हिंदू राष्ट्र स्वप्नदृष्टा: बंदा वीर बैरागी
मां भारती के पुजारी और सनातन के पुरोधा बन्दा बैरागी का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को पुंछ की पहाड़ी रियासत के राजोर गांव में एक राजपूत परिवार में हुआ था उनके पिता का नाम रामदेव था। उस समय दिल्ली का शासक मुगल बादशाह औरंगजेब था। जिसकी अत्याचारपूर्ण नीतियों से पूरा भारतवर्ष आतंकित था। इस निर्दयी बादशाह के शासनकाल में हिंदुओं का जीना कठिन हो गया था। इस क्रूर और धर्मांध बादशाह के द्वारा गुरुओं पर भी अनेक प्रकार के अत्याचार किए गए थे। उसने अनेक हिंदू मंदिरों का विध्वंस कर दिया था। इसके अतिरिक्त कितने ही निरपराध हिंदुओं के चोटी और जनेऊ उतारकर उन्हें बलात मुस्लिम बनाए जाने की प्रक्रिया भी उसके शासनकाल में निरंतर चलती रही।
वीर बैरागी के बचपन का नाम लक्ष्मणदेव था। सनातन और मातृभूमि के प्रति उनके हृदय में पवित्र भावों का बीजारोपण बचपन में ही हो गया था। भाई परमानंद जी अपनी पुस्तक ” बंदा वीर बैरागी ” में लिखते हैं :- ” मुझे भारत के इतिहास के अनुशीलन से यह निश्चय सा हो गया है कि वह व्यक्ति जिसे साधारण बोलचाल में बंदा बैरागी कहा जाता है, एक असाधारण पुरुष था। मुझे उसके जीवन में वह विचित्रता दिखाई देती है जो न केवल भारतवर्ष के प्रत्युत संसार भर के किसी महापुरुष में नजर नहीं आती । उच्च आत्माओं की परस्पर तुलना करना व्यर्थ है, फिर भी बैरागी के जीवन में कुछ ऐसे गुण पाए जाते हैं, जो न राणा प्रताप में दिखाई देते हैं और न शिवाजी में। मुसलमान के राज्य काल में वीर बैरागी का आदर्श एक सच्चा जातीय आदर्श था । हिंदू पराक्रम और पराधीन अवस्था में बैरागी एक पक्का हिंदू था । सिखों के भीतर अपने पंथ के लिए प्रेम का भाव काम करता था। राजपूत और मराठे अपने-अपने प्रान्त को ही अपना देश समझ बैठे थे। बैरागी न तो पंथ में सम्मिलित हुआ और न ही उसे किसी प्रांत विशेष का ध्यान था । उसकी आत्मा में हिंदू धर्म और हिंदू जाति के प्रति अनन्य भक्ति और अगाध प्रेम था। हिंदुओं पर अत्याचार होते देख उसका खून खौल उठता था। इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए उसने उन्हीं साधनों का उपयोग किया, जिनसे मुसलमानों ने हिंदुओं को दबाने का प्रयास किया था।”
युवावस्था में लक्ष्मण देव एक वीर क्षत्रिय की भांति शिकार खेलने जाया करता था । एक दिन की घटना है कि शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। जबलक्ष्मण देव उसे गर्भवती हिरणी के पास पहुंचे तो जो कुछ उन्होंने देखा, उसने उन्हें बहुत अधिक दुखी कर दिया। उस घटना से उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। प्राण त्याग रही उस हिरनी के पेट से एक शिशु निकला, जो अभी जीवित था, परन्तु कुछ देर तड़पकर उसने भी प्राण त्याग दिए।
