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संपादकीय

अलोकतांत्रिक व्यवस्था का नाम है – वक्फ बोर्ड

हमारे देश का संविधान पंथनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा को स्थापित करता है। इसका अभिप्राय है कि राज्य नागरिकों के मध्य किसी मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। भेदभाव नहीं करने का अभिप्राय है कि किसी एक पंथ के लोगों का तुष्टिकरण नहीं किया जाएगा। परंतु देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में 1954 – 55 में ही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए वक्फ बोर्ड की स्थापना कर दी गई थी। ज्ञात रहे कि नेहरू जी ने ऐसा कदम धर्मनिरपेक्षता की स्थापना के लिए उठाया था। एक विशेष मजहब का तुष्टिकरण करना उन्हें धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने जैसा लगा।
मजहब के आधार पर देश के विभाजन की विभीषिका को अपनी आंखों से देखने के उपरांत भी नेहरू जी मुस्लिम तुष्टिकरण की कांग्रेस की परंपरागत नीति से हटने का नाम नहीं ले रहे थे। फलस्वरूप उनके संरक्षण में मुस्लिम वक्फ बोर्ड ने आगे बढ़ना आरंभ किया। जिन अलगाववादी तत्वों के कारण देश को विभाजन के दुखद दौर से गुजरना पड़ा था नेहरू जी की इस मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते उन्हें फिर से देश की राजनीति ने भोजन पानी देना आरंभ कर दिया। सरकार के संरक्षण के चलते ये तत्व फिर से संगठित होकर देश विरोधी कार्यो में सम्मिलित होने लगे।
सरकार की मुस्लिम पुष्टिकरण की नीति के चलते वक्फ अधिनियम में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया कि इसकी संपत्तियों से संबंधित किसी भी विवाद का अंतिम निर्णय वक्फ ट्रिब्यूनल ही करेगा। परंपरा कुछ इस प्रकार चली कि कौन सी संपत्ति की होगी इसकी घोषणा करने का अधिकार भी ट्रिब्यूनल के पास ही होगा, और फिर उसका संरक्षण करना भी इसी का काम होगा। भारतवर्ष के सामान्य न्यायालयों को इसकी संपत्तियों के संबंध में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। इसका अभिप्राय है कि वक्फ संपत्ति के संबंध में वक्त ट्रिब्यूनल से अलग किसी अन्य न्यायालय में अपील, वकील और दलील की कोई व्यवस्था किसी भी गैर मुस्लिम के लिए नहीं होगी। आप जैसे चाहे किसी गैर मुस्लिम की संपत्ति छीन सकते हैं, उसे अपनी घोषित कर सकते हैं, अर्थात उसके वैधानिक अधिकार अपने लिए अपने आप सृजित कर सकते हैं। इस प्रकार देश में कानून की दृष्टि से वैधानिक परंतु वास्तव में पूर्णतया एक अवैधानिक तंत्र खड़ा हो गया।
बस, यही वह सबसे कमजोर कड़ी है जो वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार दिलाती है। उसे तानाशाह बनाती है गैर मुसलमानों पर अत्याचार करने का उसे वैधानिक प्रमाण पत्र देती है। एक संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत पूर्णतया असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रश्रय दिया जाना मानवता के विरुद्ध अपराध है।
सरकार द्वारा गठित किए गए इस बोर्ड में शामिल सभी अधिकारियों और सांसद का मुस्लिम समुदाय से होना आवश्यक है। इस ट्रिब्यूनल के गठन का अधिकार राज्य सरकार के पास है। यद्यपि किसी भी राज्य सरकार की अपनी स्वविवेकीय शक्तियां लगभग नहीं के बराबर हैं । सारा कुछ पूर्व निर्धारित होता है अथवा कहिए कि कानूनी प्रावधानों में इतनी कमियां हैं कि राज्य सरकार अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर सकती। जब कोई राज्य सरकार इसका गठन करती है तो इसमें एक अध्यक्ष की नियुक्ति की