Dr DK Garg

1.प्रात काल स्नान आदि से निवृत होकर एकांत में बैठकर ईश्वर की स्तुति,उपासना,प्रार्थना करनी चाहिए,उस समय मोबाइल इत्यादि बिलकुल आसपास ना हो।
2.उस समय बाहरी विचारो का प्रवाह नही होना चाहिए,केवल ईश्वर और आपके मध्य कोई दूसरा ना हो।
3.ईश्वर और आपके मध्य संबंध पिता ,माता,भाई ,राजा ,प्रजा , गुरु ,गणपति आदि का है ,ईश्वर को मित्र मान लो तो ईश्वर भी आपकी सुनेगा।
4.ईश्वर ने आपको सब कुछ दिया है औषधि भी,भोजन भी ,वनस्पतियां ,पर्वत ,समुंद्र ,नदिया आदि। उसकी मूर्ति बना उसको कपड़े पहनाना ,भोग लगाना ,पत्ते नारियल चढ़ाना मूर्खता ही नही प्रकृति का दोहन है।
5..यदि आपको वेद मंत्र याद है तो उनके भावार्थ भी याद कर लो,पूरा लाभ मिलेगा,आप भावनामत्क रूप से जुड़ेंगे।
6 आप स्वयं वेद मंत्रों से यज्ञ करे ,गायत्री मंत्र से करे ,जो लोग बाहरी जन्म से पंडित वर्ग के लोग बुलाते है,और ये रट्टू तोते की तरह जो अशुद्ध मंत्र बोलते है ,मंत्रो का भावार्थ भी नही जानते,वेद का ज्ञान भी नही है ,ऐसे मुर्ख अज्ञानी लोगो से यज्ञादि करवाना दोषपूर्ण है,समय और पैसा की बरबादी तो है ही,कोई लाभ की उम्मीद भी ना करे।
7 पंडित के वेश में जो स्वयं को ब्राह्मण कहते है,वेद मंत्र और भावार्थ नही जानते ,ऐसे पंडित मनुष्य के रूप में ठग कहलाने के हकदार है ।मेरा विश्वास है की उज्जैन,पुष्कर,बनारस,मथुरा, रामेश्वरम आदि प्रमुख स्थानों पर पूजा पाठ करने वाले पण्डो ने वेद देखे भी नही होंगे और उनके घर पर भी नही मिलेंगे।
8.आजकल देखो तो तरह तरह के ब्राह्मण उपलब्ध है जैसे कि कर्मकांडी ब्राह्मण,महा ब्राह्मण,सर्युपरिण ब्राह्मण,कान्यकुब्ज ब्राह्मण आदि ।लेकिन वेद में केवल एक प्रकार के ब्राह्मण का वर्णन है ।
9.ब्राह्मण कौन ?
पढने-पढ़ाने से,चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से,परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद,विज्ञान आदि पढने से,कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।-मनुस्मृति 2/2
ब्राह्मण वर्ण है जाति नहीं। वर्ण का अर्थ है चयन या चुनना और सामान्यत: शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है। व्यक्ति अपनी रूचि, योग्यता और कर्म के अनुसार इसका स्वयं वरण करता है, इस कारण इसका नाम वर्ण है। वैदिक वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
ब्राह्मण का कर्म है विधिवत पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना, दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।
10इधर उधर न भटके,ईश्वर आपके सम्मुख ही है ,कही खोजने किसी प्रसिद्ध मंदिर जाने की जरूरत नहीं।आपका हृदय ही तीर्थ है।अनाड़ी पण्डो से दूर रहकर सच्चे हृदय परमपिता की स्तुति करे।

11 कठोपनिषद२/५ में लिखा है =
अविद्या या मन्तरे वर्त्तमाना:
स्वयं धीरा: पण्डितम्मन्यमाना:
दंदम्यमाणा: परियन्ति मूढा
अन्धेनैवनीयमाना यथान्धा:।।

संसार में लोग अविद्या में फंसे हुए, सांसारिक भोगों में पड़े हुए स्वयं को धीर और पंडित माने फिरते हैं टेढ़े-मेढ़े रास्तों से इधर-उधर भटकते हुए यह मूड ऐसे जा रहे हैं कि जैसे अंधा अंधों को रास्ता दिखा रहा हो।

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