आज 13 सितंबर है अर्थात हमारे पूज्य पिताजी महाशय राजेंद्र सिंह आर्य जी की पुण्यतिथि। 13 सितंबर 1991 को आज ही के दिन उनका परलोक गमन हो गया था। सितंबर माह आरंभ होते ही उनकी स्मृतियां चित्त पर उभरने लगती हैं। अपने आप से ही संवाद होने लगता है। मन कभी अतीत को कुरेदता है तो कभी वर्तमान की परिस्थितियों पर चिंतन करने के लिए प्रेरित करता है। कभी पिता के आशीर्वाद की स्मृतियों में ले जाकर खड़ा कर देता है तो कभी उनके दिलाए गए संकल्प और दिखाए गए मार्ग की ओर प्रेरित कर कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देने लगता है। कई प्रकार के प्रश्न चित्त में उठने लगते हैं। जैसे पिता कौन है ? पुत्र कौन है ? सुपुत्र कौन है ? कुपुत्र कौन है ? पितृ ऋण क्या है ? पितृ ऋण से कैसे उऋण हो सकते हैं ? पिता के संबंध में उपनिषदों में क्या कहा गया है ? आओ आज पूज्य पिताजी की स्मृति में इन्हीं प्रश्नों पर विचार करते हैं।
माता से प्रथम पिता
‘ एतरेयोपनिषद ‘ में तृतीय खंड में उल्लेख आता है कि जीव प्रथम पिता के शरीर में आकर माता के शरीर में जाता है और माता और पिता के अंश में तीसरा जीव जब मिल जाता है तब गर्भ की स्थापना कही जाती है। यहां पर इतना समझ लें कि एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के उपरांत जीवात्मा वायु और सूर्य लोक से हुए होते हुए किसी पुरुष पिता के शरीर में प्रविष्ट करती है तथा माता और पिता के संयोग के समय माता के शरीर में स्थापित हो जाती है। इसलिए माता से पिता प्रथम है।
पिता ही वह व्यक्ति है जो हमें जन्म देने के लिए अपने शरीर में धारण करता है। इतना ही नहीं, ऐसी आत्मा को अपने आत्मा में धारण करके रक्षा भी करता है। इसी को उपरोक्त उपनिषद के चतुर्थ खंड में पिता के द्वारा आत्मा का पहला जन्म बताया है।
गर्भ के दौरान वह आत्मा को माता अपने शरीर में मिला हुआ जानती है इसलिए उस माता को कोई कष्ट नहीं होता, उसको वह अपना शरीर ही मानती है।
यह माता है जो किसी कष्ट का अनुभव ही नहीं करती बल्कि प्रसन्न होती है और गर्भ की प्रत्येक प्रकार से रक्षा करती है वह उसको कभी भार स्वरूप नहीं मानती। उत्पन्न होने के बाद भी पिता पुत्र की रक्षा करता है और उसके विकास का कारण बनता है। इसलिए इस प्रकार संतान पैदा करके उसकी रक्षा करने को पितृ ऋण से उऋण होना कहा जाता है। योग्यतम संतति की संकल्पना सर्वप्रथम पिता करता है। कदाचित पिता का यही संस्कार हमारे जीवन की अनमोल थाती बन जाता है। जिसे माता अपने गर्भ रूपी गमले में रखकर विशेष रूप से परिष्कृत करती है। इस प्रकार पिता के संस्कार और माता के परिष्कार से हमारे जीवन का निर्माण होता है।
आत्मा पुत्र के रूप में पिता का प्रतिनिधि
माता के गर्भ में यह इस प्रकार आत्मा का दूसरा जन्म है।
इससे आगे चतुर्थ खंड में यह बहुत ही महत्वपूर्ण उल्लेख है कि “यह आत्मा पुण्य कर्मों के लिए पिता का प्रतिनिधि होता है तथा वृद्ध होकर चल देता है यहां से जाते ही फिर से जन्म लेता है। वह इस आत्मा का तीसरा जन्म है।”
