◼️क्या शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए है🤨

उत्तर – 🔥‘ब्राह्मणोऽस्य’ ( यजुर्वेद – ३१ । ११ ) मंत्र कहता है कि “इस यज्ञपुरुष के मुख से ब्राह्मण हुए और बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।”
🌻उत्तर – आपका यह अर्थ सर्वथा अशुद्ध और स्वयं वेद के ही विरुद्ध है, क्योंकि वेद ईश्वर को निराकार, अकाय वर्णन करते हैं जैसे 🔥‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरम्’ इत्यादि यजुर्वेद [४०।८] वर्णन करता है कि ‘वह परमात्मा सर्वव्यापक, शीघ्रकारी, अकाय, व्रणरहित, नस तथा नाड़ी के बन्धन से रहित है’ जब परमात्मा के शरीर ही नहीं है तो उसके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य तथा शूद्रों को परमात्मा के पाँवों से पैदा हुआ मानना वन्ध्या के पुत्र के विवाह में मिठाई खाने की भाँति असम्भव तथा उन्मत्तप्रलाप के सिवाय और क्या हो सकता है? इस मन्त्र के वास्तविक अर्थों को जानने के लिए इससे पूर्वमन्त्र के अर्थों का जानना आवश्यक है, जिसमें प्रश्न किया गया है और जिसके उत्तर में यह मन्त्र है। दोनों मन्त्र इस प्रकार हैं
🔥यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥१०॥
🔥ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद् बाहूराजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भयाशूद्रोऽजायत॥११॥
-यजुः० ३१।१०-११
भाषार्थ-जिस परमात्मा को कई प्रकार से कल्पना करते हुए पुरुष वर्णन करते हैं, उस पुरुष का मुख क्या है? उसकी भुजा कौन हैं, उसके ऊरू तथा पाँव कौन कहे जाते हैं? ॥ १० ॥
इस मन्त्र में जो परमात्मा को कई प्रकार की कल्पना करके वर्णन करने का ज़िक्र है, वह कल्पना क्या वस्तु है? इसको दूसरे शब्दों में अलंकार भी कहते हैं
🔥सौन्दर्यमलङ्कारः ॥ ६॥ -काव्यालंकारसूत्रवृत्ति
भाषार्थ-किसी बात को सौन्दर्य से वर्णन करने का नाम अलंकार है। अलंकार बहुत प्रकार के होते हैं, उनमें से एक अलंकार का नाम है उपमालंकार । उसका लक्षण यह है-
🔥उपमानोपमेययोर्गुणलेशतः साम्यमुपमा ॥ १॥
उपमान से उपमेय के गुणों की कुछ समानता का नाम उपमा है। वह उपमा दो प्रकार की है-
🔥सा पूर्णा लुप्ता च ॥४॥
वह पूर्णा तथा लुप्ता दो प्रकार की है। पूर्णा का लक्षण-
🔥गुणद्योतकोपमानोपमेयशब्दानां सामग्ये पूर्णा ॥५॥
जिसमें उपमान, उपमेय, उपमावाचक शब्द तथा गुणद्योतक शब्द-ये सारे विद्यमान हों, वह पूर्ण-उपमा है जैसे –
🔥‘कमलमिव मुखं मनोज्ञमिति’ मुख कमल की भाँति सुन्दर है। इस वाक्य में –
▪️कमल-उपमान-जिससे उपमा दी जावे।
▪️मुख–उपमेय-जिसको उपमा दी जावे।
▪️मनोज्ञ-साधारणधर्म, समान गुण जो दोनों में मिलता हो।
▪️इव-उपमा-वचक शब्द, जिनसे समानता बताई जावे।
यहाँ उपमा के चारों अङ्ग विद्यमान हैं, अतः यहाँ पूर्ण उपमा है।
🔥लोपे लुप्ता॥६॥ -काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति ९ । १-६
जिसमें किसी अङ्ग का लोप हो जावे वह लुप्त-उपमा है, जैसे-
▪️ ‘शशीव राजा’ ‘चाँद-जैसा राजा’ इसमें साधारणधर्म, जो गुण दोनों में मिलता है, जिसके कारण राजा को चाँद-जैसा कह गया है, वह लुप्त है, अतः इसका नाम ‘धर्मलुप्तोपमा’ है।
▪️ ‘दूर्वा श्यामेयम्’-‘यह स्त्री काली दूब है’ यहाँ पर उपमावाचक शब्द का लोप है, जो समानता का वर्णन करता है, अतः इसका नाम ‘वाचकलुप्तोपमा’ है।
▪️ ‘शशिमुखी’ ‘चन्द्रमुखी’-यहाँ पर साधारणधर्म और उपमावाचक शब्द दोनों का लोप है, इसको ‘वाचकधर्मलुप्तोपमा’ कहते हैं।
हम इसके कुछ उदाहरण देते हैं-
🔥सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालन्दनः।
पार्थों वत्सः सुधीभॊक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
भाषार्थ-सब उपनिषद् गौवें हैं, दोहनेवाले कृष्ण हैं, पीनेवाला बुद्धिमान् अर्जुन बछड़ा तथा महान् अमृत गीता दूध है।
यहाँ पर उपनिषदों को गौवों की, कृष्णा को दोहनेवाले की, अर्जुन को बछड़े की तथा गीता को दूध की उपमा दी गई है। यहाँ उपमावाची शब्दों तथा साधारणधर्म का लोप है, अतः यहाँ पर ‘वाचकधर्मलुप्तोपमा’ है।
यहाँ पर गीता को दूध की उपमा ही दी गई है, वास्तव में गीता दूध नहीं है। यदि कोई आदमी इस श्लोक को ठीक रूप से न समझकर गीता को कटोरे में डालकर किसी को कहे कि लीजिए, दुग्धपान कीजिए तो सब लोग उसे मूर्ख ही कहेंगे, बुद्धिमान् नहीं।
