डॉ राकेश कुमार आर्य
**म** हाभारत के संबंध में ऐसी अनेकों भ्रांतियाँ हैं जो मूल महाभारत में किसी और प्रकार से वर्णित की गई हैं और समाज में किसी और प्रकार से उनके बारे में भ्रांतियाँ पैदा कर ली गई हैं। अभिमन्यु के बारे में भी कई प्रकार की भ्रांतियाँ हैं - जैसे चक्रव्यूह तोड़ने के लिए उसने स्वयं अपने ज्येष्ठ पिताश्री धर्मराज युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्ताव रखा था, जबकि महाभारत कुछ और कहती है।
इसके अतिरिक्त दूसरी भ्रांति है कि अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान गर्भ में ही हो गया था।
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इसी प्रकार यह भी एक भ्रांति है कि जिस समय अभिमन्यु सात-सात महारथियों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ तो उस समय उसके मृत देह के सिर पर जयद्रथ ने लात मारी थी।
इस लेख में हम इन तीनों भ्रान्तियों पर विचार करेंगे कि लोक प्रचलित कथाएँ क्या हैं और वास्तविक रूप में महाभारत में किस प्रकार इन घटनाओं का वर्णन किया गया है? सबसे पहले हम इस बात को लेते हैं कि अभिमन्यु ने युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह तोड़ने का प्रस्ताव स्वयं ही अपने ज्येष्ठ पिताश्री धर्मराज युधिष्ठिर के समक्ष रखा था या नहीं।
लोक प्रचलित कथा- इस संबंध में लोक प्रचलित कथा है कि जिस दिन चक्रव्यूह रचा गया, उस दिन कौरव सेना के सेनापति गुरु द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने मिलकर एक योजना के अंतर्गत अर्जुन को दूर एक और युद्ध में उलझा दिया था। यह बात तो अपने आप में सही है। कहा जाता है कि जब अर्जुन उस युद्ध के लिए चले गए तो धर्मराज युधिष्ठिर और उनके भाइयों को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचे गए चक्रव्यूह की सूचना प्राप्त हुई। उसके पश्चात् पांडवों को चिंता हुई और उन्होंने अपनी सभा आहूत की। जिसमें वे सभी इस चिंता में डूबे बैठे थे कि आज गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचे गए चक्रव्यूह को हममें से कौन तोड़ेगा? क्योंकि अर्जुन के सिवाय इस चक्रव्यूह को तोड़ने की विद्या पांडव पक्ष में कोई नहीं जानता।
इस समय के बारे में यह भी भ्रान्ति है कि जब यह लोग इस प्रकार चिंता मग्न बैठे थे तब बालक अभिमन्यु उनके बीच आया और उसने उनके चिंता मग्न होने का कारण पूछा। यहाँ पर वीर बालक अभिमन्यु को कुछ इस प्रकार का दिखाया गया है जैसे उसका युद्ध से कोई संबंध नहीं था और आज वह पहली बार अपने ज्येष्ठ पिताश्री धर्मराज युधिष्ठिर से युद्ध विषयक बातचीत कर रहा था। जिसके बारे में यह भी कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे युद्ध से दूर रहने की बात कही थी क्योंकि वह अभी बालक है। जबकि सच यह नहीं है। अभिमन्यु उस समय एक वीर योद्धा था और पूर्णतः युवा था। उसने महाभारत के युद्ध में पहले दिन से भाग लिया था और दुर्योधन पक्ष के अनेकों वीर योद्धाओं को वीरगति प्राप्त कराई थी।
जब बालक वीर अभिमन्यु अपने ज्येष्ठ पिताश्री धर्मराज युधिष्ठिर व उनके अन्य भाइयों की चिंता का कारण पूछता है तो वे लोग उसे बताते हैं कि हम आज गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचे गए चक्रव्यूह की सूचना पाकर व्यथित हैं, क्योंकि हममें से कोई भी उसे तोड़ नहीं पाएगा, जबकि इस चक्रव्यूह को तोड़ने की विद्या जानने वाला अर्जुन हमसे बहुत दूर है। ऐसे में हमारे लिए आज विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। जिससे बाहर निकलने का हमें कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा है।
धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा इस प्रकार की चिंता व्यक्त करने पर वीर अभिमन्यु उनसे कहता है कि वह चिंता न करें, क्योंकि वह इस चक्रव्यूह को तोड़ने की विद्या जानता है। हाँ, चक्रव्यूह से बाहर निकलना उसे नहीं आता। इस पर धर्मराज स्वयं आश्चर्यचकित रह जाते हैं और उससे पूछते हैं कि उसने यह विद्या कब सीख ली? इस पर बालक अभिमन्यु उन्हें बताता है कि उसने यह विद्या अपनी माता के गर्भ में ही सीख ली थी। वह बताता है कि जब वह गर्भ में था तो एक दिन उसके पिता चक्रव्यूह तोड़ने की विधि माता सुभद्रा को बता रहे थे, जिसे वह भी बड़े ध्यानपूर्वक सुन रहा था। जिसे सुनते- सुनते अंत में माता सुभद्रा को नींद आ गई, जिससे चक्रव्यूह में प्रवेश कर अंतिम द्वार तक पहुँचने की विद्या तो वह जान गया, परंतु जिस समय चक्रव्यूह तोड़कर बाहर निकलने का प्रसंग आया उस समय माता सुभद्रा को नींद आ जाने के कारण वह उस प्रसंग को सुनने से वंचित रह गया। इसलिए वह चक्रव्यूह से बाहर निकलने की विद्या नहीं जानता। उसकी बात पर विश्वास करते हुए तब सभी पांडवों ने उसे इस बात का विश्वास दिलाया कि वह निश्चिंत रहें, क्योंकि हम सब उसके पीछे- पीछे चलते रहेंगे और चक्रव्यूह के किसी भी द्वार को बंद नहीं होने देंगे।
महाभारत की साक्षी क्या कहती है?
महाभारत के द्रोण पर्व के छठे अध्याय में चक्रव्यूह रचना, अभिमन्यु के पराक्रम और उसके वध की घटना का उल्लेख किया गया है। वहाँ पर गुरु द्रोणाचार्य दुर्योधन से वार्तालाप करते हुए कहते हैं कि *"राजन! आज मैं उस व्यूह का निर्माण करूँगा जिसे देवता भी नहीं तोड़ सकते, परंतु किसी उपाय से अर्जुन को यहाँ से दूर हटा दो।"*
“युद्ध के संबंध में ऐसी कोई बात नहीं है जो अर्जुन के लिए अज्ञात अथवा असाध्य हो। उन्होंने इधर-उधर से युद्ध विषयक संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।”
द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर दुर्योधन के संकेत और आदेश पर अर्जुन को संशप्तकगणों ने दक्षिण दिशा में जाकर युद्ध के लिए ललकारा। वहाँ अर्जुन का शत्रु के साथ ऐसा घोर संग्राम हुआ जैसा दूसरा कोई कहीं न तो देखा गया है और न सुना ही गया है। इधर द्रोणाचार्य ने जिस चक्रव्यूह का निर्माण किया था उसमें इंद्र के समान पराक्रम प्रकट करने वाले समस्त राजाओं का समावेश कर रखा था।”
“द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित उस दुर्धर्ष सेना (चक्रव्यूह) का भीमसेन आदि कुंती पुत्रों ने डटकर सामना किया।”
संजय धृतराष्ट्र को इस संबंध में आगे बताते हुए कहते हैं कि "परंतु राजन ! आचार्य द्रोण के धनुष से छूटे हुए बाणों से अत्यंत पीड़ित होकर पांडव वीर उनके सामने ठहर नहीं सके।"
"क्रोध में भरे हुए उन्हीं द्रोणाचार्य को आते देख राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोकने के उपाय पर बारंबार विचार किया।"
“इस समय द्रोणाचार्य का सामना करना दूसरे के लिए असंभव जानकर राजा युधिष्ठिर ने वह दुःसाहस एवं महान् भार सुभद्राकुमार अभिमन्यु पर डाल दिया।”
शत्रु संहारक वीर अभिमन्यु से युधिष्ठिर ने अपनी बात इस प्रकार कही :- “तात ! संशप्तकों के साथ युद्ध करके लौटने पर अर्जुन जिस प्रकार हम लोगों की निंदा ना करें अर्थात् हमें किसी प्रकार असमर्थ न समझे, वैसा कार्य करो। हम लोग तो किसी भी प्रकार चक्रव्यूह के भेदन की प्रक्रिया को नहीं जानते हैं।” “महाबाहो ! तुम, अर्जुन, श्री कृष्ण अथवा प्रद्युम्न-यह चार पुरुष ही चक्रव्यूह का भेदन कर सकते हैं। (धर्मराज युधिष्ठिर के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि वे स्वयं और सभी पांडव इस बात को पहले से ही जानते थे कि चक्रव्यूह को तोड़ने की विद्या में उनके पक्ष में से कौन- कौन योद्धा पारंगत थे) पाँचवाँ कोई योद्धा इस कार्य के योग्य नहीं है।”
“तात अभिमन्यु ! तुम्हारे पिता और मामा के पक्ष के समस्त योद्धा और सभी सैनिक तुमसे याचना कर रहे हैं, तुम्हीं इन्हें वर देने के योग्य हो।”
साक्षी से क्या निष्कर्ष निकलता है?
