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पुस्तक समीक्षा

मेरा आजीवन कारावास-

मूल्य ₹500 ( डाक खर्च सहित)।
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मेरा आजीवन कारावास में उन्होंने जेल-जीवन की भीषण यातनाओं का विवरण दिया है। ब्रिटिश सरकार द्वारा दो-दो आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद अपनी मानसिक स्थिति, भारत की विभिन्न जेलों में भोगी गई यातनाओं, अंडमान भेजे जाने पर जहाज पर कैदियों की नारकीय स्थिति का जीवन्त वर्णन किया है। कालापानी पहुँचने पर सेलुलर जेल की विषम स्थितियों, वहाँ के जेलर बारी का कूरतम व्यवहार, छोटी-छोटी गलतियों पर दी जानेवाली अमानवीय शारीरिक यातनाएँ यथा-कोडे लगाना, बेंत से पिटाई करना, दंडी-बेड़ी लगाकर उलटा लटका देना आदि का वर्णन मन को उद्वेलित करदेनेवाला है। विषम परिस्थितियों में भी कैदियों में देशभक्ति और एकता की भावना कैसे भरी, अनपढ़ कैदियों को पढाने का अभियान कैसे चलाया, किस प्रकार दूसरे रचनात्मक कार्यो को जारी रखा तथा अपनी दृढ़ता और दूरदर्शिता से जेल के वातावरण को कैसे बदल डाला, कैसे उन्होंने अपनी खुफिया गतिविधियों चलाई आदि का सच्चा इतिहास वर्णित है। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक प्रसंग, जिनको पढ़कर पाठकउत्तेजित और रोमांचित हुए बिना न रहेंगे। विपरीत-से-विपरीत परिस्थिति में भी कुछ अच्छा करने की प्रेरणा प्राप्त करते हुए आप उनके प्रति कृतज्ञता से भर जाएंगे।


पुस्तक का एक अंश-
जब सावरकर जी को 50 वर्ष की सजा हुई और उनसे उनकी पत्नी मिलने आती है-

कार्यालय में आते ही मैंने देखा, सलाखों की खिड़की के पास मेरे बड़े साले साहब खड़े हैं। साथ में मेरी धर्मपत्नी । बंदीगृह के वेष में, कैदी के दुःखद स्वरूप में, पैरों में जकड़कर ठोंकी हुई भारी बेड़ियों को यथासंभव सहज उठाए हुए मैं आज पहली बार उनके सामने खड़ा हो गया। मेरे मन में धुकधकी हो रही थी। चार वर्ष पूर्व जब इसी बंबई से मैं इनसे विदा लेकर विलायत चला गया, उनकी आकांक्षा थी कि वापस लौटते समय मैं बैरिस्टरी के रोबदार गाउन (चोगा) में तथा उन भाग्यशाली लक्ष्मीधरों के मंडल से घिरा आशा एवं ऐश्वर्य की प्रभा से दमक रहा हूंगा। लेकिन आज मुझे इस तरह निस्सहाय, निराशा की बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखकर उन्नीस- बीस वर्षीय उस बेचारी युवा रमणी के ह्नदय को कितनी ठेस पहुंची होगी? दोनों सलाखों के पीछे खड़े थे। मुझे छूने के लिए भी उनपर प्रतिबंध लगाया गया था। पास ही पराए लोगों का कड़ा पहरा! मन में ऐसे भाव उमड़ रहे हैं, जिनको शब्दों का सान्निध्य भी संकोचास्पद होता है। हाय! पचास वर्षों के अर्थात् आजीवन बिछोह के पूर्व विदा लेनी है और वह भी इन विदेशी निर्दयी काराधिकारियों के स्नेहशून्य दृष्टिपातों की कक्षा में। इस जन्म में अब आपकी- हमारी भेंट लगभग असंभव ही है। ऐसा कहनेवाली वह भेंट!
आकाश आंधी-पानी से भर जाए, ऐेसे विचार अचानक एक ही क्षण में हृदय की विवेक चौकी पर उन्हें रोका गया। उनके सारे झूण्ड छिन्न-विछिन्न किए गए और दृष्टि मिलते ही नीचे बैठकर मुस्कुराते हुए मैंने पूछा,’’ क्यों, देखते ही पहचान लिया मुझे? यह तो केवल वस्त्र परिवर्तन हुआ है। मैं तो वही हूं। सर्दी का निवारण करना ही वस्त्रों का प्रमुख उद्देश्य होता है, जो इन कपड़ोें द्वारा भी पूरा हो रहा है।’’ थोड़ी देर में विनोद-निमग्न होकर वे दोनों इतने सहज होकर वार्तालाप करने लगे, जैसे वे अपने घर में बैठकर ही गपशप कर रहे हों। अवसर पाकर मैंने बीच में ही कहा, ’’ठीक है, ईश्वर की कृपा हुई तो पुनः भेंट होगी ही। इस बीच कभी इस सामान्य संसार का मोह होने लगे तो ऐसा विचार करना कि संतानोत्पति
करना, चार लकड़ी- तिनके जोड़कर घोंसला बनाना ही संसार कहलाता हो तो ऐसी गृहस्थी कौए-चिड़िया भी बनाते हैं। परंतु गृहस्थी चलाने का इससे भी भव्यतर अर्थ लेना हो तो मानव सदृश घरौंदा बसाने में हम भी कृतार्थ हो गए हैं। हमने अपना घरौंदा तोड़-फोड़ दिया, परंतु उसके योग से भविष्य में हजारों लोगों के घरों से कदाचित् सोने का धुआं भी निकल सकता है। उस पर ’घर-घर’ की रट लगाकर भी प्लेग के कारण क्या सैकड़ों लोगों के घर-बार उजड़ नहीं गए? विवाह-मंडप से दूल्हा-दूल्हन को कराल काल के गाल में खदेड़कर संकटों का सामना करो। मैंने सुना है, कुछ वर्षों के पष्चात् अंदमान में परिवार ले जाने की अनुमति दी जाती है। यदि ऐसा हुआ तो ठीक ही है, परंतु यदि ऐसा नहीं हुआ तो भी इस धैर्य के साथ रहने का प्रयास करो कि कुछ भी हो, इस समय को सहना ही होगा।’’
’’हम इस तरह का ही प्रयास कर रहे हैं। हम एक-दूसरे के लिए हैं ही। हमारी चिंता न करें, आप स्वयं का जतन करें, हमें सब कुुछ मिल जायेगा।’’ विवेक के खूंटे से बांध दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मेरी संपूर्ण शक्ति निचुड़ गई है।

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