ओ३म् “मनुष्य जीवन की सार्थकता वेदाध्ययन एवं वेदानुकूल आचरण में है”
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हम मनुष्य हैं और अपनी बुद्धि व ज्ञान का उपयोग कर हम सत्य और असत्य का निर्णय करने में समर्थ हो सकते हैं। परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान सभी मनुष्यों के लिए दिया गया था। यह ज्ञान सभी श्रेणी के मनुष्यों ज्ञानी, अल्पज्ञानी तथा अज्ञानी सभी के लिये ग्राह्य तथा धारण करने योग्य है। वेदों के ज्ञान को आचरण में लाकर ही मनुष्य ज्ञानी, सदाचारी तथा धार्मिक बनता है। जो मनुष्य वेद ज्ञान के विरुद्ध आचरण करते हैं वह न तो ज्ञानी हो सकते हैं, न ही सदाचारी और न ही धार्मिक। इसका ज्ञान व अनुभव मनुष्य को वेदाध्ययन एवं ईश्वर की उपासना करने से होता है। ऋषि दयानन्द ने अपने वेदों के गहन ज्ञान के आधार पर वेदों को सब सत्य विद्याओं की पुस्तक बताया है और घोषणा की है कि वेदों पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी सज्जन, श्रेष्ठ व आर्य पुरुषों का परम धर्म है। वेदों को परम धर्म इस लिये बताया है कि वेदों के अध्ययन व आचरण से ही मनुष्य की बुद्धि पूर्णरूप से विकसित होती है और मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्यों व लक्ष्यों का ज्ञान होता है। मनुष्य जीवन के उद्देश्य क्या हैं? वेदों के अनुसार मनुष्य जीवन के लक्ष्य हैं धर्म का पालन, सत्कर्मो से अर्थ की प्राप्ति, शास्त्र के अनुसार मर्यादित जीवन व्यतीत करना तथा ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त करना आदि। इसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष भी कहा जाता है। सृष्टि के आरम्भ से ही हमारे पूर्वज ऋषियों, ज्ञानियों व योगियों को इन सब बातों का ज्ञान था। सभी वैदिक जीवन पद्धति के अनुसार त्यागपूर्ण व परोपकार से युक्त जीवन व्यतीत करते थे। आज भी यही जीवन सार्थक एवं प्रासंगिक है। वेदों का उत्तराधिकारी वैदिक धर्मी व आर्यसमाज का अनुयायी स्वयं में इन शिक्षाओं को सार्थक करते हुए देश व समाज में वैदिक शिक्षाओं का प्रचार व प्रसार करता है। चार वेद रुढ़िवाद के स्थान पर वेद व शास्त्रों की बुद्धि व ज्ञान युक्त बातों को ही स्वीकार करने की प्रेरणा व शिक्षा देते हैं। इन्हीं शिक्षाओं को धारण व पालन कर हमारे पूर्वज ऋषि, महर्षि, योगी, ध्यानी व महापुरुष बनते थे। राम व कृष्ण, आचार्य चाणक्य सहित ऋषि दयानन्द वेदों की शिक्षाओं को धारण कर ही विश्व के आदर्श महापुरुष बने थे। इनका यश आज भी है और सृष्टि की प्रलय पर्यन्त इसी प्रकार बना रहेगा। आज की परिस्थितियों को देखकर नहीं लगता कि वर्तमान व भविष्य में कोई मनुष्य इन महापुरुषों के यश व कार्यों के अनुरूप अपने जीवन को बना सकेगा यद्यपि लक्ष्य हमारा इन महापुरुषों के अनुरूप अपने जीवन को बनाना ही है व यही सबका लक्ष्य होना चाहिये।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसके समर्थन में हमारे ऋषियों ने उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। जो आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन व्यतीत करने का ज्ञान इन ग्रन्थों में मिलता है, वह संसार के इतर साहित्य में नहीं मिलता। वेद न केवल ईश्वर व आत्मा सहित संसार को जानने की प्रेरणा करते हैं, वहीं वह ईश्वर आदि सभी सृष्टि में विद्यमान पदार्थों का सत्य स्वरूप भी वर्णित करते हैं। इनका अध्ययन कर मनुष्य ज्ञान की दृष्टि से अपनी आत्मा व बुद्धि का विकास कर पूर्ण पुरुष, जितना एक मनुष्य के लिए सम्भव है, बन सकता है। वेद ज्ञान का अध्ययन करने तथा उसे प्राप्त होकर मनुष्य का आत्मा सन्तुष्ट होता है। उसका जीवन सांसारिक पदार्थों की अपेक्षा ईश्वरीय ज्ञान व आनन्द का भोग करके ही प्रसन्न व सुख का अनुभव करता है। वेद मनुष्य को ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर उसके अनुरूप ईश्वर का ध्यान, मनन व चिन्तन करने सहित वायु, जल व पर्यावरण को शुद्ध व निर्दोष रखने की प्रेरणा करते हैं व इसके लिये अग्निहोत्र यज्ञ करने की प्रेरणा भी करते हैं। वैदिक काल में सभी गृहस्थियों के लिये वायु, जल, अन्न, ओषधि, बुद्धि व आत्मा के शोधक अग्निहोत्र यज्ञ का करना आवश्यक कर्तव्य होता था। इसी कारण वैदिक काल में अपराध कम होते थे। महाभारत युद्ध से पूर्व तक पूरे संसार में एक