मूल महाभारत में दिए गए इस प्रसंग से हमें पता चलता है कि महाराज युधिष्ठिर और उनके अन्य सभी भाई युद्ध क्षेत्र में खड़े होकर ही तत्काल यह निर्णय ले रहे थे कि अब इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए अभिमन्यु से आग्रह किया जाए। इसके लिए वह किसी राज भवन या अपने शिविर में बैठकर बैठक नहीं कर रहे थे। उन्होंने स्वयं युद्ध के क्षेत्र में खड़े होकर अभिमन्यु के सामने अपनी मनःस्थिति प्रकट की और अभिमन्यु से याचना की कि तुम ही हम सबको इस समय चक्रव्यूह से बचा सकते हो।
इससे यह भी पता चलता है कि युद्ध क्षेत्र में अभिमन्यु पहले से ही विद्यमान था और प्रत्येक दिन की भाँति आज भी वह कौरव सेना पर भारी होकर युद्ध कर रहा था। यदि वह युद्ध भूमि में नहीं होता तो निश्चय ही यहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर के विषय में ऐसा कुछ ना कुछ उल्लेख किया जाता कि चक्रव्यूह की रचना हुई देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अभिमन्यु को घर से बुलवाया था।
प्रचलित मिथ्या और भ्रामक कथानकों में कुछ इस प्रकार दिखाया जाता है कि अभिमन्यु स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर और उनके भाइयों के पास चलकर आया। जबकि इस मूल प्रसंग से पता चलता है कि युद्ध क्षेत्र में स्वयं महाराज युधिष्ठिर अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के पास पहुँचे और उनसे चक्रव्यूह तोड़ने में पांडव पक्ष का नेतृत्व करने का आग्रह किया। यही सच है। अपने ज्येष्ठ पिता धर्मराज युधिष्ठिर के इस प्रकार किए गए विनम्र और आग्रहपूर्ण कथन पर वीर अभिमन्यु ने अपनी ओर से कहा कि- "महाराज! मैं अपने पितृ वर्ग की विजय की अभिलाषा से युद्ध क्षेत्र में द्रोणाचार्य की अत्यंत भयंकर, सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ सेना में शीघ्र ही प्रवेश करता हूँ।"
“पिताजी ने मुझे चक्रव्यूह के भेदन की विधि तो बताई है, परंतु किसी आपत्ति में पड़ जाने पर मैं उस व्यूह से बाहर नहीं निकल सकता।”
महाभारत के उपरोक्त द्रोण पर्व में आए इस प्रसंग से यह स्पष्ट हो जाता है कि वीर अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान अपनी माता सुभद्रा के गर्भ में ना होकर पिता अर्जुन के द्वारा हुआ था।
जब अभिमन्यु ने चक्रव्यूह से बाहर निकलने में नी असमर्थता बताई तो इस पर धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा कि "योद्धाओं में श्रेष्ठ वीर! तुम्हीं व्यूहका भेदन करो तथा हमारे लिए द्वारा बना दो "
“तात ! फिर तुम जिस मार्ग से जाओगे उसी के द्वारा ह म भी तुम्हारे पीछे- पीछे चलेंगे।”
“तात ! हम लोग युद्ध भूमि में तुम्हें अर्जुन के समान मानते हैं। हम अपना ध्यान तुम्हारी ही ओर रखकर सब ओर से तुम्हारी रक्षा करते हुए तुम्हारे साथ ही रहेंगे।”
संजय इस घटना का वर्णन करते हुए धृतराष्ट्र को ब ताते हैं कि “हे भारत ! बुद्धिमान युधिष्ठिर द्वारा पूर्वोक्त वचन सुनकर सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने अपने सारथी को द्रोणाचार्य की सेना की चलने का आदेश दिया।”
क्रमश: