यह बहुत ही विडंबनापूर्ण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अब जातिगत जनगणना की मांग कर डाली है। संघ के बारे में अभी तक मान्यता थी कि यह हिंदू समाज में समरसता उत्पन्न करने की दिशा में ठोस कार्य करेगा और जिस प्रकार वर्तमान परिस्थितियों में देश के हिंदू समाज को तोड़ने की कोशिशें सेकुलर पार्टियों के नेता जातिगत जनगणना की मांग करते हुए कर रहे हैं, उस पर अपना विपरीत मत रखते हुए सरकार के साथ खड़ा हुआ दिखाई देगा । परंतु अब आरएसएस ने दूसरा ही रास्ता पकड़ लिया लगता है। लगता था कि जिस प्रकार हमारे यहां जातियों को आधार बनाकर कुछ राजनीतिक पार्टियां समाज को लड़ा रही थीं, उस विमर्श को बदलने में आरएसएस प्रमुख भूमिका निभाएगा। विशेष रूप से तब जबकि कांग्रेस पहले दिन से ही वोट राजनीति करते हुए पहले दिन से ही जातिवाद को बढ़ावा देती आ रही थी।
हम सभी जानते हैं कि आज राहुल गांधी जिस प्रकार देश में जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं और देश के सर्वोच्च सदन लोकसभा में खड़े होकर मेज पर हाथ मार कर कह रहे हैं कि एक दिन हम जातिगत जनगणना के कानून को लागू करके रहेंगे, उसके पीछे नेहरूवादी चिंतन कम कर रहा है।” डिस्कवरी ऑफ इंडिया ” में नेहरू जी भारत की वर्ण व्यवस्था को ‘ फिरके ‘ के रूप में देखते हैं। वे कहते हैं कि भारत महज ‘ गिरोहों ‘ पर ध्यान देता था। मनुष्यों पर समाज और फिरके के रीति रिवाजों की कड़ी पाबंदी थी। इसका अभिप्राय है कि नेहरू जी वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिकता को नहीं जानते थे। उन्होंने उसे समझने पर ध्यान देना भी उचित नहीं माना। यही सोच राहुल गांधी की वर्तमान कांग्रेस की है।
नेहरू जी ने अंग्रेजों की भांति भारत में जातियों का वर्गीकरण और उनकी सामाजिक स्थिति को विकृत करने का काम किया। हम सभी भली प्रकार जानते हैं कि भारत की प्राचीन वर्णव्यवस्था कर्म के आधार पर थी। कर्म से ही व्यक्ति का वर्ण निश्चित किया जाता था, कर्म परिवर्तन से वर्ण परिवर्तन भी सम्भव था। इसलिए एक शूद्र के ब्राह्मण बनने की पूर्ण सम्भावना थी। कालान्तर में शिक्षा के अभाव, वर्ण व्यवस्था को परम्परागत बनाने की मानव की प्रकृति, (कुम्हार का बच्चा कुम्हार बन जाता है) तथा अपने-अपने वर्ण के लिए निश्चित कर्म (जैसे ब्राह्मण का कर्म वेद का पढऩा-पढ़ाना है) में बरते जाने वाले प्रमाद के कारण स्थिति बदल गयी और वर्णव्यवस्था हमारे लिए एक परम्परागत रूढि बन गयी। तब ब्राह्मण का कम पढ़ा-लिखा बच्चा भी ब्राह्मण माना जाने लगा। नेहरू जी ने भारत की इस विकृत अवस्था को ही भारत का सनातन मान लिया। राहुल गांधी भी सनातन की वास्तविकता को ना समझकर कुछ रूढ़ीगत परंपराओं को ही सनातन मान बैठे हैं।
जबकि सच्चाई यह है कि इस रूढि को समाप्त कर भारत की प्राचीन वर्णव्यवस्था को सुधारने की आवश्यकता है। परंतु नेहरू जी के प्रधानमंत्री रहते हुए भी इसमें कोई सुधार नहीं किया गया। जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था तो उनके सामने दो बातें थीं-एक तो वह भारत को सही अर्थ और संदर्भों में समझने और जानने के लिए तैयार नहीं थे, दूसरे वह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त अंतर्विरोधों और विसंगतियों को और भी अधिक गहरा करके उनका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने भारत के बारे में सर्वप्रथम यह तथ्य स्थापित किया कि यहाँ पर प्राचीन काल से बाहरी लोगों का आना लगा रहा। इस प्रकार की अवधारणा को स्थापित कर के अंग्रेज अपना उल्लू सीधा करना चाहते थे। उनकी सोच थी कि जब भारत के लोग इस बात को बार-बार पढ़ेंगे कि यहां पर कोई भी ऐसा वर्ग या संप्रदाय नहीं है जो यहां का मूल निवासी हो तो वह अंग्रेजों को भी सहज रूप में पचा लेंगे । अंग्रेजों ने प्रयास किया कि भारत के लोग यह मानें कि प्राचीन काल से भारत पर बाहरी लोग आ आकर अपना वर्चस्व स्थापित करते रहे। जो जीता वही मुकद्दर का सिकंदर बन गया। आज बारी अंग्रेजों की है।
माना कि अंग्रेज सरकार के सामने किसी प्रकार की समस्या थी और वह हमारे अंतर विरोधों को उभारकर अपना उल्लू सीधा करने का काम कर रही थी, परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी है कि वह सत्य को सत्य नहीं कह पा रहा है ?
भारत के संदर्भ में नेहरू जी की यह भी मान्यता थी कि ‘‘काफिले आते गये और हिन्दुस्तान बनता गया। ’’ अब अंग्रेजों की मजबूरी को तो समझा जा सकता है, परंतु नेहरू जी के सामने ऐसी कौन सी बाध्यता थी कि उन्हें भी अंग्रेजों के सुर में सुर मिलाकर ऐसा कहना पड़ा ? यदि आज नेहरू जी की समानता को लेकर राहुल गांधी काम कर रहे हैं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस प्रकार की मानसिकता को रोकने के लिए आगे आना चाहिए था परंतु उसने राहुल गांधी के सुर में सुर मिला दिया है ।ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को याद रखना चाहिए कि यदि आज जातिगत जनगणना की बात हो रही है तो कल को ” काफिले आते गए और हिंदुस्तान बनता गया ” की बात को समझने के लिए काफिलों के अर्थात देश की जातियों के मूल को भी खोजने का प्रयास किया जाएगा । तब सबको विदेशी सिद्ध कर दिया जाएगा और भारत ऋषियों का देश न रहकर काफिले वालों का देश बन जाएगा। हम खंड-खंड भारत की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं ?
हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने सरकार के लिए यह अनिवार्य किया है कि वह जाति ,धर्म और लिंग के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करेगी। वास्तव में संविधान निर्माताओं का यह चिंतन बहुत ही दूरदृष्टि भरा था। इसी के आधार पर सरकारों को आगे बढ़ना चाहिए था, परंतु जातियों को राजनीति के केंद्र में लाकर राजनीतिक दलों के नेताओं ने इनको अपने राजनीतिक हित साधने के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया। सामाजिक समरसता विभिन्न प्रकार की विषमताओं और विसंगतियों को मिटा कर ही स्थापित की जा सकती थी। परंतु हमने उस दिशा में काम करना बंद कर दिया। आज उसी का परिणाम है कि देश के समाज को तोड़ने की दिशा में राजनीति नंगी होकर रह गई है। जिसे नेहरू की जातिवादी सोच के उत्तराधिकारी राहुल गांधी विशेष रंगत दे रहे हैं।
नेहरू जी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया के पृष्ठ 167 पर लिखते हैं ” हिंदुस्तान के लोगों में आज सबसे खासतौर पर हिंदुस्तान और हिंदुस्तान संस्कृति और परंपरा पर गर्व करने वाले ,अगर कोई हैं तो राजपूत हैं । ( ” राजपूत ” शब्द भारत की क्षत्रिय परंपरा के सभी लोगों के लिए महाराणा कुंभा द्वारा एक विशेष बैठक आहूत करके स्थापित किया गया शब्द है। उससे पहले भारत के क्षत्रियों को राजपूत नहीं कहा जाता था। महाराणा कुंभा ने देश – काल- परिस्थिति के अनुसार महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए सभी क्षत्रियों को भगवा झंडा के नीचे लाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर ऐसा किया था। ‘ सर्वखाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम ‘ (प्राचीन विशाल हरियाणा) नामक पुस्तक के लेखक निहाल सिंह आर्य अध्यापक हमें इस संबंध में जानकारी देते हुए अपनी पुस्तक के पृष्ठ 177 पर बताते हैं कि