ब्रह्मज्ञानी , ज्ञान का अभिमान नहीं करते !

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः |
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् || ( केनोपनिषद २-३ )
पदार्थ — ( यस्य ) जिसका अर्थात जिस ब्रह्मज्ञानी विद्वान का ( अमतम् ) मन से उसे नहीं जान सकते , ऐसा ज्ञान है ( तस्य ) उस विद्वान का ( मतम् ) माना हुआ अर्थात यथार्थ ज्ञान है , क्योंकि उसने ब्रह्म को जान लिया है ( मतम् ) ब्रह्म को मैंने जान लिया है , ऐसा ज्ञान ( यस्य ) जिसका है ( न ) नहीं ( वेद ) जानता है ( सः ) वह ( अविज्ञातम् ) नहीं जाना हुआ होता है ( विजानताम् ) ब्रह्मज्ञान के अभिमानियों का ( विज्ञानम् ) जाना हुआ होता है ( अविजानताम् ) ब्रह्मज्ञान का अभिमान न रखने वालों का ।
भावार्थ — जो मनुष्य यह विचार करता है कि ब्रह्म मन से नहीं जाना जाता , वह सचमुच ब्रह्म को जानता है और जो यह विचारता है कि उसे इन्द्रियों से जान सकते हैं , वह ब्रह्म को सर्वथा नहीं जानता है । जिनको ब्रह्मज्ञान का अभिमान होता है उनको ब्रह्मज्ञान सर्वथा नहीं होता । जो ब्रह्मज्ञानी हैं वे किसी अवस्था में ज्ञान का अभिमान नहीं करते । इस उपनिषद ने झूठे योगियों तथा ब्रह्मज्ञानियों से जनसाधारण को सावधान करने और बचाने के लिये स्पष्टया कह दिया है कि जो लोग ब्रह्मज्ञान का अभिमान करते हैं , वे ब्रह्म को सर्वथा नहीं जानते और न ही उन्हें योग का रहस्य ज्ञात है । संसार में देखा जाता है कि जिनके पास रत्न होते हैं , वे उन्हें पेटियों में छिपाकर रखते हैं और जिनके पास कौड़ियाँ होती हैं , वे उन्हें बाजार में बोली दे देकर बेचते हैं । प्रत्येक मोक्षाभिलाषी जिज्ञासु को चाहिये की वह इस उपनिषद के तात्पर्य को ध्यान में रखकर आजकल के झूठे ब्रह्मज्ञानियों के धोखे से बचकर शान्ति प्राप्त करे और अपनी मूर्खता से योग और ब्रह्मविद्या से सर्वथा अपरिचित , अनभिज्ञ लोगों को योगी और ब्रह्मज्ञानी मानकर उनसे अपनी आशा पूरी होते न देखकर ब्रह्मज्ञान का ही विरोध न करने लग जाये । प्रत्येक मनुष्य को अवश्य इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग संसारासक्त हैं , उनसे ब्रह्मज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं और जो लोग सचमुच ब्रह्मज्ञानी हैं , वे संसारासक्त और संसारजनों से परे रहते हैं क्योंकि उनके संग से ब्रह्मोपासना में विघ्न होता है । ईश्वर के भक्त ही ब्रह्मज्ञानी को जान सकते हैं और ब्रह्मज्ञानी भी ईश्वरभक्तों से मिलना पसन्द करते हैं , संसारासक्तों से उन्हें कोई लाभ नहीं होता ।
— स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

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