते हैं जो किसी के विकास में बाधा डालते हैं दूसरे को दबाकर रखना चाहते हैं जैसे किसी पौधे के अंकुरण को कोई पत्थर अपने नीचे दबाकर रखता है और उसके विकास को अवरुद्ध कर देता है।
दूसरे प्रकार के वे व्यक्ति होते हैं जो आकाश की तरह सबको आगे बढ़ाने , फैलने अथवा विस्तार करने का अवसर सहर्ष देते हैं। अतः आकाश से विस्तार विकास सीखो।
यह वायु परमपिता परमात्मा की अमूल्य उपहार है, जो हमें अहर्निश प्राण शक्ति देती रहती हैं अर्थात जीवन दान देता है। ठीक इसी प्रकार हम भी किसी के प्राणों की रक्षा करें , उसे जीवनदान दें।
चौथ महाभूत है – अग्नि जो आशातीत उपकारी है। अग्नि तत्त्व के बिना प्राणी मात्र का जीवन शून्य है। अग्नि से प्रत्येक जीव का भोजन पचता है, शरीर का तापमान ठीक रहता है। बिजली भी तो अग्नि है जिसके बिना चारों तरफ अंधेरा है,इसी के कारण धरती पर विकास का सवेरा है। अग्नि का स्रोत सूर्य है, जिसकी तेज किरणें फसल को जीवन देती है, उसे पकाती हैं,गंदगी को भस्मिभूत करके उसे सुखती हैं। ठीक इसी प्रकार हम बुराई को भस्मीभूत करें और पृथ्वी पर अच्छाई का नया सवेरा लायें।

जल से सीखो आर्द्रता,
करणा उर में धार।
प्यास बुझाता धार की,
लाता नई बाहर॥2722॥

पांचवा महाभूत है – जल है जिसे जल ही जीवन है कहा गया है। जिस प्रकार जल में शीतलता और आर्द्रता होती है प्यास बुझाने की अद्भुत शक्ति होती है तथा नूतन सृजन की अलौकिक शक्ति होती है। पावस ऋतु में जल के कारण सूखी धरती हरियाली के अद्भुत सौंदर्य से अलंकृत होती है , चारों तरफ खुशहाली होती है। इसी प्रकार हम भी जल की तरह आर्द्र हो ,दयालु हो। भाव यह है कि नीर जैसी दया हमारे हृदय में हो, करुणा की धारा हमारे हृदय में प्राणी मात्र के लिए सदैव सर्वत्र अविरल प्रवाहित होती रहे।
क्रमशः

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