चित्तौड़गढ़ में संवत 1523 में राणा कुंभा ने एक विशेष पंचायत का आयोजन किया था। राणा ने सबको अपने संबंध सूत्र में बांध लिया । उनसे आपसी संबंध भी कराए। भीतरी ऊंच नीच भाव हटवा डाले। इन सरदारों में राठौर, तंवर , कछुवाहे , डांडे, चौहान ,सिकरवार आदि सभी खापों के थे। राणा ने जाट, गुर्जर ,अहीर ,रोड और सैनी आदि सभी कुलों के वीरों को एक सूत्र में बांध दिया। यह सब वीर कुल राजकुलों से संबंध रखते थे । देश की अवस्था पलट रही थी। कोई नहीं गया कोई नहीं । राणा कुंभा के प्रयास से यह सरदार एक सूत्र में एक नाम के अधीन पिरो दिए गए। इन सब कुलों को मिलाकर राजपूत शब्द प्रचलित किया गया। क्योंकि यह सब राजाओं के पुत्र थे। इसलिए यह शब्द दिया गया । आगे चलकर यह राजपूत शब्द जाति में बंध गया और अलग जाति हो गई। यह राणा का बहुत बड़ा सामाजिक सामूहिक सुधार था।…. राणा कुंभा कहा करता था कि यदि ब्राह्मण वर्ण वेद मार्ग पर चलें, स्वामी शंकराचार्य की शिक्षा को ध्यान में रखें, पौराणिक कुमत में ना पड़ें। स्वार्थ भाव और अहमान्यता न करके वीर कुलों को वापस विवाह आदि संबंधों में बांधने का यत्न करें, आपसी विरोध और छोटाई , बड़ाई को निकाल डालें। देश के उपकार में बुद्धि का प्रयोग करें तो बहुत शीघ्र देश का पुराना वैभव लौट सकता है।” इस तथ्य से नेहरू जी यदि परिचित होते तो वह ऐसा कोई कथन अपनी पुस्तक में नहीं लिखते। ) उनकी बहादुरी के कारनामे गुजरे हुए जमाने में इसी परंपरा के जिंदा अंश थे। लेकिन कहा जाता है कि बहुत से राजपूत भारतीय सिदियनों के वंशज हैं ( नेहरू जी फिर एक गलत अवधारणा को स्थापित कर गए। सही बात यह है कि राजपूत, गुर्जर, जाट, अहीर जो भी क्षत्रिय जातियां हैं, ये सभी प्राचीन आर्यों के क्षत्रिय वर्ण को मानने वाली रही हैं। ) और कुछ उन हूणों के भी जो हिंदुस्तान में आए थे। जाट से ज्यादा मजबूत और अच्छा किसान आज हिंदुस्तान में नहीं मिलेगा। जिसने धरती से अपना नाता जोड़ लिया है और अपनी जमीन में किसी किस्म का हस्तक्षेप नहीं बर्दाश्त कर सकता। वह भी मूल में सिदियन है। ( जाट समाज के लिए नेहरू जी की यह अवधारणा भी नितांत भ्रामक और असत्य है ) इसी तरह काठियावाड़ का लंबा और खूबसूरत किसान कट्ठी भी है। हमारे यहां के लोगों में से कुछ की नस्ल की शुरुआत कमोबेश निश्चय के साथ बताई जा सकती है। दूसरों के बारे में ऐसा कह सकना मुमकिन नहीं होगा। लेकिन मूल में जो भी रहा हो, सभी साफ-साफ हिंदुस्तानी बन गए हैं और दूसरों के साथ-साथ हिंदुस्तानी संस्कृति के अंग हैं और हिंदुस्तान की पुरानी परंपरा को अपनी परंपरा मानते हैं।”
हमारा मानना है कि जिस प्रकार का कार्य कभी महाराणा कुंभा ने किया था, उसी प्रकार के कार्यों का अनुकरण करते हुए समाज की विभिन्नताओं को एकता में समेटने का कार्य किया जाए । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ऐसे कार्य की सबसे अधिक अपेक्षा की जा सकती है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)