तड़पते हुए उस शिशु को देखकर उनका मन अत्यधिक दुखी हो गया। इस घटना के पश्चात उन्होंने शिकार खेलना छोड़ दिया। उन्हें विवेक हुआ और उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया।
इतना ही नहीं वे घर छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए निकल गए। अनेक साधुओं से उन्होंने संपर्क किया। उनके साथ रहकर योग साधना सीखी। उसके पश्चात एक सच्चे योगी बनकर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे। यद्यपि अब वह भगवत प्राप्ति की साधना में लीन हो गए थे, परंतु नियति उनसे क्या कराने जा रही थी ? संभवत: यह उन्हें स्वयं भी ज्ञात नहीं था ।
इस समय एक बहुत महत्वपूर्ण परंतु दुखद घटना घटित हुई थी। गुरु गोविंद सिंह जी के दो पुत्र जोरावर सिंह और फतेह सिंह को मुगलिया हुकूमत ने जीवित ही दीवार में चुनवा दिया था। इस घटना से सनातनप्रेमी और राष्ट्रप्रेमी लोगों में बहुत अधिक आक्रोश व्याप्त हो गया था। गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं राष्ट्र जागरण के लिए निकल चुके थे। वह अनेक क्रांतिकारी युवाओं को तैयार कर रहे थे। उनका एक ही लक्ष्य था कि मुगलिया हुकूमत को देश से समाप्त किया जाए। गुरु जी के इस आवाहन पर लोग बढ़ चढ़कर उनका साथ दे रहे थे। अनेक युवा गुरु जी के साथ आकर जुड़ गए थे। गुरु जी को जैसे ही किसी क्रांतिकारी तेजस्वी युवा के बारे में जानकारी मिलती कि अमुक स्थान या गांव या नगर में कोई तेजस्वी युवा रहता है तो वह उससे मिलने के लिए स्वयं ही चल पड़ते। सनातन प्रेमी सभी हिंदू युवाओं को उन्होंने एक प्रकार से अपना पुत्र मान लिया था। इतना ही नहीं, देश के युवा भी उन्हें पिता तुल्य सम्मान देते हुए उनके साथ जुड़ने में गर्व की अनुभूति कर रहे थे।
एक दिन गुरुजी आ गए कुटिया पर
जब गुरु गोविंद सिंह जी को यह जानकारी हुई कि एक तेजस्वी, क्रांतिकारी, ब्रह्मचारी युवा संन्यासी नांदेड़ में कुटिया बनाकर रहता है तो वह उस युवा से मिलने के लिए अपने आप ही नांदेड के लिए चल दिए। तब तक गुरुजी के चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास को भगवत प्राप्ति की साधना से उठकर राष्ट्र साधना में लगने का आवाहन किया। उन्होंने माधोदास को अंदर तक झकझोरते हुए कहा कि तुम जैसे युवा संन्यासी को राष्ट्र पर आई विपत्ति को देखने की आवश्यकता है। अपने कल्याण के लिए तो सब काम कर लेते हैं, परंतु राष्ट्र कल्याण के लिए कार्य करना जीवन की वास्तविक सफलता है। तुम्हारे जैसे युवाओं को वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुगलिया आतंक से संघर्ष करने की आवश्यकता है। अन्यथा वैराग्य से बनने वाले साधुओं की परंपरा ही समाप्त हो जाएगी। क्योंकि तब न तो सनातन रहेगा और न ही सनातन में विश्वास करने वाले लोग रहेंगे । अतः माधोदास ! तुम्हें राष्ट्र के लिए उठ खड़ा होना चाहिए।
भाई परमानंद जी लिखते हैं …..
गुरु गोविंदसिंह जी और बंदा वीर बैरागी जो उस समय माधोदास के नाम से गोदावरी के तट पर अपना आसन लगाए पंचवटी में बैठे थे , की भेंट कैसे हुई ? – इस पर अपने विचार प्रकट करते हुए भाई परमानंद जी ने अपनी पुस्तक ‘ बंदा वीर बैरागी ‘ के पृष्ठ 34 पर लिखा है कि :– ” उज्जैन में गुरु गोविंदसिंह की दादूपंथी गुरु नारायणदास से भेंट हुई । वह रामेश्वर की यात्रा से लौट रहा था । गुरु गोविंदसिंह ने पूछा कि :- ” उधर क्या देखा ? ” नारायण दास ने कहा कि और तो सब मिट्टी पत्थर थे , किंतु नावेर में एक बैरागी महंत है , जो अद्वीतीय है । जिन्न और भूत उसके नौकर हैं । वह उसके वश में हैं । बस वह पुरुष देखने योग्य मालूम होता है । गुरु ने बैरागी से मिलने का दृढ़ निश्चय कर लिया था । वह घूमते हुए इसके मठ में जा निकले । दो वीरों की भेंट हुई । ऐसी परिस्थिति में ऐसे दो वीर कभी ना मिले होंगे । वे एक दूसरे को नहीं जानते थे , परंतु इनकी आत्माओं में वह वीरता का भाव था , जिसने दोनों को मिला दिया । गुरु गोविंद सिंह बड़ी-बड़ी कुर्बानियां कर चुके थे । जो बैरागी को अभी करनी थीं । भूत एक का था , भविष्य दूसरे का । यह भेंट जादू का एक खेल था । वैरागी ने अपनी मातृभूमि की अवस्था गुरु की आंखों में देखी । उसका नाश होते देखकर उसका ह्रदय छिन्न-भिन्न हो गया । वह दूसरी बार थी जब बैरागी के जीवन में एक और महान परिवर्तन हुआ । गर्भिणी हिरणी के शिकार पर उसके नन्हें बच्चों की तड़प और मृत्यु ने बहादुर शिकारी राजपूत लक्ष्मण को बैरागी माधोदास बना दिया था । दुनिया से मुख मोड़ संबंधियों से नाता तोड़ इसे जंगल में भटकने पर मजबूर कर दिया था । अब एक सच्चे क्षत्रिय से भेंट हुई । इस क्षत्रिय ने बैरागी के हृदय में अलग-थलग और बेपरवाह रहने वाले योग के ह्रदय में क्षात्र धर्म का बीज बो दिया । ठीक उसी तरह जिस तरह धनुष बाण को छोड़कर अपने संबंधियों के मोह में पड़े हुए अर्जुन को कृष्ण भगवान ने क्षत्रिय धर्म का उपदेश दिया । गुरु गोविंद सिंह ने बैरागी को अपनी मातृभूमि के दुख का चित्र दिखाकर उसे कष्टों से निकालने के लिए वीररस का पान करने पर तैयार किया । साधु बैरागी को दोबारा शस्त्रधारी क्षत्रिय बना दिया।
गुरु जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर माधोदास ने तुरंत वैराग्य त्याग दिया। इसके पश्चात वह राष्ट्र के लिए समर्पित होकर काम करने लगे। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर का नाम दिया। इस अवसर पर गुरुजी ने बंदा बहादुर को पांच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने के लिए भी प्रेरित किया। उस समय बंदा बहादुर की अवस्था 36 वर्ष की थी। इस समय मुगलों को जहां अपने पूर्वजों तैमूर आदि के उन अत्याचारों की विरासत की रक्षा की चिंता थी, जिन्होंने भारत में रहकर लोगों के सिरों की मीनारें चुनवाईं या लाखों लाखों लोगों को एक साथ मरवाया, वहीं गुरु गोविंद सिंह के इस बंदे को अपने गुरुओं की उस परंपरा की रक्षा करनी थी जो भारतीयता को जीवंत बनाए रखने के लिए जन्मी थी।
यद्यपि भारत ओ३म शांति:! शांति:!! शांति:!!! का जाप करने वाला देश रहा है, परंतु जब देश, काल और परिस्थिति की आवश्यकता शांति के स्थान पर क्रांति की होती है तो इसे क्रांति:! क्रांति: !! क्रांति:!!! का जाप करने में भी देर नहीं लगती। लोग शांति की माला को छोड़कर क्रांति का भाला संभाल लेते हैं।