ध्यान देने योग्य बात है कि पुत्र को पिता के पुण्य कर्मों के लिए प्रतिनिधि बताया गया है। इसीलिए वेद ने कहा है कि पुत्र पिता का अनुव्रती होता है। उसकी आत्मा का प्रतिनिधि होता है। उसी के अनुसार व्रत धारण करने वाला होता है। उसके संकल्पों को पूर्ण करने वाला होता है। उसकी कल्पना को चार पंख लगाने वाला होता है। उसकी यश की पताका को दूर-दूर तक फैलाने वाला होता है। उसके चले जाने के पश्चात भी उसके नाम को ले लेकर आगे बढ़ने वाला होता है। उसके लिए आंसू बहाने वाला होता है …..। पिता का नाम पुत्र की पतवार होता है। पिता के हृदय की पवित्रता पुत्र के लिए सदैव प्रेरणा देने का कार्य करती रहती है।
ईशोपनिषद के आधार पर
ईशोपनिषद में तीसरा मंत्र है । जो मनुष्य आचरण के विरुद्ध कार्य करते हैं , उनके बारे में देखो क्या लिखा है:-
असूर्याः अन्धेन तमसा आवृताः नाम ते लोकाः सन्ति ।
ये के च जनाः आत्महनः सन्ति ते प्रेत्य तान् अभिगछति ॥
अर्थात “जो कोई आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले मनुष्य हैं, वह मरकर गहरे अंधेरे से आच्छादित हुए प्रकाश रहित नाम वाले लोक (योनियां )हैं उन योनियों को प्राप्त होते हैं।”
इसलिए कभी भी आचरण के विरुद्ध कार्य नहीं करने चाहिए। मनुष्य को हमेशा अपने आचरण को शुद्ध रखना चाहिए ।अपने व्यवहार को, अपने कार्यों को पवित्र रखना चाहिए ।अगर प्रकाश रहित अंधकार युक्त योनियों से बचना चाहतें हैं।
कठोपनिषद के आधार पर
कठोपनिषद में यमाचार्य और नचिकेता के मध्य हुए संवाद में कितना सुंदर विवरण निम्न प्रकार आता है :-
“नचिकेता ने यमाचार्य से सबसे पहला वर अपने पिता की प्रसन्नता उपलब्ध करने के संबंध में ही मांगा, लेकिन वर्तमान में उच्छृंखलता के काल में दुख की बात है कि पुत्र और पुत्री को इस प्रकार की मात्रृ और पितृभक्ति की शिक्षा नहीं दी जाती।
उर्दू के एक मशहूर कवि अकबर इलाहाबादी हुए हैं, उन्होंने भी कितनी सुंदर पंक्तियां लिखी हैं :-
‘हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़ कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं।’
वर्तमान युग में पिता को खब्ती समझने वालों की संख्या अधिक हो गई है। परंतु पुत्र से उचित प्रकार की भावनाओं की आशा करके पुत्र शब्द उसके लिए बनाया गया था। पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत में कई प्रकार से की जाती है। परंतु भाव इन सब का एक जैसा है। यथा ‘पुर त्रायते , निपणीद्वा पुत् नर्क: तस्मात्त्रायत ईति वा’ अर्थात जो बहुत से दुखों से बचाता है, वह पुत्र है।
निरुक्त 2/ 11 के अनुसार पुत् नरक को कहते हैं, उससे जो बचाता है, उससे जो तारता है वह पुत्र है। पुनाति त्रायते च स पुत्र : अर्थात जो पवित्र करता है और रक्षा करता है, वह पुत्र है।
मनुस्मृति 9/135 में लिखा है :-
पुनाम्नो नरकाद यस्मात त्रायते पितरं सुत:।
तस्मात पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयंभुवा।
अर्थात नरक से जो पिता को बचाता है, इसलिए स्वयं ब्रह्मा ने उसका नाम पुत्र रखा है।”
नचिकेता को उसके पिता वाजश्रवा ने क्रोधित होकर मृत्यु को प्राप्त करने का श्राप दिया था। लेकिन जब नचिकेता यमाचार्य के पास मृत्यु के संबंध में प्रश्न्न करने के अथवा ज्ञानवर्धन के लिए पहुंचा तो नचिकेता ने सबसे पहले अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए उपाय पूछा था। यम ने यह वर नचिकेता को कैसे दिया कि उसका पिता उससे प्रसन्न हो जाएगा।
