महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में चुनौतियों से निपटना आवश्यक

सुखराम
जयपुर, राजस्थान

देश की मूलभूत आवश्यकताओं और बुनियादी ढांचों में अन्य विषयों के साथ साथ स्वास्थ्य का मुद्दा भी सर्वोपरि रहा है. विशेषकर बच्चों, महिलाओं और किशोरियों का स्वास्थ्य सेवाओं तक पूरी तरह से पहुंच की बात की जाए तो आज भी यह अपेक्षाकृत कम नजर आता है. ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी स्लम बस्तियों में रहने वाली महिलाओं और किशोरियों में यह दूरी बहुत अधिक पाई जाती है. हालांकि सरकार की ओर से सभी तक स्वास्थ्य सुविधाओं की समान पहुंच बनाने के लिए कई स्तर पर योजनाएं और कार्यक्रम चलाए जाते हैं. लेकिन इसके बावजूद कई सामाजिक और अन्य बाधाओं के कारण महिलाओं और किशोरियों की इन क्षेत्रों तक पहुंच पूरी तरह से संभव नहीं हो पाती है. ऐसा ही एक इलाका राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित स्लम बस्ती बाबा रामदेव नगर है. जहां रहने वाली महिलाओं और किशोरियों का न तो स्वास्थ्य कार्ड बना हुआ है और न ही अस्पताल में उन्हें स्वास्थ्य की कोई सुविधा उपलब्ध हो पाती है. वहीं बच्चों को भी समय पर टीका उपलब्ध नहीं हो पाता है.

बस्ती की रहने वाली 35 वर्षीय शारदा लुहार कहती हैं कि “मैं 8 वर्षों से यहां रह रही हूं. यहां रहते हुए मैंने दो बच्चों को जन्म दिया है. लेकिन किसी प्रकार का दस्तावेज़ नहीं होने के कारण सरकारी अस्पताल में मुझे एडमिट नहीं किया गया. जिसकी वजह से मेरी दोनों डिलेवरी घर पर ही हुई है. गर्भावस्था के दौरान भी मुझे स्वास्थ्य संबंधी कोई सुविधा नहीं मिल सकी है.” वह कहती है कि हम दैनिक मज़दूर हैं. रोज़ाना मज़दूरी करने निकल जाते हैं. हमें दस्तावेज़ बनाने की पूरी जानकारी भी नहीं है. इसलिए आज तक हमारे पास कोई कागज़ नहीं बना है. जबकि सरकारी अस्पताल जाते हैं तो वहां दस्तावेज़ या प्रमाण पत्र मांगे जाते हैं. इसीलिए इलाज ही नहीं बल्कि प्रसव भी घर पर ही करवाने पड़ते हैं.

दस्तावेज़ नहीं होने पर गर्भावस्था के दौरान या बच्चे के जन्म के बाद उनका टीकाकरण कैसे करवाते हैं? इस प्रश्न का जवाब देते हुए शारदा कहती है कि ‘न तो मुझे कभी कोई टीका लगा है और न ही जन्म के बाद बच्चों को कोई टीका लगा है.’ वह कहती हैं कि ‘मेरे बच्चे अक्सर बीमार रहते हैं. सरकारी अस्पताल आधार कार्ड, आयुष्मान कार्ड या अन्य स्वास्थ्य कार्ड दिखाने को कहते हैं. जो हमारे पास नहीं हैं. जबकि आमदनी इतनी नहीं है कि किसी निजी क्लिनिक में दिखाया जाए. शारदा की पड़ोस में रहने वाली 28 वर्षीय पूजा राणा कहती हैं कि ‘उनके परिवार में भी किसी का कोई दस्तावेज़ नहीं बना है. इसलिए बस्ती में आने वाले डॉक्टर को ही दिखा कर दवा ले लेते हैं.’ वह डॉक्टर सरकारी है या निजी रूप से बस्ती वालों को देखने आता है, इसकी जानकारी किसी को नहीं है.

