पाखण्ड पर प्रहार, श्राद्ध पर तलवार

पाखण्ड। कथनी और करनी के भेद को पाखण्ड समझना चाहिए। जिस मनुष्य के वचन और कर्म में अन्तर दिखाई देता है, वहीं से पाखण्ड प्रारंभ हो जाता है अर्थात् जब मनसा वाचा कर्मणा, एक सरल सहज सरस रेखीय होते हैं तभी हम श्रद्धा को प्राप्त होते हैं। श्रद्धा का सही अर्ध सत्य को धारण करना है (सत् +धा) परन्तु राष्ट्र का अगुआ (अग्र) समाज यह बताने में सफल हो गया कि मरे पितरों की शांति हितार्थ उन्हें एक विशेष पक्ष जिसे कनागत भी कहा जाता है। इस पक्ष में पितरों की आत्मा की शांति हितार्थ श्राद्ध करना चाहिए। जिससे उनके पितर ( माता-पिता, पूर्वज) प्रसन्न रहते हैं और उनकी कृपा परिवार पर बनी रहती है। अविद्यादि दोषों के कारण देखा-देख समूचा देश और अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समाज का यह अकिंचन हिन्दू लकीर का फकीर होकर इस अवैदिक कृत्य को एक हजार वर्ष से अधिक समय से करता चला आ रहा है। इस बात को भलि भांति सब जानते हैं यथा- हिंदी साहित्य के प्रणेता भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अनुसार:

लीक लीक गाड़ी चले , लीक ही चले कपूत।
बिना लीक तीनों चलें, शायर, सिंह, सपूत।।

अर्थात् विद्वान, तेजस्वी और वर्चस्वी तो स्वयं मार्ग तैयार करते हैं। उनका मंत्र ही ओऽम् अग्ने नय सुपथा…. का होता है।

इसी पाखण्ड पर प्रकाश डालते हुए कविरत्न प्रकाश अजमेर उद्घोषणा करते हैं यथा:

मृतक माता-पिता का श्राद्ध , जीवितों का करते अपमान।
बताया जीवित का आदर करो, मृतक का श्राद्ध घोर अज्ञान ।।
ढोंगियो उद्दण्डियों की पोल, खोल सकता है आर्य समाज ।
असत पंथों पर धावा प्रबल, बोल सकता है आर्य समाज।।

यदि लोकाचार में श्राद्ध पक्ष को मना ही रहे हैं तो यह सूर्य जब कन्या राशि में २२ अगस्त २०२४ में २० बजकर २९ ( रात्रि ८ बजकर २९ मिनट) पर प्रवेश करता है। चंद्र वर्षानुसार २० अगस्त २०२४ में प्रतिपदा है उसी दिनांक २० अगस्त की प्रतिपदा से श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ है। यह अन्तर इसलिए कि चंद्रवर्ष और सौर वर्ष में लगभग ११ दिन कुछ घंटे का अन्तर होता है।

यद्यपि वेद में कहीं भी इसकी (श्राद्ध) की चर्चा परिचर्चा नहीं है। श्राद्ध का सही अर्थ है श्रद्धा को धारण करना। वेद समस्त भूमण्डल के हितार्थ ज्ञान, विज्ञान एवं अनुसंधान का विषय है। संपूर्ण सौर परिवार, आकर्षण, विकर्षण, गुरुत्वाकर्षण, पृथ्वी एवं अन्य ग्रहों का क्या सम्बन्ध है सब बीज रूप में स्पष्ट है। हम स्वाध्याय न करने के कारण अनभिज्ञ हैं। भारतवर्ष के तथाकथित पंचांग १५ सितंबर २०२४ को सूर्यसंक्रान्ति दर्शा रहे हैं जबकि शरद सम्पात का मध्य बिन्दु २२ सितम्बर २०२४ को सायंकाल ६° १८“ मि० है। भारतवर्ष के पारम्परिक पंचांग १५ सितम्बर २०२४ को सूर्य संक्रान्ति कन्या राशि में दिखा रहे हैं। जबकि वेदानुसार शरद सम्पात २२ सितम्बर २०२४ रात्रि बीस बजकर उन्तीस मिनट से प्रारम्भ है तो श्राद्ध पक्ष लगभग एक मास पूर्व अर्थात २० अगस्त की प्रतिपदा से अर्थात १९ अगस्त २०२४ की पूर्णिमा से होना चाहिए । क्योंकि पारम्परिक रूप से श्राद्ध सोलह दिनों का होता है। अतः वेदोक्त, सूर्य सिद्धान्त , सिद्धान्त शिरोमणि के अनुसार भारत वर्ष में एक ही पंचांग है जिसे पूर्ण वैदिक गणित पर निकष परख करने पर खरा उतरता है उसका नाम है श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम। इसके रचियेता आचार्य श्री दार्शनेय लौकेश, गामा -१, ग्रेटर नोएडा हैं। विशेष ज्ञाताज्ञात विषय पर चर्चा कर लाभ उठाया जा सकता है । लेकिन तथाकथित पारम्परिक अवैदिक पंचांगों के कारण हम अपने पर्व भी सही समय पर नहीं मना पा रहे हैं। इसी पाखण्ड की गंगा में स्नान कर पाखण्डी लोग अपनी व्यावसायिक दुकान चलाकर जनता को मूर्ख बनाकर अपनी जय जयकार करा रहे हैं। अब तक हम आसाराम ,रामपाल ,राम रहीम, निर्मल बाबा आदि को ही धोखाधड़ी वाले मान रहे थे।

