भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 403 (इतिहास की पड़ताल पुस्तक से… अध्याय -1 ) *दुर्योधन क्यों हारा?*

*’दुर्योधन’ और ‘युधिष्ठिर’ दोनों ही नामों में ‘युद्ध’ शब्द आता है। ‘दुर्योधन’ वह है जो बुरी तरह से युद्ध करता है अर्थात् जीवन के समर क्षेत्र में युद्ध जीतने के लिए नैतिक- अनैतिक किसी भी प्रकार के आचरण को करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। जबकि ‘युधिष्ठिर’ वह है जो युद्ध जैसी भयंकर परिस्थितियों के बीच भी स्थिर चित्त होकर रहता है और कभी भी अनुचित निर्णय नहीं लेता। वह अपने धर्म अर्थात् दिव्य कर्म को पहचानता है। वह उचित और अनुचित के बीच भेद कर सकता है, इसलिए उसकी विवेक शक्ति युद्ध जैसी परिस्थितियों के बीच में भी स्थिर होकर निर्णय लेने में सक्षम होती है। जीवन के समर क्षेत्र में समाधिस्थ होकर निर्णय लेना हर किसी के लिए संभव नहीं है। समाधि का अभिप्राय है बुद्धि का स्थिर हो जाना।

इसी को परम गति कहा गया है। कठोपनिषद का ऋषि कहता है कि –
यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु परमाम गतिम ।।

    भावार्थ है कि जब हमारी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ मन के साथ संयुक्त होकर एक स्थान पर रुक जाती हैं अर्थात् अपनी चेष्टाओं को शांत कर लेती हैं और बुद्धि भी चेष्टा रहित हो जाती है तब उस अवस्था को परम गति अर्थात् परमात्मस्वरूप में अवस्थिति का नाम दिया जाता है। 

 धर्मराज युधिष्ठिर इसी परम गति को प्राप्त कर युद्ध के क्षेत्र में भी परमात्मस्वरूप में अवस्थित रहे। यदि हम महाभारत के दुर्योधन और युधिष्ठिर के बारे में विचार करें कि इस युद्ध में दुर्योधन क्यों हारा और युधिष्ठिर क्यों जीत गया तो हमें मानव स्वभाव के गंभीर तात्विक दर्शन पर विचार करना होगा।

दुर्योधन असुर वृत्तियों का शिकार है जबकि युधिष्ठिर सुर शक्तियों का संवाहक है। एक तत्कालीन समाज के लिए भस्मासुर है तो दूसरा भूसुर है।
दुर्योधन से भीष्म पितामह, महात्मा विदुर, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, उसकी माता गांधारी सहित कई लोगों ने जीवन में कितने ही स्थानों पर यह कहा कि तुम राष्ट्र के लिए, भारतवर्ष के लिए, हस्तिनापुर के लिए जीना सीखो। इस पर उसका जवाब अक्सर यही आया कि राष्ट्र कुछ नहीं होता, जो भी हूँ मैं हूँ और मैं ही राष्ट्र हूँ। इसलिए वह युद्ध क्षेत्र में भी राष्ट्र के लिए न लड़कर अपने लिए लड़ रहा था। जबकि युधिष्ठिर राष्ट्र को अपने आप से अलग मानता रहा। धर्मराज जो भी कुछ करते थे उसे राष्ट्र के लिए समर्पित करते थे। ‘राष्ट्र प्रथम’ उनके जीवन का आदर्श था। यही उनकी महानता थी।
बस यही मौलिक भेद है जो एक को हरा गया और दूसरे को जिता गया। युग-युग में जिस-जिसने ‘दुर्योधन वृत्ति’ का सहारा (अपने भौतिक संसाधनों, बाहुबल और सैन्य बल पर घमंड करते हुए) लेकर रण क्षेत्र सजाए हैं उसी की हार हुई है, जबकि जिसने ‘युधिष्ठिर वृत्ति’ को अपनाकर संसार की उन्नति और प्रगति के लिए कार्य किया है, वह जीता है। यहाँ पर यह भ्रान्ति उत्पन्न हो सकती है कि इस्लाम और ईसाइयत ने अपने प्रचार-प्रसार और संसार को अपने झंडे तले लाने के लिए अनेकों युद्ध किये हैं और उनमें वह जीते भी हैं, इसलिए यह कहना कि जो युधिष्ठिर वृत्ति को अपनाता है वही जीतता है, सर्वथा गलत है। ‘दुर्योधन वृत्ति’ को अपनाने वाले भी जीतते रहे हैं और जीत रहे हैं।