इसका उत्तर यह है कि यम को अपनी शिक्षा पद्धति पर विश्वास था। वह जानता था कि जब वह नचिकेता को मातृ -पितृ भक्त और ब्रह्मज्ञानी बना देगा तब ऐसे पुत्र से कोई पिता कैसे अप्रसन्न रह सकता है ? सच तो यह है कि जब वाजश्रवा ने सुना होगा कि उसके पुत्र ने सबसे पहले यत्न उसको प्रसन्न करने के लिए ही किया ,उसका क्रोध तो इतनी ही बात से पुत्र की पित्रृ भक्ति को देखकर शांत हो गया होगा।
प्रसंग स्पष्ट हुआ कि जो पिता अपने पुत्र को मृत्यु को प्राप्त कराता है, श्राप देता है ।वह पुत्र अपने पिता की प्रसन्नता का कारण यमाचार्य से पूछता है ,देखिए कितने उच्च कोटि की पितृभक्ति है। आज के पुत्र ऐसा नहीं कर सकते।
कठोपनिषद की षष्ठी वल्ली
जो पुत्र सही आचरण नहीं करते, अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते उनके लिए कठोपनिषद की षष्ठी वल्ली में निम्न प्रकार उल्लेख आता है।
“इस जगत के प्रत्येक कार्य में जो नियम पाया जाता है वह नियम ईश्वर प्रदत्त है। इस नियम को ठीक रीति से चलाने के लिए ईश्वर मानो वज्र हाथ में लिए सदैव नियम भंग करने वाले को दंड देने के लिए तैयार रहता है। मनुष्य को चेतावनी दी गई है कि शरीर छूटने से पहले आत्मज्ञान प्राप्त करने में समर्थ न हुआ तो उसे जन्म मरण के चक्र में ही रहना पड़ेगा। ईश्वर की आज्ञा दो प्रकार की होती है ।पहली वे जिन्हें ईश्वर माता-पिता तथा सखा के रूप में कर्म स्वतंत्रता के कारण और ईश्वर प्रदत्त नियम के अनुसार मनुष्यों को अधिकार होता है कि चाहे उसका पालन करें या ना करें। दूसरी आज्ञा नियम रूप में होती है, जो जगत और जगत संबंधी कार्यों को चलाने के लिए जगत में प्रचलित की जाती है। इन्हीं का नाम प्राकृतिक नियम है। यह नियम अटल होते हैं। इन्हें कोई तोड़ नहीं सकता। और इन्हीं के लिए उपनिषद के उपर्युक्त वाक्य में कहा गया है कि पालन करने के लिए ईश्वर मानो हाथ में वज्र लिए हुए है।
इस प्रकार ईश्वर द्वारा प्रदत्त कर्म- फल से कोई बच नहीं सकता। माता-पिता की सेवा करोगे तो आपकी भी सेवा हो सकती है। माता-पिता की उपेक्षा करोगे, उनको खब्ती समझोगे,तो आपके साथ भी निश्चित रूप से यही व्यवहार भविष्य में होना है, अर्थात ईश्वर ऐसे मनुष्य को निश्चित रूप से दंड देता है जो जगत और जगत संबंधी कार्यों को उचित प्रकार से पूर्ण नहीं करते हैं।
इसलिए इस नियम के अनुसार ऐसे पुत्र दंड के भागी होते हैं जो माता-पिता की सेवा नहीं करते हैं ,और ऐसे पुत्र स्वयं अंधकार में पड़ते हैं।
तैत्तिरिय उपनिषद में इस विषय में उल्लेख है:-
उपरोक्त के अतिरिक्त तैत्तिरिय उपनिषद में इस विषय में क्या उल्लेख है, :-
“सत्याचरण, धर्मपूर्वक व्यवहार करने ,जो कुछ उपयोगी और कल्याणप्रद है, उसके प्राप्त करने ऐश्वर्यादि के बढ़ाने और पितरों से संबंधित कार्य करने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। माता-पिता ,आचार्य और अतिथि को सदैव देवों की कोटि का मानते रहना चाहिए जो अनिंदित (अर्थात जिनकी निंदा नहीं कर सकते , वे अच्छे )कर्म हैं , उन्हीं को करना चाहिए ।अन्य बुरे कर्मों को कभी नहीं करना चाहिए।