🔥आत्मानदी संयमपुण्यतीर्था सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ॥
भाषार्थ-आत्मा नदी है, संयमरूपी पवित्र तीर्थवाली, सत्य जलवाली, शील तट तथा दया लहरोंवाली है। हे युधिष्ठिर! उसमें स्नान कर, जल से आत्मा शुद्ध नहीं होता।
इस श्लोक में आत्मा को नदी की उपमा देकर तरंगों को भी उपमा दी गई है, किन्तु आत्मा वास्तव में नदी नहीं है।
🔥प्रणव धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
भाषार्थ-प्रणव धनुष है, यह आत्मा तीर है, ब्रह्म उसका लक्ष्य है, सावधानी से लक्ष्य को वेधना चाहिए, तीर की भाँति तन्मय हो जावे॥
यहाँ आत्मा को तीर की उपमा दी गई है, परन्तु वास्तव में आत्मा तीर नहीं है।
🔥आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान् तेषु गोचरान्।
आत्मबुद्धिमनोयुक्तः कर्तेति उच्यते बुधैः ।।
भाषार्थ-आत्मा को सवार जान, शरीर को रथ समझ, बुद्धि को सारथि जान, मन को लगाम समझ। इन्द्रियों को घोड़े और विषयों को उनकी खुराक कहते हैं। बुद्धि और मन से युक्त आत्मा को बुद्धिमान् लोग कर्ता कहते हैं।
यहाँ आत्मा को रथी की उपमा देकर तत्सम्बन्धी वस्तुओं की भी उपमा दी है, किन्तु वास्तव में आत्मा रथी नहीं है।
इन सब स्थलों में ‘वाचकधर्मलुप्तोपमा’ अलंकार हैं, जिनमें उपमावाची शब्द तथा साधारण धर्म का लोप है। इसी प्रकार के अलंकार वेदों में भी हैं, जैसे-
🔥अजो वा इदमग्रे व्यक्रमत तस्योर इयमभवद् द्यौः पृष्ठम्।
अन्तरिक्षं मध्यं दिशः पाश्र्वे समुद्रौ कुक्षी ॥२०॥
🔥सत्यं च ऋतं च चक्षुषी विश्वं सत्यं श्रद्धा प्राणो विराट् शिरः।
एष वा अपरिमितो यज्ञो यदजः पंचौदनः ॥ २१ ॥
–अथर्व० ९।५
भाषार्थ-यह बकरा आगे आया, इसकी छाती यह पृथिवी, द्यौः पीठ, आकाश पेट, दिशाएँ पाश्र्व=पसवाड़े, समुद्र बगलें, ज्ञान तथा सत्य दोनों आँखें और सम्पूर्ण सत्य और श्रद्धा प्राण तथा ब्राह्मण सिर है, वह यह अपरिमित यज्ञ है, जिसको पञ्चौदन अज कहते हैं।
इस मन्त्र में परमात्मा को अज अर्थात् बकरे की उपमा देकर उसके अङ्गों की भी कल्पना करके परमात्मा का वर्णन किया गया है। परमात्मा वास्तव में बकरा नहीं है।
बस, इसी प्रकार 🔥’यत्पुरुषं व्यदधुः’ इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर पूछा है कि उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कौन हैं। इसका ही उत्तर अगले मन्त्र में 🔥‘ब्राह्मणोऽस्य’ दिया गया है कि ‘ब्राह्मण उसका मुख हैं, भुजा क्षत्रिय, ऊरू वैश्य हैं और पाँव शूद्र’ ।।
इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को उस पुरुष के मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कल्पना किया गया है। यह पूर्ववत् उपमा अलंकार है। वास्तव में परमात्मा निराकार है, उसके मुखादि अङ्ग नहीं हैं। यहाँ पर परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पैर कल्पना करने का यही प्रयोजन है कि मनुष्यसृष्टि में जो लोग मुख के समान सर्वसाधारण से पाँचगुणा ज्ञान रखते हों, लोगों को उलटे रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते पर चलावें तथा अपनी पढ़ी विद्या लोगों को पढ़ावें, वे ब्राह्मण कहलाने के योग्य हैं तथा मनुष्यसृष्टि में जो लोग भुजा के समान अपने-आपको संकट में डालकर भी दूसरों की रक्षा करे वे क्षत्रिय कहलाने के योग्य तथा जो लोग पेट के समान राष्ट्र के कच्चे माल को पक्का माल बनाकर उसके व्यापार से जो लाभ हो उससे अपने देश का पालन करें वे वैश्य कहलाने के योग्य हैं। और मनुष्यसृष्टि में जो लोग न दिमाग़ी काम कर सकें, न रक्षा और व्यापार का काम कर सकें, केवल पाँवों के समान बोझ उठाने, अर्थात् कुलीपने का काम जानते हों वे शूद्र कहलाने के अधिकारी हैं। यह मन्त्र वर्ण-व्यवस्था का गुण-कर्म-स्वभाव से प्रतिपादन करता है-जन्म से नहीं, अत: हमारा किया हुआ अर्थ वेदानुकूल तथा आपका अर्थ स्वयं वेद के ही विरुद्ध होने से सर्वथा मिथ्या है।
साभार – पंडित मनसारामजी
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प्रस्तुति – ‘अवत्सार’

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