इस्लाम और ईसाइयत की दुर्योधन वृत्ति

इस संदर्भ में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इस्लाम और ईसाइयत ने अपने जन्म काल से लेकर अब तक के इतिहास में जो खूनखराबे का क्रम आरंभ किया था, वह आज भी जारी है। वह युद्ध के सहारे अथवा युद्ध के माध्यम से अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं अर्थात् संपूर्ण विश्व को अपने झंडे चले जाना चाहते हैं। जिसमें वह आज तक सफल नहीं हो पाए हैं, आगे भी नहीं होंगे। इसका अभिप्राय है कि उनका युद्ध अभी जारी है। अभी किसी की अंतिम हार जीत ना तो वह स्वयं मान रहे हैं और ना ही हमको माननी चाहिए। इसका मतलब सुरी और आसुरी वृत्तियों में संघर्ष आज भी जारी है। इनकी मूर्खतापूर्ण और 'दुर्योधन वृत्ति' भरी नीतियों के चलते संसार दो विश्व युद्ध देख चुका है और तीसरे की तैयारी कर रहा है। जब यह हँसती खेलती मानव सभ्यता रक्त से लाल होकर अपनी समाप्ति की ओर होगी अथवा कल्पना अतीत क्षति उठा चुकी होगी और एक विश्व धर्म अर्थात् वैदिक धर्म का डंका संसार में बजेगा तब इन दैत्य और देवताओं का संघर्ष समाप्त होगा। इसलिए युद्ध की समाप्ति से पहले युद्ध में कौन विजयी रहा और कौन पराजित हुआ ?- यह घोषित करना उचित नहीं है। अंतिम विजय सत्य की होना निश्चित है। सत्य के विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वह परेशान किया जा सकता है पराजित नहीं। अभी सत्य को परेशान किया जा रहा है। अभी सत्यार्थ की और न जाकर लोग शस्वार्थ की ओर जा रहे हैं और अपनी भौतिक शस्त्रों के भंडार को देखकर इस भ्रम में हैं कि संभवतः हम ही जीत जाएंगे। वास्तव में दुर्योधन को भी अठारह अक्षौहिणी सेना में से 11 अक्षौहिणी सेना अपने साथ होने की भ्रान्ति थी। वह भी सत्यार्थ की ओर न झाँककर शस्त्रार्थ की ओर देख रहा था और अंतिम हत्र उसका यह हुआ कि वह युद्ध हार गया।

दुर्योधन की सेना के प्रत्येक सेनापत्ति के बारे में यह बात कही जा सकती है कि वे सारे के सारे किसी न किसी विवशता के कारण उसके साथ मिलकर पांडवों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य जैसे सभी सेनापतियों की अंतरात्मा यह बोलती थी कि अंतिम जीत युधिष्ठिर की होगी। ये सारे के सारे पूर्ण मनोयोग से युद्ध में उतरे भी नहीं थे। क्योंकि वह धर्म शक्ति और अनीति के पाखंड में अंतर करना जानते थे। उनकी अंतरात्मा उन्हें रोकती व टोकती थी कि अनीति को प्रोत्साहित मत करो।

कौरव पक्ष के सेनापति और पांडव

 यही कारण था कि भीष्म पितामह ने जहाँ पहले दिन ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह कौरव सेना के सेनापति तो रह सकते हैं लेकिन वे किसी भी पांडव को मारेंगे नहीं, वहीं उनके बाद सेनापति बने द्रोणाचार्य के सामने जब दुर्योधन ने यह प्रस्ताव रखा कि यदि वह धर्मराज युधिष्ठिर को जीवित बंदी बनाकर उसे सौंप दें तो यह युद्ध समाप्त हो सकता है। तब गुरु द्रोणाचार्य ने यह समझा था कि ऐसा करके दुर्योधन अपना पलड़ा भारी करके धर्मराज युधिष्ठिर को उसका इंद्रप्रस्थ लौटा देगा, इसीलिए उन्होंने दुर्योधन से यह वचन लिया कि यदि मैं ऐसा कर दूंगा तो वह धर्मराज युधिष्ठिर का वध तो नहीं करेगा?

  उसके ना कहने पर ही आचार्य को युद्ध में उतरने का आदेश उनकी अंतरात्मा ने दिया था। उन्होंने सोचा था कि इससे पांडवों की भी रक्षा हो जाएगी और इस दुर्योधन को भी अपना राज्य प्राप्त हो जाएगा। इसी कारण उन्होंने भी युधिष्ठिर को जीवित बन्दी बनाने के उपाय तो खोजे परंतु किसी पांडव को मारने की योजना नहीं बनाई।

 जब कर्ण सेनापति बना तो उसने भी केवल अर्जुन को तो अपना लक्ष्य बनाया पर किसी अन्य पांडव को क्षति नहीं पहुँचाई। यही बात शल्य के बारे में कही जा सकती है। इसलिए आधे मन से ये लोग युद्ध कर रहे थे। इसका कारण यह था कि वह सारे के सारे विद्वान थे। प्रारब्ध में उनका विश्वास था और कर्म की पवित्रता को भी वह जानते थे। इसलिए उनकी अंतरात्मा उन्हें यह बता रही थी कि तुम सत्य के और धर्म के साथ नहीं हो, इसलिए इस युद्ध में तुम्हारी पराजय निश्चित है।

दुर्योधन जानता था कि वह अधर्मी है

दुर्योधन के पास शारीरिक बल, सैन्यबल, बाहुबल, आत्मबल, मनोबल, पराक्रम बल, अध्यात्मबल, सामाजिक बल, आदि बलों में से सैन्यबल, शारीरिक बल और बाहुबल ही थे। इन्हीं के बल पर वह आत्मबल और मनोबल का झूठा ढोंग कर रहा था। उसके भीतर आत्मबल नहीं था। क्योंकि आत्मबल वहीं होता है, जहाँ सत्य और धर्म की उपासना होती है। उसने अपने अहंकार को ही अपना आत्मबल मान लिया था। ऐसा हर व्यक्ति के साथ अब भी होता है। उसने गुरु द्रोणाचार्य से एक बार कहा था कि :-

जानामि धर्मम न च मे प्रवृत्तिः
जानामि अधर्मम न च मे निवृत्ति ।।

अर्थात् वह जानता है कि धर्म क्या है? परंतु इच्छा होने के उपरांत भी वह धर्म में प्रवृत्त नहीं हो पाता और वह यह भी जानता है कि अधर्म क्या है? अनैतिकता क्या है? अनीति क्या है? परंतु वह उससे निवृत्त नहीं हो पाता अर्थात् उसे जानकर भी छोड़ नहीं पाता। जो व्यक्ति धर्म और अधर्म को जानकर भी नहीं मानता वही मूर्ख होता है। बस, यही मूर्खता दुर्योधन की पराजय का कारण बनी। आज भी जो शक्तियाँ या सीधे शब्दों में कहें कि देश के राजनीतिज्ञों में से जो व्यक्ति धर्म और अधर्म के बीच के अंतर को समझ कर भी अर्थात् देशभक्ति क्या है और देशद्रोह क्या है? इसको समझ कर भी देशद्रोही शक्तियों का साथ दे रहे हैं, उनकी पराजय निश्चित है। क्योंकि वह दुर्योधन वृत्ति का सहारा लेकर देश की जड़ें खोदने में लगे हुए हैं। इन्होंने अपने आप को राष्ट्र से ऊपर मान लिया है। ‘राष्ट्र प्रथम’ का युधिष्ठिर का संस्कार उनके भीतर से लुप्त हो चुका है, यह अधर्म की, अनीति की, पाखंड की, देश तोड़ने की राजनीति कर रहे हैं। इनका हश्र वही होगा जो दुर्योधन का हुआ था। ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध इस समय शंखनाद हो चुका है और युद्ध जारी हो चुका है। पापियों के संहार के लिए जनशक्ति को कृष्ण शक्ति बनकर देश की सामूहिक चेतना के साथ चेतनित होकर एकतानता का राग छेड़ना होगा जो कि इस समय छिड़ चुका है।

दुर्योधन असत्य का उपासक था

 दुर्योधन अनृत (Untruth) अर्थात् असत्य का उपासक था और युधिष्ठिर ऋत (Truth) अर्थात् सत्य का उपासक था। युधिष्ठिर अपने दिव्य कर्म अर्थात् ऐसे मानवोचित कार्यों में जीवन व्यतीत करता था जिनसे मानवता और प्राणिमात्र का कल्याण हो। उसका यह दिव्य कर्म ही उसका धर्म था और इसी को अपनाने से वह धर्मराज बना। जबकि दुर्योधन उन वृत्तियों में लगा रहा जो अनृतवाद को प्रोत्साहित करती हैं। 'सत्यमेव जयते नानृतं' की महान् परंपरा में विश्वास रखने वाले वैदिक राष्ट्र भारतवर्ष में अनृतवाद का कोई स्थान कभी नहीं रहा। आज जो लोग साममार्ग या वाममार्ग (उल्टा रास्ता) या 'खेला होबे' के अनृतवाद को अपना-अपना कर इस देश के 'राम मार्ग' को अवरुद्ध करना चाहते हैं उनकी यह भ्रान्ति निश्चय ही समाप्त होगी। उनकी पराजय भी निश्चित है। क्योंकि उनका चिंतन दूषित है। जिनका चिंतन दूषित होता है उन्हें किसी की युद्ध में निर्णायक जीत कभी प्राप्त नहीं हो सकती। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह देश दुर्योधन का देश नहीं है, यह देश तो युधिष्ठिर का देश है जो लोग 'दुर्योधनों' की उपासना करते हुए तुगलों (तुकों) मुगलों और ब्रिटिश एंपायर को इस देश का आदर्श बनाकर थोपने का प्रयास कर रहे हैं वह निश्चय ही अपने प्रयासों में असफल होंगे। क्योंकि अंत में दुर्योधन को हारना ही होता है।

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