हिंदू राज्य स्थापित करना था लक्ष्य
मुगल साम्राज्य को उखाड़कर भारत में हिंदू राज्य स्थापित करना बैरागी का एकमात्र सपना था। इस योद्धा के बारे में डॉक्टर ओमप्रकाश ने एक शोध लेख तैयार किया और उसमें इलियट एंड डाउसन, विलियम इरविन, जे0 डी0 कनिंघम, जे0सी0 आर्चर, हरिराम गुप्त, इंदु भूषण बनर्जी, तेजा सिंह और गंडा सिंह आदि विद्वान इतिहासकारों के परिश्रम का निचोड़ प्रस्तुत किया है। वह लिखते हैं " बैरागी ने भारत में हिंदू राज्य स्थापित करने का लक्ष्य अपने सामने रखा था। मुगल राज्य की नींव अभी काफी मजबूत थी। एक निर्भीक व्यक्ति जनता में साहस की तो भावना भर सकता है, किंतु वह किसी शक्तिशाली साम्राज्य को उखाड़कर नहीं फेंक सकता। इसलिए वीर सेनानी बंदा अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहा, किंतु उसके साहसी कार्य जब तक भारत राष्ट्र जीवित है, भविष्य में सदा ही राष्ट्रीय वीरों को प्रेरणा प्रदान करते रहेंगे। उसका बलिदान व्यर्थ नहीं हुआ। उसने भारतीय जनता में अत्याचार का प्रतिरोध करने की भावना कूट-कूट कर भर दी। जब उपयुक्त अवसर आया तो कविवर रविंद्र नाथ ठाकुर जैसे राष्ट्र कवियों ने इस वीर सेनानी का गुणगान किया और जनता को राष्ट्र-रक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की शिक्षा दी।"
अपने इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखकर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन को अपना निशाना बनाया और उसका शीश काटकर गुरुजी की हत्या का प्रतिरोध लिया। इसके पश्चात बंदा ने सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध कर गुरु जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की। शत्रु को यह आभास कराया कि हिंदुत्व की शक्ति दुर्बल नहीं हुई है और वह अपने पूर्वजों के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए आज भी जीवित है। जिन हिन्दू राजाओं ने गुरुजी के विरुद्ध मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उनसे भी चुन चुनकर प्रतिशोध लिया और उन्हें उनकी गद्दारी का उचित पुरस्कार दिया।
दोषी को दिया दंड
केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय के व्यवस्थापक रहे वीरेंद्र कुमार कुलश्रेष्ठ ने बंदा बैरागी के बारे में बहुत सुंदर लिखा है । उनका निष्कर्ष है कि ” समाना के निवासी जलालुद्दीन ने गुरु तेग बहादुर का वध किया था। इसलिए 26 नवंबर 1709 को सवेरे बंदा ने समाना पर हमला करके शहर को धराशाई कर दिया। इस लड़ाई में लगभग 10000 मुसलमान मारे गए और अपार धन बंदा के हाथ लगा। कपूरी का शासक कदमुद्दीन अपनी विलासी प्रवृत्ति के कारण हिंदू जनता को सता रहा था। बंदा ने उसके भवन को वशीभूत करके उसकी सारी दौलत अपने साथियों में विभाजित कर दी। साढोरा का मुस्लिम शासक वहां की हिंदू जनता को उनके धार्मिक संस्कार नहीं करने देता था। यह शिकायत बंदा के पास पहुंची तो उसने साढोरा को लूट लिया। वहां पर काफी मुसलमान मारे गए। इसे आजकल कत्लगढ़ी कहते हैं।”
मेकालिफ, कनिंघम खफी खान जैसे इतिहासकारों का मानना है कि बैरागी का उद्देश्य संपूर्ण हिंदू जाति को स्वतंत्र करना था । वह पूर्णतया राष्ट्रीय सोच का व्यक्ति था।
मेकालिफ ने लिखा है ” वास्तव में बंदा का उद्देश्य समस्त हिंदू जनता को मुगल दासता से मुक्त करना था। उसने अपने आंदोलन को व्यापक रूप देने के लिए अपने युद्ध का नारा ” वाहेगुरु की फतेह ” के स्थान पर ” फतेह धर्म ” या ” फतेह दर्शन ” घोषित किया। ”
