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डॉ डी के गर्ग
भाग-3
देव पूजा क्या है और कैसे की जाती है ?
देवता दो प्रकार के होते है जिनकी पूजा को देव पूजा कहते है। ये है — १ चेतन देवता और २ जड़ देवता
चेतन देवता के अंतर्गत माता ,पिता और आचार्य, संत, अतिथि आदि आते है। इनकी पूजा कैसे करें ? मतलब इनको सम्मान देना, भोजन, जल आदि प्रदान करना चेतन देवता की पूजा है। भोजन, जल आदि मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है।
मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद ।
यह शतपथब्राह्मण का वचन है ।वस्तुत :जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवें तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है वह कुल धन्य! वह संतान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान हो। जितना माता से संतानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता संतानों पर प्रेम, और उनके हित चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं कर सकता। इसलिए( मातृमान् ) अर्थात् प्रशस्ता धार्मिक विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान् धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।
जड़ देवता कौन है ? ये देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथ्वी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं। इसी आधार पर प्रश्न है कि जड़ देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म करकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके? शतपथ ब्रह्मांड में लिखा है-
‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’
इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं।
तभी-‘ अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’(यजु 23/62) इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः… प्रजाः।- मनु. ३/७६
अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता में वर्णित है-
अन्नाद् भवन्ति…कर्मसमुद्भवः ।-गीता ३/१४
अर्थात् अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा। निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रुप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथ्वी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। गीता में इस तथ्य को कितने स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया है-
आईये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करे। आवश्यकता होने पर रुद्राक्ष का प्रयोग करे। यही सच्चे अर्थो में रुद्राभिषेक है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम, रूद्र भी है। अंधविश्वास से दूर रहना भी सच्ची ईश्वर पूजा का एक भाग है।स्पष्ट है की आपको देव ता ,देवघर मंदिर और देव पूजा का वास्तविक मतलब समझ आ गया होगा।
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