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इसलाम और शाकाहार

इस्लाम सह-अस्तित्व से इंकार करता है!


इस्लाम के साथ सामंजस्य का मतलब है उसकी ओर से आती रहने वाली क्रमशः अंतहीन माँगें (डॉ. अंबेदकर ने कहा था, ‘मुसलमानों की माँगे हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं’) पूरी करते जाना। प्रोफेट मुहम्मद अपनी माँगों में कभी नहीं रुके, जब तक कि उनकी 100% माँगें पूरी नहीं हो गईं। वही मुसलमानों के आदर्श हैं। इसलिए काफिरों के लिए कोई आसानी का रास्ता नहीं।

उन्हें समझ लेना होगा कि इस्लाम उस एक चीज – जिहाद – को कभी नहीं छोड़ेगा, जिस से उसे आज तक सारी सफलता मिली! इस्लाम की सारी सफलता राजनीतिक समर्पण की माँग, दोहरेपन और हिंसा पर आधारित है। बेचारा काफिर जो बदलना चाहता है वह यही चीज है – हिंसा, दबाव, हुज्जत और राजनीति। जबकि काफिर से समर्पण की माँग करना और हिंसा करना, यही इस्लाम की सफलता का गुर रहा है। अतः हिंसा, दबाव, हुज्जत और माँगें कभी नहीं रुकने वाली, क्योंकि वह 1400 वर्षों से काम कर रही हैं। आज तो वह पहले किसी भी समय से अधिक काम कर रही हैं! भारत में ही किसी भी हिन्दू नेता का भाषण सुन लीजिए।

संघ-भाजपा गत चार दशकों से ‘राष्ट्रवादी’ या ‘देशभक्त’ मुसलमान की खोज और संगठन करने की जुगत करते रहे हैं। वे ‘अच्छे व्यक्ति’ और ‘अच्छे मुसलमान’ का अंतर अनदेखा करते हैं। ‘अच्छा मुसलमान’ तय करने का एक मात्र आधार इस्लाम है। किसी काफिर द्वारा ‘अच्छा’ की परिभाषा या पहचान खुद उसे भले संतोषजनक लगे, पर मुसलमानों के लिए बेमतलब है। इसीलिए भारत में वैसे व्यक्तियों को सदैव ‘सरकारी मुसलमान’ कह कर इस्लामी समाज खिल्ली उड़ाता है, क्योंकि इस्लाम के अनुसार अच्छा मुसलमान वह है जो प्रोफेट के सुन्ना का पालन करता है। यही एकमात्र निर्धारक है। यदि इस्लाम को जानना है तो सदैव मुहम्मद की ओर देखें, न कि किसी नेता, विद्वान या मौलाना को। तभी आपको सत्य मिलेगा। वरना धोखे खाने की ही पूरी संभावना है।

काफिर लोग, विशेषकर उनके बड़बोले नेता मान लेते हैं कि कोई भला व्यक्ति मुसलमान, जैसे बेगम अख्तर या डॉ. अब्दुल कलाम, ‘अच्छे’ इस्लाम का भी प्रमाण है। मन में मीठे मंसूबे पालने वाले काफिर समझते हैं कि भले मुसलमान इस्लाम को मनचाहे बदल सकेंगे। ऐसा समझने वाले निरे मूढ़ हैं। वे तथ्यों से बेपरवाह होकर अपने अज्ञान की मिट्टी पर काल्पनिक फूल खिलाते रहते हैं।

वस्तुतः यूरोप ही नहीं, अधिकांश देशों में काफिरों की आधिकारिक नीतियाँ अज्ञान पर आधारित है। इस्लामी सिद्धांत या राजनीतिक इस्लाम का इतिहास जानने वालों को किसी नीति-निर्माण या विचार-विमर्श के मंच पर भी स्थान नहीं दिया जाता। वे सच्चाई जानने के कारण ही अयोग्य माने जाते हैं! यदि यह विचित्र स्थिति काफिरों के लिए आत्मघाती, एक ‘डेथ विश’ नहीं तो और क्या है?