करीब तीन वर्ष पहले मज़दूरी की तलाश में झारखंड के पाकुड़ जिला के एक सुदूर गांव अतागोली से जयपुर के स्लम बस्ती में रहने आये 41 वर्षीय रिज़वान का परिवार भी स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठाने से वंचित है. खाना बना रही उनकी 36 वर्षीय पत्नी शकीला के पास डेढ़ वर्षीय बेटा इम्तेयाज़ बैठा था. जिसके पूरे शरीर में छोटे बड़े दाने नज़र आ रहे थे. जो शायद मीजल्स (खसरा रोग) से प्रभावित था. शकीला बताती हैं कि उसे आज तक किसी प्रकार का कोई टीका नहीं लगा है. गर्भावस्था के दौरान उनका भी किसी प्रकार का कोई टीकाकरण नहीं हुआ था क्योंकि उनके परिवार में भी किसी का कोई स्वास्थ्य कार्ड नहीं बना है. शकीला कहती हैं कि हफ्ते में तीन दिन एक डॉक्टर बाबा रामदेव नगर आते हैं जो 20 रुपए प्रति मरीज़ देखते हैं. बस्ती के सभी लोग उसी डॉक्टर को दिखाते हैं और उनके बताए अनुसार दवा खरीद कर खाते हैं. हालांकि इम्तेयाज़ को अभी तक उनकी बताई दवा असर नहीं कर रही है. वह कहती हैं कि निजी क्लिनिक में दिखाने पर बहुत पैसा लगता है.

उसी बस्ती की रहने वाली सात वर्षीय सायरा शारीरिक रूप से कुपोषित नज़र आ रही थी. उसकी मां जमीला बताती हैं कि जन्म के बाद उसे केवल एक बार टीका लगा था. जो निजी क्लिनिक में लगवाया था क्योंकि सरकारी अस्पताल में दस्तावेज़ नहीं होने के कारण वहां उसका टीका नहीं लगाया था. निजी क्लिनिक में टीकाकरण का बहुत पैसा लगता है. इसलिए दोबारा नहीं लगाया. नगर निगम ग्रेटर जयपुर के अंतर्गत आने वाले इस स्लम बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है. यहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों की बहुलता है जबकि कुछ ओबीसी परिवार भी यहां आबाद है. जिसमें लोहार, मिरासी, कचरा बीनने वाले, फ़कीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है. इस बस्ती में पीने का साफ़ पानी, शौचालय सहित कई बुनियादी सुविधाओं का अभाव है.

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ रिवीव्ज़ एंड रिसर्च इन सोशल साइंस में “महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन” में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के सहायक प्राध्यापक बी. एल. सोनेकर ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का ज़िक्र किया है. वह लिखते हैं कि आजादी के बाद से ही सरकार के समक्ष महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार एक महत्वपूर्ण चुनौती रही है. विशेषकर ग्रामीण महिलाओं की, जहां उचित चिकित्सा सुविधा पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हो पाती है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 48.4 प्रतिशत जनसंख्या महिलाएं हैं, जिसमें अधिकतर की मृत्यु बेहतर चिकित्सा सुविधा के अभाव के कारण होती है. चाहे वह प्रसव के दौरान हो या एनीमिया से ग्रसित अथवा अन्य कारणों से हो. हालांकि विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य के क्षेत्र में गंभीरता से ध्यान देने के कारण इसमें काफी प्रगति हुई है. यही कारण है कि जहां वर्ष 1947 में महिलाओं में जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी, वहीं अब यह बढ़कर 66 वर्ष पहुंच चुकी है.

वह लिखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है. जिनमें आर्थिक और वित्तीय संसाधनों की कमी प्रमुख है. यह कमी उन्हें स्वास्थ्य बीमा कवरेज के दायरे से दूर होने के कारण होता है. जो उनके आवश्यक दस्तावेज़ पूर्ण नहीं होने के कारण बन नहीं पाते हैं. इसके अतिरिक्त समाज में बेटियों की तुलना में बेटों को प्राथमिकता देना भी महिलाओं और किशोरियों को स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच से दूर बना देता है. इसके पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और पारंपरिक कारण हैं. लगभग ऐसी ही परिस्थितियां शहरी क्षेत्रों में आबाद स्लम बस्तियों की है. जहां बुनियादी सुविधाओं की कमी और अन्य कारकों के कारण महिलाओं और किशोरियों का स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है. यही चुनौती उनके स्वास्थ्य और पोषण की कमी को और अधिक जोखिम बना देता है. जिसे दूर करने की आवश्यकता है ताकि एक स्वस्थ और कुपोषित मुक्त समाज का निर्माण किया जा सके. (चरखा फीचर)

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