(१४ सितम्बर हिन्दी-दिवस पर विशेष)
– आचार्य राहुलदेवः
वैसे तो अपनी मातृभाषा, अपनी राजभाषा और अपनी राष्ट्रभाषा से सबको लगाव और स्वाभिमान होता है। परन्तु भारत जैसा विरला देश भी है इस धरा पर जो वर्तमान समय में इसका पर्याय बना हुआ है। जिसकी अभी तक कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं है। भारत का निवासी न तो अपनी मातृभाषा को पढ रहा है न राजभाषा को और जब तक वह अपनी मातृभाषा या राजभाषा (राष्ट्रभाषा) को पढेगा नहीं तब तक वह राष्ट्र संवाद और एकता से कोसो दूर रहेगा। मुझे समझ में नहीं आता “अनेकता में एकता” जैसा मूर्खता पूर्ण नारा आखिर क्यों दिया गया? यदि ऐकता है तो अनेकता क्यों कहलाये और अनेकता है तो ऐकता कैसे? बिना एक भाषा के एकता कैसी? जिस देश की एक राष्ट्र भाषा निश्चित न हो वह देश एक कैसा? और उसकी एकता कैसी? उधार की भाषा से पूरी की पूरी न्यायपालिका चलाते हो और कहते हो हम एक हैं। उधार की भाषा से कार्य पालिका चलाते हो और कहते हो हम एक है। उधार का संविधान, नकलची प्रशासन व्यवस्था, नकलची कानून व्यवस्था। नकलची पठन-पाठन व्यवस्था, नकलची वेशभूषा, नकलची खानपान, नकलची रहन-सहन, नकलची चिकित्सा।
नकल करके भी आप थोड़ा बहुत आगे जा सकते हो पर कहते हैं ना “नकल करने के लिये भी अकल की जरुरत होती है”। पर भारत के पास न अकल है, न अकल आ पा रही है। क्योंकि अकल तो अपनी मातृभाषा में ही आती है और उसे आप पढते नहीं हैं। इजराईल ने निश्चय कर लिया कि वह हरहाल में ही हिब्रु पढेगा बस उसे अकल आ गई, चीन हमसे पीछे स्वतन्त्र हुआ है पर उसने निश्चित किया की वह चीनी ही पढेगा अकल आ गई, ऐसे ही जापान जापनीज पढता है और टेक्नोलोजी में सबसे आगे है फिर भारतीयों के मन में यह किसने भर दिया कि टेक्नोलोजी का मतलब सिर्फ अंग्रेज़ी है। बस यहीं मार खा गये। आज जर्मनी जर्मन पढ रहा है। स्पेन स्पेनिश पढ रहा है। इंग्लैंड और अमेरिका अंग्रेजी पढ रहें है। फ्रांस फ्रांसीसी पढ रहा है। इसलिए ये सब हमसे तकनीक, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ, सुरक्षा (डिफेन्स) आटोमोबाईल्स हर क्षेत्र (सेक्टर) में आगे हैं।
बुद्धि का समुचित विकास न होने का सबसे बडा कारण है भाषाई कुंठा। बालक घर में अलग भाषा बोलता है और स्कूल में उसे अलग भाषा पढाई जाती है। जो कि न उसके बगल वाले प्रान्त की भाषा है और न राष्ट्र की भाषा है। बस इससे वह क्लिष्ट मानकर कुंठित हो जाता है।जिन उच्च परिवारों में अंग्रेजी बोलने का रिवाज है उनके बच्चे तो अंग्रेजी बोल लेते है लिख भी लेते है। परन्तु जिन घरों में बोलचाल, मातृभाषा में होता है और स्कूल में जाकर अंग्रेजी पढते हैं। ऐसे ८०% भारत के विद्यार्थियों को बी.ए करने के बाद भी अंग्रेजी में आवेदन तक करना नहीं आता, धारा प्रवाह बोलना तो बहुत दूर की बात है। क्या लाभ ऐसी भाषा पढने का? जिसमें उसका मानसिक विकास नहीं हो सकता। बुद्धि खुल नहीं पाती। अध्यापक क्या पढा रहा है उसके कुछ पल्ले ही नहीं पढता। यदि व्यक्ति अपनी मातृभाषा में अपनी प्राकृतिक भाषा में चिन्तन करता है तभी वह मौलिक चिन्तन करता है। वह ठीक खोज करता है अनुसंधान करता है बडे बडे आविष्कार होते है। गहन चिन्तन (थ्योरी) बनती है या क्रियान्वयन (प्रेक्टिकल) रचना बन पाती है। आप किस देश का उदाहरण देंगे? जिसने उधार की भाषा से उन्नति की हो? आज हमारा देश भाषा पर दूसरों पर निर्भर होने के कारण ही सब क्षेत्रों में दूसरों पर निर्भर है। यदि उसे आत्मनिर्भर बनना है तो उसे सबसे पहले भाषा निर्भर बनना होगा।