इस्लाम के बारे में ज्ञान रखने का अर्थ होता कि पहला प्रश्न हो – कि हमें किसका सामना करना है? इसका एकमात्र सही उत्तर है – राजनीतिक इस्लाम। अतः हमें वैचारिक युद्ध लड़ना है, न कि सैनिक।

तदनुरूप, वैचारिक युद्ध का अर्थ होता कि भारत में इस्लाम के हजार वर्ष का इतिहास जान लेने के बाद या केवल हाल का लें, तो खलीफत आंदोलन बाद (1921 ई.), या देश-विभाजन बाद (1947 ई.), या पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दू-विनाश बाद (1970 ई.), या कश्मीर से हिन्दुओं के सफाए बाद (1990 ई.), या गोधरा, मुंबई, अक्षरधाम, नन्दीमर्ग, दिल्ली जैसे अनगिनत लोमहर्षक जिहादी कांडों के बाद हरेक हिन्दू जान जाता कि मुहम्मद कौन थे, कुरान का संदेश क्या है, और यह कि सारे हिन्दू काफिर हैं। हिन्दू जान जाते कि शरीयत की माँगें हमारी संस्कृति, नैतिकता, सहज जीवन, शासन के हरेक न्यायोचित सिद्धांत के विरुद्ध है। संक्षेप में, वे समझ चुके होते कि उनका सामना किस से है और उसकी प्रकृति क्या है।

इस के उलट, हिन्दू सारी समस्याओं के लिए अपने-आपको ही दोषी ठहराने को तरह-तरह दलीलें करते हैं। ऐसे घोर अज्ञान से आत्म-घृणा को समर्थन मिलता है। विश्वविद्यालयों समेत संपूर्ण पाठ्यचर्या का परीक्षण दिखाता है कि भारत से लेकर अमेरिका तक काफिरों को शिक्षा में ये मोटी चीजें भी नहीं पढ़ाई जातीं – (1) जिहाद द्वारा बहाए गया खून और आँसू। गत 1400 सालों में 27 करोड़ काफिरों का मारा जाना। नोट करें, उस विराट् उत्पीड़न की मुसलमान कभी कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, न उसे मानते हैं। (2) जिम्मी और जिम्मीवाद, यानी कुछ काफिरों द्वारा इस्लाम को चाहे-अनचाहे मदद दिए जाने का इतिहास। (3) हमले करके क्रिश्चियन, हिन्दू, बौद्ध देशों पर लगातार कब्जा – अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सिल्क रूट के सभी देश, तुर्की, मध्य पूर्व, मिस्त्र, उत्तरी अफ्रीका और बाकी अफ्रीका। (4) कैसे शरीयत कानून स्त्रियों और बच्चों का जीवन प्रभावित करते हैं। (5) काफिर की अवधारणा। (6) कुरान संपूर्ण रूप में। (7) सीरा संपूर्ण। (8) हदीस संपूर्ण। (9) इस्लाम की दोहरी नैतिकता और तर्कप्रणाली को दर्शनशास्त्र की पढ़ाई में परखना, तथा (10) इस्लाम में गुलामी।

इस प्रकार, इस्लाम की सारी वास्तविकता से पूरी तरह गाफिल रह कर काफिर नेता अपनी ही नई पीढ़ियों को और भी दुर्बल, अबोध और आसान शिकार बनने छोड़ते रहे हैं। वे किसी तरह शान्ति और सह-अस्तित्व लालसा में दिनों-दिन राजनीतिक इस्लाम की भूख बढ़ाते जाते हैं। आखिर, मार्च 1947 में भारत के नेताओं ने इसी लालसा में देश का विभाजन स्वीकार किया था। क्या परिणाम हुआ? यही कि इस्लाम और भी प्रबल, तीन गुना शक्तिशाली होकर अंदर-बाहर से चोट करने लगा।