अब तो जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जैसे जगद्गुरु भी गंगा की शपथ खाकर गंगाजल पी पीकर महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोस रहे हैं कि महर्षि रामायण ,महाभारत ,भागवत आदि ग्रन्थों को काल्पनिक ग्रन्थ बता रहे हैं। और स्वामी रामभद्राचार्य यहीं नहीं रुके उन्होंने राम और कृष्ण को भी महर्षि दयानन्द के द्वारा काल्पनिक पुरुष बताकर जनता को भ्रम में डाल दिया है, आगे वह कहते हैं कि आर्य समाज के संस्थापक ने बड़ी भूल की है। जबकि महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में राम और कृष्ण को आदर्श और आप्त पुरुष माना है। साथ ही सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास (अध्याय) में रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों को बाल्यकाल से ही पढ़ाने का संकेत किया है। श्री स्वामी रामभद्राचार्य सत्यार्थ प्रकाश को अपनी शिष्य मण्डली से सुन लेते तो उनकी आत्मा का चक्षु खुल जाता । जबकि इतिहास साक्षी है कि दयानन्द न होते तो अब तक हिन्दू संस्कृति की सुन्नत हो गई होती और गले से ब्रह्मसूत्र (जनेऊ) और शिखा सूत्र भी विलुप्त (गायब) हो गए होते। कटिसूत्र (कर्धनी) के बारे में तो कहना ही क्या है? बन्धुवर दयानन्द के बिना राष्ट्र स्वतंत्र भी नहीं होता। हैदराबादी उस्मान अली हर राज्य में होते और कहीं भी मंदिरों में आरती न होती। हवन को दफन कर दिया होता। यह तो राष्ट्र का सौभाग्य है कि धरती पुत्र महर्षि दयानन्द ने पाखण्डियों के विरोध में टंकारा की धरती से हुंकार भरी। एक नहीं दो नहीं सहस्त्रों दयानन्दी गरमदल, नरमदल के रूप में क्रान्तिकारी सपूत उत्पन्न किए और राष्ट्रचेतना का ज्वार उग्र हो उठा। राष्ट्र स्वतंत्र हुआ। आइये इसी पाखण्ड पर प्रहार ने हमें कितना जागरूक किया है वह निम्न पंक्तियों के माध्यम से महर्षि दयानन्द को समझा जा सकता है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) के उद्घोषक ने भारत के प्राचीन गौरव एक वेश , एक भाषा (संस्कृत एवं हिन्दी),एक संस्कृति, एक धर्म ग्रन्थ (वेद), एक ध्वज (राष्ट्रीय पताका), एक धर्म चिह्न (ओ३म) और एक अभिवादन (नमस्ते) को एकता अखण्डता का आधार बनाया।

नमस्ते का पाखण्ड प्रहार

नमस्ते नाश कर देगी, फिरोगे दाने-दाने को।
एक दिन पोप का लड़का , लगा यों दुख सुनाने को।।
पिताजी अब नहीं मिलता, हमें कोई फसाने को।
कनागत में मिले थी खूब, पूड़ी खीर खाने को।।
ग्रहों का जय सदा करते, सबका दुःख मिटाने को।
हमीं से जाप कराते थे , फतह दुश्मन पर पाने को।।
रसीदें सबको देते थे, हमीं बैकुण्ठ जानें को।
वही यजमान अब हमको , लगे पोप को चिढ़ाने को।।
नमस्ते खूब करते हैं, सदा हमको जलाने को।
यों कहते हैं यहां आये ही, क्यों सूरत दिखाने को।।
तुम्हारी पोल पट्टी में , न अब हम लोग आने को।
बता रखा था धर्म तुमने , बस चौका चूल्हे में खाने को ।।
बजाते शंख और घड़ियाल, थे प्रभु को जगाने को ।
अनेको ढंग निकाले थे , हमारे लूट खाने को ।।
बताते थे कोई राह, बिछड़ों को मिलाने को।
तुले रहते थे विधवाओं को, सदा वेश्या बनाने को ।।
खुशामद करते थे गैरों की , अपनी जां बचाने को ।
मगर हां खूब पक्के थे, अछूतों को दबाने को ।।
समझते खेल अबभी तुम, अछूतों को सताने को।
वे रोते हैं, नहीं तैयार , तुम छाती से लगाने को ।।
दुखी हैं आज वो कितने, इसी को अब आजमाने को।
जन्म भंगी के घर होगा, मिलेगी झूंठ खाने को।।
कहां से आ गया दयानन्द, पिता हमको मिटाने को।
हमारी पोल और चालें, बता दीं सब जमाने को।।
नमस्ते क्यों सिखादी हाय, मिट्टी में मिलाने को।
नहीं मिलने का अब हरगिज, चर्स का दम लगाने को।।
शराब ,अफीम, गांझा, भांग का लोटा चढ़ाने को।
मिलेगा अब नहीं बिल्कुल, पराया माल खाने को ।।
मिलेगा अब नहीं कोई , चेली चेला बनाने को।
नमस्ते नाश कर देगी , फिरोगे दाने दाने को।।
कविरत्न प्रकाश की कविता, झूंठे श्राद्ध से बचाने को।
सोचोगे अब तुम प्रियवर, आर्ष ग्रन्थों को पढ़ाने को।।

” जैसा सोचोगे, वैसा हो जाओगे। इसलिए वैसा सोचो, जैसा होना है।”
Man is, where mind is. Mind determines what man is.

शुभेच्छु
गजेंद्र सिंह आर्य वैदिक प्रवक्ता / पूर्व प्राचार्य
जलालपुर (अनूपशहर)
जनपद -बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११

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