गंगाराम नाम का वह ब्राह्मण अभी तक जीवित था, जिसने
गुरु गोविंद सिंह जी के बच्चों को छल और कपट करते हुए गिरफ्तार कराने में सहायता की थी। गुरु पुत्रों के साथ हुए इस अन्याय में सम्मिलित रहे इस गंगाराम नाम के व्यक्ति का जीवित रहना बंदा वीर बैरागी के लिए बहुत अधिक असहनीय हो गया था। अतः बैरागी ने गंगाराम का वध कराने की आज्ञा अपने सैनिकों को दी। इतना ही नहीं, जिस थानेदार ने गुरु पुत्रों की गिरफ्तारी की थी, उसका भी बंदा वीर बैरागी ने वध करवा दिया। जिससे एक बार फिर हिंदुओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। उनका आत्मविश्वास लौटा और वह सुख की नींद लेने लगे। उन्हें लगा कि आज गुरु पुत्रों को वास्तविक श्रद्धांजलि अर्पित कर दी गई है।
शत्रु रहने लगा था भयभीत
अब बंदा वीर बैरागी ने सहारनपुर के शासक अली मोहम्मद के विनाश का संकल्प लिया। अली मोहम्मद बंदा वीर बैरागी की योजना को सुनकर भयभीत हो था। इसके पश्चात भी उसने मुसलमान को एकत्रित किया और बंदा वीर बैरागी के साथ होने वाली लड़ाई को दीन की लड़ाई कहकर उनमें जोश भरने का प्रयास किया। जैसे ही लड़ाई आरंभ हुई , अली मोहम्मद शाह युद्ध के मैदान से भाग गया। ऐसे महान देशभक्त बंदा वीर बैरागी के बारे में प्रोफेसर बलराज मधोक ने लिखा है कि " बंदा बैरागी की महान सचरित्रता, उसका त्याग, उसकी आध्यात्मिक साधना और उसकी ब्रह्मचर्य साधना से गुरु गोविंद सिंह अवश्य प्रभावित थे। तभी तो पंजाब से बाहर और खालसा संप्रदाय तथा अपने संबंधियों के होते हुए भी उन्होंने बंदा बैरागी को पंजाब का राजनीतिक नेता बनाकर मुसलमान शासन से भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए भेजा। अंग्रेज इतिहासकारों ने वीर बैरागी के कार्य को उपेक्षित रखकर इतिहास की दृष्टि से अपराध किया है। वास्तव में अंग्रेज पंजाब प्रांत में हिंदुस्तान से पृथक एक नई जाति को राजनीतिक इकाई के रूप में उठाना चाहते थे। जिससे भारत की राष्ट्रीयता में आध्यात्मिक और धार्मिक तत्व को समाप्त किया जा सके। भारत की संस्कृति में यही तत्व सर्वोपरि है। इतिहास का 90% भाग धार्मिक युद्ध की भूमिका है।"
श्री जगदीश चंद्र श्रीवास्तव और श्री एन0पी0 शर्मा के अनुसार " 4 मई 1710 को बंदा बहादुर की सेना ने जब सरहिंद की ईंट से ईट बजाई तो उसने वजीर खान के टुकड़े-टुकड़े कर गुरु पुत्रों के दीवार में चुने जाने का बदला लिया था। उसने सरहिंद पर अपना अधिकार कर लिया था।"
पिशाचों को मिटा रहे थे वीर बैरागी
बंदा बैरागी उस समय हिंदुओं के लिए एक ऐसी शक्ति बन चुके थे जो पिशाच नाश का कार्य कर रही थी । वह जहां – जहां भी जाते थे , वहाँ – वहाँ से ही मनुष्य की वह पिशाच प्रवृत्ति अपना बोरिया बिस्तर बांध लेती थी जो दूसरों पर अत्याचार करने में ही अपना लाभ समझती थी । वेद ने इस मंत्र के माध्यम से अनेकों बंदा बैरागियों को अपने देश , धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित किया था। हमारे रक्त में वेद का और वैदिक संस्कृति का संचार हो रहा था जो हमें सदियों तक शत्रुओं से लड़ने की प्रेरणा देता रहा ।
