आत्रेयी -अपाला कथा
डॉ डी के गर्ग
पौराणिक कथा — अपाला महर्षि अत्रि की एकमात्र पुत्री थीं. वह इतनी बुद्धिमान थीं कि वेदों की ऋचाएं एक बार पढ़कर ही कंठस्थ याद कर लेती. चारों वेदों को याद कर वह जल्द ही वेदज्ञ हो गई थी। अपाला बचपन से त्वचा रोग से पीड़ित थीं. इसकी वजह से अत्रि ऋषि को उसके विवाह को लेकर चिंता सताने लगी. इसी बीच एक दिन कृशाश्व नाम के ऋषि अत्रि के आश्रम आए. जिन्होंने अपाला से विवाह करना स्वीकार कर लिया. विवाह के बाद दोनों सुख से रहने लगे थे. पर धीरे- धीरे अपाला का चर्म रोग बढऩे लगा. इससे कृशाश्व उससे घृणा करने लगे. ये देख अपाला वापस अपने पिता के आश्रम में लौट आई.
यहां उसने ऋषि अत्रि के कहने पर तप करते हुए देवराज इंद्र के प्रशस्ति मंत्रों की रचना की. इससे प्रभावित होकर देवराज इंद्र ने उसे दर्शन दिया. जब इंद्र प्रगट हुए तो अपाला ने सोम की बेल को दांतों से दबाकर उसका रस निकालकर उन्हें पिलाया. इससे देवराज ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा. अपाला ने चर्म रोग रहित सौंदर्य का वरदान मांग लिया. इस पर देवराज इंद्र ने उसका चर्म रोग दूर कर उसे आकर्षक बना दिया. उधर, अपाला के जाने के बाद से कृशाश्व को भी अपनी गलती का अहसास हुआ. पश्चाताप करते हुए वे फिर ऋषि अत्रि के आश्रम में उसे लेने पहुंचे. अपनी पत्नी को नए रूप में प्राप्त कर वे बहुत खुश हुए.
विश्लेषण : – ऋग्वेद 8.91 में अत्री की कन्या अपाला का आख्यान वर्णित है इस आख्यान को मानवीय घटना मानकर विधर्मियो ने इस तरह से विकृत कर दिया ताकि वेदों के प्रति श्रद्धा ही न रहे। इस ऋचा में अपाला को आत्रेयी अर्थात अत्रि की पुत्री कहा है। प्रलय के समय प्रजापति (ईश्वर )समस्त विश्व का भक्षण कर (समेट) लेता है , अतः वह अत्री 'है । इस मंत्र में
अत्री ‘और अत्ता' दोनों ही प्रजापति के वाचक हैं । प्रजापति
हिरण्यगर्भ ‘ही है। जिससे पृथ्वी की उत्पत्ति हुई थी अतः अपाला पृथ्वी की उस अवस्था का नाम है, जब वह हिरण्यगर्भ से पृथक होकर ठंडी हो गई थी और उस पर `रोम’ अर्थात वनस्पति आदि उत्पन्न नहीं हुई थी पृथ्वी के रोमहीन की पुष्टि में अनेकों वैदिक प्रमाण उपलब्ध हैं।
शब्दार्थ –
कन्या – पृथ्वी को कन्या इसलिये कहा है कि यह आरम्भ में अक्षत थी अर्थात् इस पर हल आदि नहीं चलाए गए थे ।
अपाला- ‘न पाली गई’, इसलिये कहा है, कि उसकी रक्षा और पुष्टि जलादि से नहीं की गई थी। इस अवस्था में अपाला का पिता भूभृत्, धरणीधर, क्ष्माभृत् अर्थात् पर्वत था। और उसके मिर (ततस्य शिरः) अर्थात् चोटी पर भी रोम नहीं थे। वह वनस्पति- हीन होने से गंजा था। इसपर वनस्पति (रोम) उत्पन्न करने का अपाला ने इन्द्र से पहला वर मांगा था ।
दूसरा वर उसे अर्थात् भूमि को उर्वरा (उपजाऊ) बनाने का था ।
तीसरा वर-उदर के नीचे अर्थात् भूमि के गुह्य स्थल में भी कन्दमूलादि वनस्पति उगाने को प्रार्थना थी।
वृष्टि के देवता इन्द्र ने, जिसे इस सूक्त में शक्र और शतऋतु भी कहा है, वर्षा करके अपाला के त्वचा के रोग को लता, गुल्म, वृक्ष तृणादि उत्पन्न करके सूर्य के समान विकसित तल वाली लहलहाती हुई बना दिया ।
पति-द्विषः – मन्त्र ४ में अपाला (पृथ्वी) को ‘पति-द्वीप ‘ कहा है, और मन्त्र १ में ‘कन्या’ कहा है। ऋग्वेद में कन्या (लड़की) के मनुष्य से विवाह करने से पूर्व तीन देवी शक्तियाँ अवस्था भेद से उसके पति कहे हैं- सोम; गन्धर्व और अग्नि।
‘सोम’ काम-वासना उत्पन्न होने से पूर्व कन्या की शान्त अवस्था का पति है। तत्पश्चात कुमारी अवस्था में भीतर दबी काम भावना कुछ प्रादुर्भूत होने लगती है। उस अवस्था का पति ‘गन्धर्व’ कहा है। तीसरी अवस्था में कामाग्नि प्रदीप्त होने के समय उसका पति ‘अग्नि’ होता है ( संदर्भ ऋग्वेद १०.८५.४०)
पृथ्वी के प्रसङ्ग में केवल सोम, गन्धर्व और अग्नि ही उसके पति हो सकते हैं। हिरण्यगर्भ से पृथक् होने पर पृथ्वी अग्नि का एक दहकता हुआ गोला था, और वह उसकी प्रचण्ड उष्णता ने प्रतप्त थी। जब कालान्तर में वह ऊपर से ठण्डी हो गई, तो यह उसकी शान्त ‘कन्या’ अवस्था थी, जबकि उसपर वनस्पति आदि रोमों का उद्गम नहीं हुआ था। उस रामय ‘सोम’ उसका पति था । तदनन्तर जब अपाला के भीतर दवी अग्नि ऊपर उठने का प्रयत्न करने लगी, तब ‘गन्धर्व’ उसका पति हुआ। किन्तु जब आभ्यन्तर अग्नि ने प्रचण्डरूप ग्रहण करना आरम्भ किया, तब उसे शान्त करने और रोम (वनस्पति) उत्पादन करने के लिये उसको ‘इन्द्र’ से प्रार्थना करनी पड़ी। यही अपाला का अग्निरुपी पति से द्वेष था ।
सातवीं ऋचा में आए ‘रथ, अनस् और युग’ पद सभी अलंकारिक हैं। वेद में देवी शक्तियों का मानवरूप में वर्णन करने के कारण, तत्सम्बन्धी अङ्गों तथा उपकरणों को भी रथादि भौतिक पदायों के समान वर्णित किया गया है । वेगवान गति का नाम रथ' और धीमी गति का नाम
अनस’ /
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