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कविता

मृत्यु को जानो

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नित बढ़ रहे हैं हम मृत्यु की ओर
जिसका हमें कौड़ी भर नहीं ज्ञान
जीने की लालसा लिए बैठे हैं हम
कितने दिन जिएंगे, नहीं अनुमान।

मृत्यु को जो देखते स्वयं के पास
फटकते नहीं दुष्कर्म ,उनके पास
निष्कलंकित होता जीवन उनका
हो जाते हैं आम जनों में,वे खास।

उम्र हमारा बढ़ रहा या घट रहा है
प्रायः हम सब बढ़ने को हैं जोड़ते
घटने का चिंतन न होने के कारण
सर्वजन सत्यता से हैं मुख मोड़ते।

अमर रहने कौन आया है, जग में
एक-एक करके यहां से चलते ग‌ए
आवागमन का यह क्रम है सदा से
विज्ञान नहीं बना सका नियम नये।

हमको,तुमको,सबको ही जाना है
जाएंगे यहां से सब ही खाली हाथ
कर्मों की गठरी अकेले ही ढोना है
इसे ढोने में , नहीं देगा कोई साथ।

सब कुछ जान रहे हो ,देखे भी हो
फिर भी न आया तुम्हें कुछ ज्ञान
लोभ,मोह का पिटारा भर न पाया
न पाये इनके कारण कुछ सम्मान।

बीता हुआ भूला देना होगा अच्छा
आगे सद्कर्मों पर रखना है ध्यान
जियो समाज ,राष्ट्र के लिए तनिक
तब ही यहां आने का ,रखोगे मान।

जीवन-मृत्यु के खेला ध्रुव सत्य है
ना कुछ लेकर आये , ना ले जाना
आर्य”इस बात को जान लिया जो
सफल हुआ उसका जग में आना।

    अरुण कुमार 'आर्य:

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