- दिव्य अग्रवाल
सनातनी समाज कितना दोषी है यह भी आत्ममंथन करना चाहिए , गैर-हिन्दू समाज के प्रतिष्ठानों में जाकर उनके द्वारा निर्मित मांसाहार को चटकारे लेकर जो हिन्दू खाते हैं वह क्या सनातन धर्म के सम्मान को धूमिल नहीं कर रहे, मंदिर समितियों के पदाधिकारी अपने वर्चस्व का प्रदर्शन करते हुए जब गैर-हिन्दू समाज के लोगो को मंदिरो में कर्मचारी रख लेते है या मंदिर के आंतरिक कार्य करवाते हैं तो क्या तब सनातन धर्म के सम्मान को धूमिल नहीं करते। जब मंदिर महंतो के निजी वस्त्र धोकर उन पर प्रेस आदि करके महंतो के कमरों तक गैर हिन्दू समाज चले जाते हैं क्या तब सनातनी परम्पराएं अपमानित नहीं होती हैं। तिरुमला देवस्थानम में सूअर, मछली, गौ माता की चर्बी आदि से निर्मित प्रसाद का भोग भगवान् को लगाया जाता है क्या यह सनातन को अपमानित नहीं करता । गैर-हिन्दू समाज के लोगो द्वारा कहीं पर थूक, कहीं मूत्र, कहीं गौ चर्बी आदि से निर्मित अन्य समाज के लोगो को भोजन, जूस ,प्रसाद आदि परोसा जा रहा है फिर भी सनातनी समाज ऐसे कुंठित मानसिकता के लोगो से कार्य करवाते हैं तो दोष किसका है। जब यह सर्वविदित हो चूका है की मजहबी मानसिकता, घिनोना से घिनोना कार्य करके भी हिन्दू समाज को अपमानित और प्रताड़ित करना चाहती है तो हिन्दू समाज सतर्कता क्यों नहीं बरतता । हिन्दू समाज कितना सहनशील है इसका अंदाजा लगाइये की भगवान् को चढ़ने वाले भोग प्रसादम में सूअर तक की चर्बी मिलाने की पुष्टि के पश्चात भी हिन्दू समाज संवैधानिक प्रकिर्या से अपनी बात रखेगा । कल्पना कीजिए यदि सूअर की चर्बी का एक छोटा टुकड़ा भी किसी अन्य समाज के स्थल पर मिल जाए तो क्या वो इतनी सहनशक्ति का परिचय देंगे , संवैधानिक प्रक्रिया से चलेंगे , शायद नहीं इसीलिए आवश्यक है की सनातनी समाज सजग व् सतर्क रहे ।
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