इसमें एक बात जो विशेष रूप से कही गई है, वह है कि माता-पिता, आचार्य तथा अतिथि को देवों के तुल्य मानना चाहिए।
पुत्र ,कुपुत्र और सुपुत्र की परिभाषा निम्न प्रकार की गई है।
पुत्र कहते हैं जो पिता की आज्ञा के अनुसार कार्य करता है।
कुपुत्र कहते हैं जो पिता की आज्ञा के अनुसार कार्य नहीं करता है। सुपुत्र कहते हैं जो पिता की भावनाओं के अनुसार कार्य करता है। अर्थात पिता क्या चाहते हैं ? पिता ने यह स्पष्ट आदेश नहीं किया लेकिन पिता के मन के अंदर उठने वाली भावनाओं को समझ करके जो पुत्र कार्य करता है, वह सुपुत्र है। ऐसा पुत्र ही सुपुत्र कहलाने का अधिकारी है।
जैसे आपको स्मरण होगा कि रामचंद्र जी को जब वनवास जाना है तो माता कैकेई ने राजा दशरथ से वर मांग लिए। उसने कहा कि मेरे बेटे भरत को अयोध्या का राज्य दीजिए और रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास दीजिए। अपनी रानी के मुंह से ऐसे वचनों को सुनकर दशरथ को अत्यंत पीड़ा हुई। वह कुछ भी नहीं कह पाए। मारे वेदना के वह लगभग अचेत अवस्था में चले गए। राजा दशरथ ने राम को वन जाने का कोई आदेश नहीं दिया ,परंतु पिता को केकैई के साथ वर से बंधा हुआ होने का आभास करके पिता की स्पष्ट आज्ञा के बिना उनकी भावनाओं को समझ कर रामचंद्र जी वनवास चले गए ।
रामचंद्र जी ने राज्य का लालच नहीं किया बल्कि पिता की भावना को ही समझ कर वन चले जाना उपयुक्त समझा। सोच कर देखें क्या आज का पुत्र ऐसा कर सकता है?
आज का पुत्र तो पिता से शत्रुता का सब व्यवहार कर रहा है। वह केवल लेने की भावना रखता है, और लेने को ही अपना अधिकार मानता है। कुछ देना नहीं चाहता। जबकि संसार लेने और देने से चलता है। अधिकार और कर्तव्य दोनों ही लेने और देने के ही नाम हैं । यदि पुत्र के लिए अधिकार कुछ लेने का नाम है तो कर्तव्य कुछ देने का भी नाम है। इन दोनों के समन्वय से ही जीवन चलता है। जीवन संवरता है । जीवन बनता है। इनमें विकार आते ही जीवन बिगड़ जाता है। जिन पुत्रों ने आज पिता से यह कहना आरंभ कर दिया है कि तुमने मेरे लिए किया ही क्या है ? यह उनकी स्वार्थ की पराकाष्ठा है। उनके स्वार्थ की यही पराकाष्ठा पिता पुत्र के संबंधों को ही नहीं संसार के संतुलन को भी विकृत कर रही है।
वाजश्रवा -नचिकेता और राजा दशरथ और उसके पुत्र राम के उदाहरण हमारे समक्ष हैं। हमें उनके अनुसार ही आचरण करना चाहिए। संबंधों को नई परिभाषा और नई ऊंचाई देने के लिए यह समय की आवश्यकता है।
अपेक्षा करता हूं कि आज के सभी पुत्र पिता के आदर्श व्रत और संकल्पों को हृदय में अंगीकार करके आगे चलेंगे , इन्हीं पवित्र शब्दों के साथ पूज्य पिताजी को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देने के साथ इस लेख पर विराम लगाता हूं। अंत में बस इतना ही कहूंगा :-
कुछ कह गए कुछ सह गए
कुछ कहते कहते रह गए.
मैं सही और तुम गलत के चक्कर
में ना जाने कितने रिश्ते ढह गए।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,
ग्रेटर नोएडा।
चलभाष
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