वैदिक धर्म ही प्रचलित था। संसार में मत-मतान्तरों, पन्थ व सम्प्रदायों की उत्पत्ति का कारण वेदों के ज्ञान का विलुप्त वा अप्रचलित होना और अज्ञान का प्रसारित होना रहा है। जिस प्रकार विज्ञान सत्य नियमों की खोज कर उनको मानता है और विश्व के सभी लोग उसे, न नुच के, स्वीकार करते हैं उसी प्रकार धर्म के भी सत्य सिद्धान्त व मान्यतायें होती हैं जो चार वेदों तथा ऋषियों के बनायें शास्त्रों में विद्यमान हैं। उन वेद व वेदानुकूल मान्यताओं को मानना व आचरण करना ही मनुष्य का धर्म होता है। आज संसार में सबसे अधिक आवश्यकता है तो वह वेदों के अनुकूल जीवन व व्यवहार बनाने तथा वेद विपरीत आचरण व विचारों को छोड़ने की है। इसी लक्ष्य को प्राप्त करना ही मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है। यदि यह बात समझ में आ जाये और सब इसको स्वीकार कर लें तो यह धरती सुख का धाम व स्वर्ग बन सकती है व इससे सब मनुष्यों का लोक व परलोक सुधर सकता है। ऋषि दयानन्द ने इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपने ग्रन्थों का प्रणयन कर वेदों का प्रचार प्रसार किया था। लोगों की बुद्धि का उस स्तर तक विकास न हो पाने के कारण, कि वह सत्य व असत्य को जानकर सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कर सकें, पृथिवी को स्वर्ग धाम बनाने का काम आज भी अधूरा पड़ा हुआ है। ईश्वर ही इस कार्य को आगे बढ़ा व पूरा कर-करा सकते हैं। ईश्वर से ही प्रार्थना है कि वह विश्व के लोगों को सद्बुद्धि दें और उन्हें सत्य व असत्य का ज्ञान प्राप्त कराकर सत्य को ग्रहण व धारण करने की प्रेरणा सहित असत्य के त्याग की प्रेरणा भी प्रदान करें।
मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य जीवन व मरण, जिसे आवागमन का सिद्धान्त कहते हैं, उससे मुक्ति प्राप्त करना है। जन्म व मरण दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य की आत्मा को दुःख होता है। मुक्ति सभी प्रकार के दुःखों से छूटने व सर्वथा आनन्द की स्थिति को प्राप्त होने को कहते हैं। हमारे ऋषियों ने इस आवागमन से छूट कर मुक्ति प्राप्त करने व इसके लिए ईश्वर की प्राप्ति को ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया था और इस मोक्षावस्था को प्राप्त करने की जीवन पद्धति भी प्रस्तुत की है। इस जीवन-मुक्ति प्राप्ति की जीवन पद्धति को ऋषि दयानन्द के विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में देखा जा सकता है। मुक्ति प्राप्ति के लिये मनुष्य को अपनी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति करनी होती है। यह कार्य यौगिक जीवन जीने से ही सम्पन्न हो सकता है जिसमें वेदों का अध्ययन व ज्ञान प्राप्ति प्रमुख कर्तव्य व व्यवहार होता है। वेदों का अध्ययन कर मनुष्य को ईश्वर की उपासना की प्रेरणा मिलती है जिससे मनुष्य में निराभिमानता आती है व अहंकार का नाश होता है। शरीर पुष्ट होता है जिससे दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है। आत्मा ज्ञानवान होती है तथा अविद्या का नाश हो जाता है। स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना की सफलता से समाधि अवस्था स्थिर होकर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इस अवस्था को प्राप्त होने पर ही जीवात्मा जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर ईश्वर में निवास करती है और उसके सान्निध्य से सुख भोगते हुए अपनी सुख व आनन्द प्राप्ति की सभी इच्छाओं को प्राप्त होती है। यही मनुष्य के लिये प्राप्तव्य है। इसी के लिये हमारे सभी ऋषि, मुनि, महापुरुष, योगी प्रयत्न करते थे। इसी ज्ञान की प्राप्ति व उसे आदर्श रूप में जी कर ऋषि दयानन्द ने हमें बताया है। ऋषि दयानन्द के अनुसार ही हमें अपना जीवन बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। इसी से हम अपनी आत्मा के लक्ष्य को प्राप्त हो सकते हैं। इन सब बातों को जानने व समझने के लिये ऋषि दयानन्द के जीवन चरित्र सहित उनके सत्यार्थप्रकाश आदि सभी ग्रन्थों का अध्ययन भी किया जाना चाहिये। ऐसा करके निश्चय ही मनुष्यता का विस्तार होगा और हम अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। ऐसा होने पर ही विश्व के मनुष्यों में एकता स्थापित होकर विश्व शान्ति के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य