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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति भाग- 344 जाति,आयु और भोग

(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की पुस्तक वैदिक सम्पत्ति नामक से अपने सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।)
प्रस्तुति -देवेंद्र सिंह आर्य
चैयरमेन- ‘उगता भारत’

गतांक से आगे ….

दू सरा कारण आनन्द का यह कि परमेश्वर की प्राप्ति से सब शंकाएं निवृत्त हो जाती हैं और संसार की कोई बात ज्ञातव्य नहीं रहती। X इसलिए इसमें द्वैतअद्वैत का झगड़ा ले दौड़ना उचित नहीं है, किन्तु देखना यह है कि वेदों और उपनिषदों में किस प्रकार उसके सम्पर्क और उसके सम्मेलन से ही आनन्द बतलाया गया है। यहाँ हम इस विषय के थोड़े से वाक्य उद्धृत करते हैं, जो इस प्रकार हैं-

*तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति । आश्चर्यवत्पश्यति वीतशोकः ।। ये पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः ।। तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम । तस्यैष आत्मा वृणुते तनू स्वाम् ।। यदा पश्यति पश्यते रुश्मवर्णम् । जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमोशम् ।। तमक्रतुः पश्यति वीतशोकः । दृश्यते त्वप्रया बुद्धया ।। ब्रह्मविद् ब्रह्म व भवति । अयमात्मा ब्रह्म ।। (उपनिषद्वचन)

इन उपनिषद्वाक्यों में परमात्मा की प्राप्ति, दर्शन, सम्मेलन और उसके साथ एकीकरण का वर्णन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उसकी प्राप्ति से ही आनन्द मिल सकता है। इसलिए प्रकृति बन्धन से छूटकर अर्थात् जन्म मरण के चक्कर से मुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति का ही नाम मोक्ष है और यही मोक्ष का वैदिक तथा शुद्ध स्वरूप है। इस प्रकार से मोक्ष का स्वरूप निश्चित हो जाने पर अब देखना चाहिये कि मोक्ष का स्थान कहाँ है ?

जहाँ तक प्रकृति अर्थात् माया का वेष्टन है, वहाँ तक दुःखों से छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि प्रकृति परिणामिनी है, एक रस रहनेवाली नहीं। जो पदार्थ एक रस नहीं रहता और परिणामी होता है, उसके संसर्ग से सदैव अनुकूलता प्रतिकूलता बनी ही रहती है और प्रतिकूल वेदना से दुःख भी बने ही रहते है। इसलिए जब तक जीव प्रकृति के तीनों वेष्टनों से अलग न हो जाय तब तक वह दुःखों से बच नहीं सकता। प्रकृति का पहिला वेष्टन सूक्ष्म शरीर है, दूसरा वेष्टन स्कूल शरीर है और तीसरा वेष्टन यह बाहरी विराट् शरीर (ब्रह्माण्ड) है जिसमें यह (पिण्ड) शरीर बंधा हुआा है। जब तक इन तीनों शरीरों से अर्थात् समस्त मायिक जगत् से जीव जुदा न हो जाय तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए प्राकृतिक जगत् और शुद्ध ब्रह्म की मर्यादा का वर्णन करते हुए वेद कहता है कि ‘पावोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपावस्यामृतं विवि’ अर्थात् परमात्मा के एक पाव में यह समस्त मायिक जगत् है और तीन पाद द्यौ में अमर हैं। इसका मतलब यह है कि प्राकृतिक जगत् परिणामी और मरणधर्मवाला है और अप्राकृतिक द्यौ-लोक जहाँ प्रकृतिरहित केवल परमात्मा ही परमात्मा है, वही अमृत है। इसलिए जीवन्मुक्त पुरुष मरकर उसी दुःखरहित द्यौ-लोक में जाता है, जहाँ केवल आनन्दस्वरूप परमात्मा ही है, प्राकृतिक जगत् नहीं ।
वेदों में द्यावापृथिवीरूपी इस ब्रह्माण्ड (सम्पुट) का विस्तृत वर्णन है। इस सम्पुट के तीन भाग हैं-एक नीचे का, दूसरा मध्य का और तीसरा ऊपर का। नीचे के भाग को पृथिवी, मध्य के भाग को अन्तरिक्ष और ऊपर के भाग
को द्यौ कहते हैं। अथर्ववेद ४।३६ में लिखा है कि ‘पृथिवी घेनुस्तस्या अग्निर्वत्तः । अन्तरिक्षं बेनुस्तस्या वायुर्वस्सः । द्यौर्षेनुस्तस्या आविश्यो वत्सः’ अर्थात् पृथिवी धेनु का अग्नि बछड़ा है, अन्तरिक्ष धेनु का वायु बछड़ा है और थी धेनु का सूर्य बछड़ा है। यह तीनों लोक हैं और यही तीनों लोकों के तीनों देवता हैं। इनमें द्यो लोक का देवता सूर्य है। सूर्य के आसपास ही तक प्राकृतिक जगत् है, सूर्य के बहुत आगे तक नहीं। सूर्य की आगे की सीमा का ही नाम द्यौ-लोक है और वही वेद में स्वर्ग और ब्रह्मलोक के नाम से कहा गया है, अतः वही मोक्ष का स्थान है। इसीलिए उपनिषद् में कहा गया है कि ‘सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति’ अर्थात् जीवन्मुक्त पुरुष सूर्य द्वार से ही मोक्ष घाम को जाते हैं। इसका यही मतलब है कि मायावेष्टन की सीमा सूर्य ही है अतः सूर्य ही मोक्षधाम का दरवाजा है और सूर्य का पृष्ठभाग ही स्वर्ग और ब्रह्मलोक है। अमरकोश में लिखा है कि-