जाती है । अध्यक्ष जिला सत्र या सिविल न्यायाधीश प्रथम श्रेणी स्तर का न्यायिक अधिकारी होता है। दूसरा सदस्य राज्य सिविल सेवा का कोई अधिकारी रखा जाता है। इसके अतिरिक्त तीसरा व्यक्ति शरीयत का ज्ञान रखने वाला होता है। इस प्रकार की व्यवस्था से स्पष्ट है कि राज्य उस समय संविधान विरोधी आचरण करता है, जब वह इस प्रकार के किसी ट्रिब्यूनल का गठन करता है। संविधान विरोधी इसलिए कि ऐसी व्यवस्था नागरिकों के मध्य सांप्रदायिक आधार पर विभेद उत्पन्न करती है और सांप्रदायिक सोच को उभारती है। पंथनिरपेक्ष राज्य में लोगों की पूजा पद्धति अलग हो सकती है परंतु उनका राष्ट्रीय एकता और अखंडता में समान और अटूट विश्वास होना अनिवार्य होता है। जिसमें किसी भी प्रकार की कोई सांप्रदायिक मान्यता आड़े नहीं आनी चाहिए। जब सांप्रदायिक मान्यताएं इस प्रकार के अटूट विश्वास को भंग करती हैं तो उस समय राज्य पंथनिरपेक्ष न रहकर संप्रदाय सापेक्ष हो जाता है। सांप्रदायिक आधार पर गठित किए जाने वाले किसी ट्रिब्यूनल या किसी भी पर्सनल लॉ के अस्तित्व की वकालत करते राज्य को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अपने ही पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहा है। अघोषित रूप से पर्सनल लॉ का अस्तित्व बने रहना या इस प्रकार के ट्रिब्यूनल गठित किये जाना दोहरी शासन व्यवस्था की ओर संकेत करता है।
वक्फ बोर्ड राज्य सरकार के अधीन गठित किया जाने वाला एक निकाय है, जो किसी भी राज्य में वक्फ प्रॉपर्टी के संरक्षक के रूप में अपना दायित्व निर्वाह करता है। ऐसा भी नहीं है कि कोई वक्फ बोर्ड शिया और सुन्नी दोनों समुदायों के लिए काम करता हो। अधिकांश राज्यों में शिया वक्फ बोर्ड और सुन्नी वक्फ बोर्ड अलग-अलग काम करते मिलते हैं। उनका गठन भी इसी प्रकार किया जाता है। हमारे देश की अधिकांश प्रमुख मस्जिदों को वक्फ की संपत्ति के रूप में ही मान्यता दी गई है। वक्फ बोर्ड में राज्य सरकार मुस्लिम विधायकों, सांसदों और राज्य बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्यों ,इस्लामी धर्मशास्त्र के मान्यता प्राप्त आलिमों और ₹100000 या उससे अधिक की वार्षिक आय वाले वक्फ के मुताली में से एक या दो को मनोनीत करती है।
यदि वक्फ बोर्ड को केवल उस संपत्ति के संरक्षक के रूप में गठित किया जाता जो कई दशकों से या शताब्दियों से किसी मुस्लिम घराने की या किसी मुस्लिम धर्मस्थल की संपत्ति के रूप में अभिलेखों में दर्ज चली आती है और जिसे मुस्लिम समुदाय द्वारा गैर मुसलमानों से जबरन कब्जा करके हासिल नहीं किया गया है बल्कि इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि कभी उसे नियमानुसार खरीद कर ही प्राप्त किया गया था तो ऐसी संपत्ति के संरक्षक के रूप में ऐसे बोर्ड का स्वागत किया जाना चाहिए। क्योंकि किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय की ईमानदारी से अर्जित की गई संपत्ति को हड़पने का अधिकार किसी भी बहुसंख्यक समाज को अधिकार नहीं हो सकता। यदि लोकतंत्र में किसी सांप्रदायिक मान्यता को बलवती करने के दृष्टिकोण का समर्थन किया जाता है और इस दिशा में काम करते हुए किसी सांप्रदायिक बोर्ड को गठित कर उसके अध्यक्ष या सदस्यों को इस प्रकार के असीमित अधिकार दिए जाते हैं कि वह जिस संपत्ति को चाहे हड़प ले तो यह लोकतंत्र की शक्ल को बिगाड़ने वाली खतरनाक तानाशाही का सच है, जिसका लोकतंत्र में समर्थन कदापि नहीं किया जा सकता।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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