दरअसल, इस्लाम द्वारा दूसरों के साथ सह-अस्तित्व की सारी बातें सदैव अस्थाई होती हैं। ताकि काफिर उन्हें कुछ जमीन और दे दें। कुछ और सुविधा, अधिकार, संस्थान, अनुदान, इलाका, स्वशासन, आदि। लेकिन यह अस्थाई काल काफिरों के और विनाश से पहले कुछ सुस्ताने, ताकत जुटाने का समय भर होता है। भारत इसका सब से बड़ा उदाहरण है, जो हजार साल से इस्लाम से उलझ कर भी यह मोटी सी सीख न ले पाया! भारतीय शिक्षा में स्वयं पीड़ित काफिरों को उन पर हुए उत्पीड़न, कष्टों पर भी थोड़ा विचार करने के लिए नहीं कहा जाता। उलटे पूरा इतिहास बलपूर्वक छिपाया जाता है। अब तो शिक्षा में इतिहास विषय का नाम तक गायब कर दिया गया है! संघ-भाजपा इस पर गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने हिन्दुओं के पैर के नीचे के अंतिम आधार को भी खिसकाने का रास्ता बनाया है। वह भी वर्षों से भारी सोच-विचार कर के! यह अज्ञान और आत्महंता प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है।

जबकि यदि काफिरों को बचना है तो गफलत खत्म करनी होगी। मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि रफ्तार, जिहाद, हिंसा आदि मुख्य बाधा नहीं है। मुख्य है: इस्लाम के बारे में काफिरों का अज्ञान। उसी का उपयोग करके मुहम्मद के ही समय से काफिरों का खात्मा करते इस्लाम बढ़ता गया। अतः काफिरों को इस्लामी सिद्धांत एवं इतिहास जानना होगा। यह अब कठिन नहीं रहा। कुरान, सीरा और हदीस की संपूर्ण सामग्री को एक हाथ में उठाया जा सकता है। उसे अब पढ़ने-समझने में बिलकुल आसान भी बनाया जा चुका है।

आज ऐसा गाफिल, अज्ञानी बना रहना अनैतिक है। जिस में भारत के सर्वोच्च नेता दुहरा-दुहरा कर कहते हैं: ‘‘प्रोफेट मुहम्मद के रास्ते पर चलना चाहिए।’’ उनके संगठन मुहम्मद का जन्म-दिवस मनाते और फ्रांसीसी राष्ट्रपति के पुतले जलाते हैं! हिन्दू होकर भी ऐसे नेता जाने-अनजाने पक्के इस्लामियों की तरह प्रचार करते हैं। कम से कम उनकी ही नसीहत देखते हुए अनिवार्य है कि प्रोफेट मुहम्मद की प्रमाणिक जीवनी, उनकी हदीसें यानी विचार, उनके बनाए कानून, शरीयत, तथा इस्लाम के इतिहास को औपचारिक शिक्षा में स्थान दिया जाए। वरना लोग कैसे जानेंगे कि ‘मुहम्मद के रास्ते पर चलने’ के क्या अर्थ हैं?

सभी नागरिकों को यह जानने का अवसर देना आवश्यक है कि फ्रांस से लेकर भारत में और सूडान से लेकर बंगलादेश में जो असंख्य घटनाएं निरंतर होती रहती है – वह उसी रास्ते पर चलने का परिणाम हैं। इस्लाम के सिद्धांत और व्यवहार के इतिहास को पूरी तरह जानने की व्यवस्था करना अनिवार्य कर्तव्य है।

  • डॉ. शंकर शरण

(स्रोत: “इस्लाम और कम्युनिज्म – तीन चेतावनियाँ: बिल वार्नर, रिचर्ड बेंकिन, सोल्झेनित्सिन”, प्रकाशक: अक्षय प्रकाशन, नई दिल्ली)

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