भारत वासियों को यह समझना होगा कि हिन्दी भारत के अन्य भाषाओं की शत्रु नहीं हैं जब अंग्रेजी शत्रु नहीं हुई तो हिन्दी कैसे? भारत का हरक्षेत्र का भाषावासी अपनी मातृभाषा बोलते हुये उसमें अंग्रेजी जरुर घुसाता है। उसके पास उसकी भाषा के शब्द होने के बाद भी। क्योंकि उसे ऐसा लगता है ऐसा करके वह आधुनिक, सभ्य और शिक्षित कहलायेगा। जब आपके सभी भाषाओं में अंग्रेजी घुस गई तब आपको तकलीफ न हुई। परन्तु हिन्दी आ जाने से विनाश हो जायेगा? हिन्दी का विरोध करते करते आप इतने अंग्रेजी प्रिय हो गये कि आपने अपनी ही भारतीय मातृभाषाओं की जडे़ खोद दी। आपको पता भी नहीं चला। यदि आपने वह सम्मान हिन्दी या संस्कृत को दिया होता तो। अब भारत की अन्य भाषाओं पर भी संकट ना आया होता क्योंकि संस्कृत हिंदी और भारतीय अन्य भाषाएं सभी एक बृहत भाषा परिवार की ही बहने हैं और इन सब की माता संस्कृत है।
परन्तु आपने मानसिक कुंठा और भारतीय संस्कृति के प्रति द्वेष को भाषा से जोड़ दिया। और भारत के अन्य भाषाओं को हिन्दी का प्रतिद्वन्दी बना दिया। आप लोगों को लगा कि इससे हमारी मातृभाषा खतम हो जायेगी। दूसरे क्षेत्र के लोगों का वर्चस्व हम पर हो जायेगा। यदि यही डर था तो यही व्यवहार अंग्रेजी के साथ क्यों न रखा? यह तो यही बात हो गई मैं दूसरों से तो जूता भी खा लूंगा पर अपनो की बात भी न सुनुँगा।
स्वतन्त्रता के दो वर्ष बाद १४ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा में मात्र एक मत के बहुमत से हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया था। परन्तु क्या कारण है कि राजभाषा को इन ७३ वर्षों में हम राष्ट्रभाषा बना न सके? हिन्दी भाषा जो भारतीय भाषाओं में सबसे योग्य है। आखिर हम इसको यह सम्मान क्यों नहीं दे सकते? क्या हिन्दी में वह काबिलियत नहीं है? या वह हकदार नहीं है। या मात्र कुंठा के कारण हम इसका विरोध करते रहेंगे? मुझे यह बात हास्यास्पद लगती है की हिंदी का विरोध करने वाले अधिकतर भारत के नेता अंग्रेजी भाषा में भाषण करते हुए हिंदी का विरोध करते हैं यह कैसा विरोध हुआ? परन्तु ध्यान रखना भाषा के प्रति कुंठा से हमें राष्ट्रीय हानि होती है। ऐसी हानि जिसे युगों में भी भरा नहीं जा सकता। जिसे भारत आज भोग रहा है।
आज यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया जाये तो किसी भी भारतीय भाषा की कोई किंचित मात्र भी हानि नहीं होगी वरन् वे और फुलेंगी फलेंगी। मैं भारत के लोगों से पूछना चाहता हूं कि जब भारत में पढ़कर ९०% छात्र भारत में ही नौकरी या काम करेंगे और उस काम को करते समय भी उनका माध्यम मातृभाषा या राजभाषा हिंदी ही होगा तो फिर स्कूल में पढ़ने की भाषा का माध्यम अंग्रेजी क्यों? एक इंजीनियर अंग्रेजी में इंजीनियर करके जब वह भारत में सड़क ओवरब्रिज आदि बनाता है तो वहां पर उसकी भाषा का माध्यम मातृभाषा या हिंदी ही होती है तो फिर वह अंग्रेजी में ही इंजीनियरिंग क्यों करता है। एक भारत में चिकित्सा करने वाला चिकित्सक अपने मरीजों के साथ मातृभाषा में यह हिंदी में ही बात करता है तो फिर वह डॉक्टर की पढ़ाई अंग्रेजी में क्यों करता है? हां यदि वह विदेश में कहीं जाकर नौकरी करना हो तो उसे वहां की भाषा में डॉक्टरी करनी चाहिए या वहाँ की भाषा सीख लेनी चाहिए। इसलिए मैं भारत वासियों से आह्वान करता हूं कि हमें हिंदी