जैसे ही बंदा वीर बैरागी कुल्लू से होशियारपुर आया तो उसने फिर अपने राज्य का प्रबंध अपने हाथ में लेकर अलग-अलग सूबों के अलग-अलग सूबेदार नियुक्त किए । अब वह एक सशस्त्र सेना अपने साथ रख कर पंजाब की गली मोहल्लों में घूमने लगा। उसके आते ही इस पिशाचपन की वह प्रवृत्ति दुम दबाकर भागने लगी जो अभी तक वहां के हिंदुओं पर अत्याचार कर रही थी । हमारी बहन – बेटियों व माताओं के चेहरों पर मुस्कान लौट आई , जो अभी तक शत्रु के अत्याचारों को सहन कर रही थीं । सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । जबकि शत्रु पक्ष मारे भय के फिर पंजाब छोड़कर भागने लगा। बंदा बैरागी ने अपनी राजधानी लोहगढ़ का किला बनाया और पूरे पंजाब में फिर धर्म का शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की । शत्रु की गतिविधियां शांत हो गईं और जहां-जहां पर उसने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था वहां – वहां से शत्रु फिर इधर उधर भाग गया।
सामना करने के लिए मुगलों ने बनाई विशाल सेना
वीर बैरागी का पराक्रम मुगलिया हुकूमत के लिए रात की नींद और दिन का चैन छीन चुका था। यदि सपने में भी मुगल शासकों को दिखाई दे जाता था तो भी वे मारे भय के पलंग पर उछल पड़ते थे। इस हिंदू वीर योद्धा के पराक्रम का सामना करने के लिए भयभीत मुगलों ने 10 लाख की विशाल सेना तैयार की। उसके पश्चात बंदा बैरागी पर हमला किया गया। इसके उपरांत भी किसी मुगल योद्धा का यह साहस नहीं हुआ कि वह सीधे महापराक्रमी वीर बंदा बैरागी को गिरफ्तार कर ले। वीर बैरागी के पराक्रम से मुगल कितने भयभीत हो सकते थे ? - इसे इतिहासकार खफी खान की यह भाषा बता सकती है , " ये ( अर्थात बंदा और उसके साथी ) पापी कुत्ते लूट , मारकाट और बड़े छोटे सभी परिवारों के बालकों को बंदी बना और उन्हें पृथ्वी पर पटककर मारने और गर्भवती स्त्रियों को चीरने, मकान में आग लगाने और निर्धन धनी सभी का सर्वनाश करने में लग गए।" वह अन्यत्र लिखता है .........." मुसलमान सेना बड़ी कठिनाई से काफिरों के आक्रमणों का सामना कर सकी । धन सामान घोड़े हाथी सब काफिरों के हाथ चले गए और इस्लाम की सेना का एक भी योद्धा ऐसा न बचा जिसके पास पहने हुए कपड़े तथा अपने शरीर के अतिरिक्त कुछ भी बचा हो।"
विश्वासघात से किया गया गिरफ्तार
17 दिसंबर, 1715 को बहुत ही पीड़ादायक और षड़यंत्रपूर्ण परिस्थितियों में वीर बंदा बैरागी को पकड़ लिया गया। उन्हें अमानवीय यातनाएं देते हुए लोहे के एक पिंजड़े में बन्द कर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। गिरफ्तारी के समय उनके साथ अनेक सिक्ख/!हिंदू वीर सैनिकों को भी गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तार किए जाने वाले इन सैनिकों में बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जिन्होंने उनका हर कठिनाई में साथ दिया था। जितने हिंदू वीर सिखों ने इस युद्ध में अपना बलिदान दे दिया था, उनके सिरों को काटकर मुगल सैनिकों ने अपने - अपने भालों पर टांग लिया था। इसी अवस्था में इन सिरों को उठाकर उन मुगल सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।
रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का मांस नोचा जाता रहा।
दिल्ली लाकर काजियों के द्वारा हमारे इन वीर, पराक्रमी, स्वतंत्रताप्रेमी, क्रांतिकारी योद्धाओं को मृत्युदंड दिया गया। प्रतिदिन हमारे वीर योद्धाओं को प्राण दंड दिए जाने का क्रम आरंभ हुआ।
मेरी “हिंदू राष्ट्र स्वप्नदृष्टा: बंदा वीर बैरागी ” पुस्तक से
डॉ राकेश कुमार आर्य