स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः ।
सुरलोको यौदियो द्व स्त्रियां षलीवे त्रिविष्टपम् ।। (अमर० १.६)

अर्थात् स्वः, अव्यय, स्वर्ग, नाक, त्रिदिव, त्रिदशालय, सुरलोक, यौ, दिवः और त्रिविष्टपं आदि शब्द एक ही पदार्थ के वाचक हैं। इन सब शब्दों में स्वः, स्वर्ग, नाक और यो शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं। सभी सन्ध्या करनेवाले भूः, भुवः और स्वः को नित्य पढ़ते हैं। इसमें भूः पृथिवीवाची भुवः अन्तरिक्षावाची और स्वः द्यौलोकवाची हैं। उसी को स्वर्ग कहा गया है। इसी तरह नाक शब्द की निरुक्ति करते हुए यास्काचार्य कहते हैं कि ‘नाक आदित्यो भवति’ अर्थात् नाक सूर्य ही है। इसी तरह सूर्य भी द्यौलोक का ही सूचक है और यो तो द्यौ है ही। इसलिए द्यौ लोक के स्वर्ग होने में कुछ भी शङ्का नहीं रह जाती। पर स्मरण रखना चाहिये कि यह वैदिक स्वर्ग वह स्वर्ग नहीं है, जिसका वर्णन सेमिटिक दर्शन से लेकर गीता आदि पुराणों में किया गया है। क्योंकि सेमिटिक स्वर्ग के निवासी देवता बड़े ही दुःखी हैं। वे सदैव अपने शत्रुओं से पीड़ित रहते हैं। उनके घर में भी दूध के एक बूंद का भी ठिकाना नहीं है, वे पान तम्बाकू से मोहताज हैं, गुड़ शक्कर के भिखारी है, स्त्रियों के कटाक्ष और बालकों की तोतरी भाषा के लालायित हैं तथा काव्यकला से वंचित हैं। उनका राजा इन्द्र तो बड़ा ही भीरु, लम्पट, लुच्चा और जालसाज है। इसलिए वैदिक स्वर्ग से इस वर्ग का कुछ भी वास्ता नहीं है। वैदिक स्वर्ग तो वह है, जिस में जीवन्मुक्त उत्तम कर्मों को करता हुआ सूर्य के द्वार से जाता है।
क्रमशः

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