भाषा के प्रति बनाए हुए दुराग्रह से बाहर निकलना चाहिए और और भारत की सभी मातृ भाषाओं का सम्मान करना चाहिए जो अधिकार भारतीयों ने आजादी के ७५ वर्षों में अंग्रेजी को दिए हैं। वह अधिकार हिंदी या संस्कृत को दिए होते तो भारत की दशा और दिशा और ही कुछ होती। फिर भी “देर आए दुरुस्त आए” जब भी घर को लौटना पड़े घर को लौटना अच्छा ही होता है। इसलिए हमें भी अपनी भाषा की ओर लौटना चाहिए और उसका सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा ही है। हमारा शिक्षा का माध्यम हिंदी या अपनी मातृभाषा होना चाहिए यदि ऐसा हो तो भारत किस गति से उन्नति करेगा उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
१० जनवरी सन् १९७५ को नागपुर में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। उस दिन से १० जनवरी को “विश्वहिंदी” दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। इस प्रकार देखा जाए तो भारत में १४ सितंबर और १० जनवरी वर्ष में 2 दिन हिंदी दिवस और विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। बस लज्जा जनक बात यह है कि अपने देश में अपनी ही भाषा को अपनी अधिकारिक भाषा बनाने में हम पिछले ७३ सालों से उसी भाषा दिवस को मनाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। हिंदुस्तान में ही हिंदी का सम्मान ना हो तो और कहां होगा? आर्यावर्त में आर्य भाषा का सम्मान ना हो और कहां होगा? होना तो यह चाहिए था कि भारत की भाषाओं की महिमा सुनकर अन्य देश वाले हमारे भाषा दिवस को गर्व से मनाते। तब हम गर्व से कह सकते थे कि –
“हिंदी है हम वतन है हिंदुस्तान हमारा”।
हम में से बहुत से ऐसे लोग है, जो इंग्लिश ना आने और हिंदी बोलने के कारण खुद को दूसरों से कमतर मानते हैं। यहीं नहीं कुछ तो ऐसे भी है जो हिंदी बोलने पर शर्मिंदगी महसूस करते है और इसे अपनी नाकामियाबी की वजह मानते हैं। परन्तु उन लोगों से मैं कहना चाहता हूँ। आज भी देश और दुनिया में ऐसे कई लोग है, जो हिंदी से ना केवल प्रेम करते हैं, बल्कि इस पर गर्व भी करते हैं। उन्हीं लोगों के प्यार और विश्वास के कारण आज हिंदी दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई है। आज दुनिया भर में बोली जाने वाली सभी भाषाओं में हिंदी तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। दुनिया में ६१.५ करोड़ लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर जारी वर्ल्ड लैंग्वेज डेटाबेस के २२वें संस्करण इथोनोलॉज के मुताबिक दुनियाभर की २० सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे स्थान पर है। इथोनोलॉज में बताया गया कि दुनिया की २० सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में ६ भारतीय भाषाएं शामिल हैं। इनमें हिंदी के बाद बंगाली भाषा सातवें पायदान पर है, जिसे २६.५ करोड़ लोग बोलते है। इसके अलावा १७ करोड़ लोगों के साथ ११वें नंबर पर उर्दू, ९.५ करोड़ लोगों के साथ १५वें स्थान पर मराठी, ९.३ करोड़ के साथ १६वें नंबर पर तेलगू और ८.१ करोड़ लोगों के साथ तमिल भाषा १९वें पायदान पर है। इसलिए हम भारतीयों को अपनी भारतीय भाषाओं पर गर्व होना चाहिये।
आइये हम हिन्दी को “राष्ट्रभाषा” बनाते हैं। जिस पर हमें गर्व होना चाहिए। आप सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनायें।
आचार्य राहुलदेवः
आर्यसमाज बडा़बाजार
कोलकाता
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