मेरे मानस के राम : अध्याय , 54 – अग्नि परीक्षा और सीता जी
सीता जी ने उपस्थित महानुभावों के समक्ष अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए रामचंद्र जी से कहा कि जिस समय रावण ने मुझे पकड़ा था, उस समय उसने मेरा शरीर अवश्य स्पर्श किया था, परंतु तब मैं विवश थी। मेरी इच्छा से उसने मेरा शरीर नहीं छुआ था। इसमें मेरा कोई दोष नहीं था। यह तो भाग्यवश ही हुआ। मेरे अधीन तो मेरा अपना मन है । वह आप में ही लगा रहता है। जिसे कोई छू नहीं सकता। मेरा शरीर पराधीन था। उस अवस्था में परवशा मै क्या कर सकती थी ? इतने दिनों साथ रहने पर भी साथ ही साथ पालन और पोषण होने पर भी यदि आप मेरे भावों को नहीं जान पाए तो मैं सदा के लिए ही मार डाली गई। विवाह के समय तुमने मेरा जो हाथ पकड़ा था, उसका भी कोई प्रमाण नहीं माना और आपके प्रति मेरी भक्ति और मेरे शील की ओर से भी आपने अपना मुंह फेर लिया।
उस समय सीता जी अत्यंत व्यथित थीं। जबकि सारी सभा भी रामचंद्र जी के निर्णय को सुनकर सन्न रह गई।
सन्न सभा सब हो गई , सन्न हुए नरनार।
कैसी बातें कर रहे , सीता के भरतार।।
किसकी परीक्षा हो रही , लेने वाला कौन ?
सुनकर इस आदेश को , सब जन हो गए मौन।।
परीक्षा उसकी कीजिए , अधर्मी नर जो होय।
परदारा – परलक्ष्मी , कुल का हंता होय।।
सज्जन को मत मारिए, बहुत बुरा यह काम।
प्यार बांटो और करो, भली करे भगवान।।
सीता जी विचलित हुईं, आंसू बहे बन धार।
राम कहें ऐसे वचन , किया कभी ना विचार।।
सिया बोलीं राम से – नहीं थी यह उम्मीद।
मैं वैसी हूं नहीं , जैसी तुम्हें उम्मीद।।
नारी के बिन नर नहीं, नर बिन नारी नाय।
दोनों से ही घर चले, एक से शोभा नाय।।
गंवार स्त्री हूं नहीं , समझूं मैं निज धर्म।
मन मेरे आधीन है , करता है शुभ कर्म।।
अत्याचारी लंकेश की , जेल के दु:खड़ा याद।
अब तो मुझे सम्मान दो , क्यों करते बर्बाद।।
क्रोध के वशीभूत हो , समझ लिया मुझे नीच।
दंड मुझको दीजिए , तनिक नहीं भयभीत।।
ओच्छे मनुष्य करते सदा, नारी का अपमान।
पुरुषोत्तम नर आप हैं , क्यों करते अपमान।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है। )