हरियाणा विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी नई रणनीति के साथ चुनाव मैदान में उतर चुकी है। पार्टी को जहां सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है, वहीं अपने कुछ उन विधायकों का भी तीखा विरोध झेलना पड़ रहा है, जिन्हें पार्टी ने विधानसभा चुनाव की दौड़ से बाहर कर दिया है अर्थात उनका टिकट काट दिया है। इसके उपरांत भी पार्टी फिर से सत्ता में आने के लिए पूरे दमखम के साथ विधानसभा चुनाव में कूद पड़ी है। इसके लिए भाजपा ने अपनी बेहतर रणनीति बनाने का प्रयास किया है। पार्टी ने आर्थिक विकास, रोजगार के अवसर और सुरक्षा जैसे मुद्दों को प्रमुखता देते हुए अपनी रणनीति तय की है । इसके साथ ही भाजपा ने जातीय समीकरणों को भी ध्यान में रखने का पूरा प्रयास किया है। जहां से पार्टी के वर्तमान विधायकों के टिकट काटे गए हैं , वहां से भी पार्टी यह उम्मीद कर रही है कि लोग पुराने चेहरे से दुखी हो जाने के कारण नए चेहरे को पसंद करेंगे । जिससे पार्टी के हक में वोटिंग परसेंटेज बढ़ेगा। जिससे पार्टी फिर से सत्ता में लौटने में सक्षम हो सकती है।
अब भाजपा की यह रणनीति कितनी सफल होती है ? यह तो समय ही बताएगा, परंतु एक बात तो निश्चित है कि भाजपा को अब भी कम करके आंकना गलत होगा। क्योंकि अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में प्रदेश के मतदाताओं ने भाजपा को विधानसभा की 46 सीटों पर बढ़त दी थी। जिससे भाजपा उत्साहित है। माना जा सकता है कि भाजपा और जेजेपी का गठबंधन टूट गया है , परंतु इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि यदि भाजपा सत्ता से 2 – 4 सीट पीछे रह गई और इतनी सीटें जेजेपी को मिल गईं तो फिर दोनों मिलकर सरकार चला सकते हैं।
इसी समय हमको यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि प्रदेश के मतदाताओं ने कांग्रेस पर भी अपनी कृपा दृष्टि करने में कमी नहीं छोड़ी है। हरियाणा में कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी का मजबूत विकल्प है और यदि सत्ता विरोधी लहर थोड़ी सी भी रंग दिखाने में सफल हो गई तो निश्चित रूप से कांग्रेस बाजी मार सकती है। दोनों ही बड़े राजनीतिक दलों का अपना-अपना लक्ष्य है और दोनों ही सत्ता में आने के लिए चुनाव मैदान में उतर चुके हैं। लोकसभा चुनाव के पश्चात हो रहे इन विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के लिए भी जीवन मरण का प्रश्न है। क्योंकि उसे यह दिखाना है कि लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने जिस प्रकार संविधान बचाओ के नारे के माध्यम से लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया था, उसका भूत अब उतर चुका है और लोग सच्चाई को समझकर फिर भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। जबकि राहुल गांधी को यह दिखाना पड़ेगा कि उन्होंने जो भी झूठ बोला था, वह सच के रूप में जनता में आज भी स्थान बनाए हुए है।
यही कारण है कि दोनों पार्टियों के लिए हरियाणा का चुनाव अपने अस्तित्व को सिद्ध करने का चुनाव है।
इसमें दो राय नहीं हैं कि भारतीय जनता पार्टी के पास प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा अब भी एक अच्छे चुनाव प्रचारक के रूप में उपलब्ध है । जबकि राहुल गांधी कांग्रेस के स्टार प्रचारक हैं। जिन्हें अब हम नए ‘ अवतार ‘ के रूप में देख रहे हैं। उनकी सोच अब बहुत ही अधिक घातक बन चुकी है। विदेश की धरती पर उन्होंने जाकर जिस प्रकार देश का गलत चित्रण किया है, उससे राजनीति की थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाले लोगों का उनसे मोह भंग हुआ है। अब इस घातक सोच का हरियाणा के लोग किस रूप में जवाब देते हैं ? यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे। मोदी विरोधियों से राहुल गांधी हाथ मिलाएं,इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, परंतु देश विरोधियों से भी वह हाथ मिलाएंगे तो बहुतों को आपत्ति होगी। राजनीति निश्चित रूप से मर्यादाओं का खेल है। यदि राजनीति मर्यादाविहीन हो जाएगी तो राष्ट्र विघटन और विखंडन की ओर जाएगा ही । यदि मर्यादाहीन राजनीति को राहुल गांधी अपनाकर चलेंगे तो देश की एकता और अखंडता पर इसका प्रभाव पड़ना निश्चित है।
भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में मुख्यमंत्री का कोई चेहरा घोषित नहीं किया है। इसे पार्टी ने चुनाव परिणाम आने के पश्चात के लिए छोड़ दिया है। यहां पर यह बात भी उल्लेखनीय है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए किसान आंदोलन में उतरने वाले जाट समुदाय के लोग विशेष क्षति पहुंचा सकते हैं। क्योंकि जाट समाज ने हरियाणा को अपनी बपौती मान लिया था। परंतु प्रधानमंत्री मोदी ने देश का प्रधानमंत्री बनने के पश्चात हरियाणा में जाट समुदाय से कोई मुख्यमंत्री न देकर खट्टर को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था। जिसे यहां के जाट समुदाय ने अच्छा नहीं माना था। खट्टर के शासनकाल में जाटों ने भारी उपद्रव किया । जिसके पीछे सत्ता पर फिर से जाट समाज के किसी व्यक्ति को बैठाने की मंशा काम कर रही थी। इस बात को प्रधानमंत्री मोदी ने भी अच्छी प्रकार समझ लिया था। यही कारण था कि उन्होंने जाट समुदाय के सामने झुकने से इनकार कर दिया था और खट्टर को निरंतर मुख्यमंत्री बनाए रखा।
प्रतिक्रिया स्वरूप जाटों ने राकेश टिकैत के साथ जाकर प्रधानमंत्री के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठा लिया। तब भारतीय जनता पार्टी ने जाटों को खुश करने के लिए कई कदम उठाए। पार्टी ने देश के उपराष्ट्रपति के पद को भी जाटों को दे दिया। इसके अतिरिक्त चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न दिया। जाट समुदाय के प्रति अपनाई गई तुष्टिकरण की इस नीति से जाटों का कुछ गुस्सा कम तो हुआ, परंतु हरियाणा में लोग प्रधानमंत्री की जाट तुष्टिकरण की इस नीति का क्या जवाब देंगे ? यह अभी देखना शेष है।
भारतीय जनता पार्टी इस समय सर्व समाज को साथ लेकर चलने का प्रयास कर रही है। जिससे यह तो निश्चित है कि पार्टी का जनाधार विस्तार पा रहा है। जाट समुदाय से अलग सभी समुदायों में यदि किसी पार्टी की पकड़ है तो वह भारतीय जनता पार्टी ही है। लोग भाजपा के शासन से भी उतने अधिक नाराज नहीं हैं , जितना प्रचार किया जा रहा है। इन सब बातों के चलते भाजपा आगामी विधानसभा चुनावों में यदि फिर से सत्ता में लौट आए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
किसानों के संबंध में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि इस वर्ग में अभी भी अशिक्षित लोगों की भरमार है। जिन्हें राजनीति की गंभीरता की समझ कम है। ये लोग अभी भी जातीय आधार पर अपने-अपने नेताओं के साथ हो लेते हैं। वैसे भी भारत विभिन्न देवताओं, अवतारों , भगवानों में विश्वास रखने वाले अंधविश्वासी लोगों का देश है । राजनीति में आज भी अनेक चेहरे ऐसे हैं जो अपनी जाति बिरादरी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जाति बिरादरी की भावना को भुनाते हुए ये लोग विधानमंडलों में पहुंच जाते हैं । उन्हें अपने साथ लगाए रखने के लिए ये विधान मंडलों में बैठकर भी जातिवाद की राजनीति करने से बाज नहीं आते। इस प्रकार ये लोग समाज या राष्ट्र के प्रतिनिधि न होकर जातियों के प्रतिनिधि के रूप में विधानमंडलों में बैठते हैं। यही कारण है कि देश के अधिकांश राजनीतिक दल इस समय जाति आधारित जनगणना करने पर बल दे रहे हैं। जाति आधारित जनगणना का लाभ तो कुछ नहीं होना। हां , हानियां कई प्रकार की हो सकती हैं । परंतु इन लोगों को हानियों से कुछ लेना देना नहीं है। उन्हें अपने राजनीतिक लाभ देखने हैं । जहां तक हरियाणा की बात है तो यहां के लोग किसी जाति विशेष के होने के कारण राकेश टिकैत के साथ अपने आप को जोड़कर देखने में अपना जातीय लाभ देखते हैं। जातिवाद की इस घातक राजनीति को क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस सहित कुछ राष्ट्रीय दल भी अपनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इसे राष्ट्रीय राजनीति का विमर्श बनाकर लोगों को बांटने की राजनीति आरंभ हो चुकी है। अभी हाल ही में जिस प्रकार खिलाड़ियों ने भी जिस प्रकार कांग्रेस का ‘ हाथ ‘ थामा है , उसके भी जातिगत अर्थ निकालने की आवश्यकता है। कांग्रेस के राहुल गांधी ने खिलाड़ियों के यौन उत्पीड़न के आरोपों को हवा देकर राजनीति को विद्रूपित करने का प्रयास किया है।
भाजपा ने चुनाव से पहले नायब सिंह सैनी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर अपनी रणनीति के नए संकेत देने का प्रयास किया है । पार्टी का पूरा प्रयास है कि जिस प्रकार उसे 2014 के चुनाव में विधानसभा की 46 सीटें प्राप्त हुई थीं। इस बार वह अपने उसी इतिहास को दोहराना चाहती है। यद्यपि 2019 में जिस प्रकार उसे मात्र 40 सीट प्राप्त हुई थीं, उसका कटु अनुभव भी उसके पास है। यदि भाजपा इस बार 2019 के आंकड़े के आसपास खड़ी दिखाई दी तो फिर त्रिशंकु विधानसभा भी अस्तित्व में आ सकती है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
मुख्य संपादक, उगता भारत