भारत की ऐसी अनेकों नारियां हुई हैं जिन्होंने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपने वे वैदुष्य का परचम लहराया है । इन्हीं में से एक महान विदुषी भारती थीं । जो कि उस काल के परम विद्वान मंडन मिश्र की पत्नी थीं ।आदि शंकराचार्य एक ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने अपने समय में भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में संसार भर में विशेष ख्याति प्राप्त की थी । भारतीय धर्म , संस्कृति के उद्भट प्रस्तोता और महान विद्वान के रूप में माने जाने वाले आदि शंकराचार्य को हमारे देश की इसी महान विदुषी भारती से एक शास्त्रार्थ में पराजित होना पड़ा था ।
भारत की यह महान विदुषी नारी ज्ञान – विज्ञान के रूप में विशेष स्थान रखने वाले भारत के बिहार प्रांत की रहने वाली थीं । भारती के पति मंडन मिश्र मिथिलांचल में कोसी नदी के किनारे स्थित महिषि में रहते थे। इस काल में आदि शंकराचार्य की एक महान विद्वान के रूप में ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी । भारत ने प्राचीन काल से ही इस सत्य को स्वीकार किया है कि ज्ञान – विज्ञान की परंपरा को सतत प्रवाहित किए रखने के लिए यह आवश्यक है कि विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ होता रहे । शास्त्रार्थ से सत्य दबता नहीं है , अपितु लोगों के हृदय स्थल में उतरकर और भी अधिक मजबूती के साथ स्थापित हो जाता है। बस , इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे ऋषि लोग प्राचीन काल से ही बड़े-बड़े शास्त्रार्थों का आयोजन करते रहे हैं ।आदि शंकराचार्य हों या कोई अन्य ऋषि महात्मा हों ,वे सभी अच्छे विद्वान लोगों को ढूंढ – ढूंढ कर उनसे शास्त्रार्थ किया करते थे।
शास्त्रार्थ के माध्यम से सत्य को खोजना और उसे स्थापित करना भारत की मौलिक परंपरा है । इसके स्थान पर जिन लोगों ने इस मत का प्रचलन किया कि ब्राह्मण ( यहां जाति दम्भ रखने वाले लोगों की ओर हमारा संकेत है ) जो कुछ भी कह रहा है या गुरुजी ने जो कुछ बोल दिया वही सत्य है , यह भारत की मौलिक परंपरा नहीं है । इस प्रकार की परंपरा को स्थापित करने वाले कुछ धूर्त्त और मक्कार लोग रहे । जिन्होंने सत्य को तर्क के आधार पर तोलने की जनसाधारण की या किसी भी विद्वान की मौलिक चेतना को प्रतिबंधित कर दिया । इससे हमारा देश अज्ञान और अविद्या के अंधकार में चला गया । जिसका परिणाम हमें गुलामी के रूप में भुगतना पड़ा ।
उस काल में ऐसा कोई ज्ञानी नहीं था जो शंकराचार्य से धर्म और दर्शन पर शास्त्रार्थ कर सके अथवा विशेष शास्त्रार्थ की चुनौती को स्वीकार कर सके । शंकराचार्य देशभर के साधु-संतों और विद्वानों से शास्त्रार्थ करते रहते थे । जिससे कि भारत के सनातन ज्ञान – विज्ञान की परंपरा को अक्षुण्ण रखा जा सके और उन शास्त्रार्थों के माध्यम से जनसाधारण भी लाभान्वित होता रहे। अपने इसी प्रकार के अभियान के अंतर्गत घूमते – फिरते शंकराचार्य जी मंडन मिश्र के गांव पहुंचे । जिनके बारे में उन्होंने पूर्व में बहुत कुछ सुन रखा था कि मंडन मिश्र परम विद्वान हैं । अतः स्वाभाविक था कि ऐसे विद्वान के साथ उनका शास्त्रार्थ हो । कहा जाता है कि मंडन मिश्र के गांव में प्रवास करते हुए शंकराचार्य जी का उनसे 21 दिन तक निरंतर शास्त्रार्थ चला । जिसमें उन्होंने अंत में मंडन मिश्र को पराजित कर दिया।
मंडन मिश्र की पत्नी भारती भी परम विदुषी थीं । आदि शंकराचार्य इस बात को भली प्रकार जानते थे कि भारती भी विदुषी हैं । इसीलिए जब उनका भारती के पति मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ चल रहा था तो शास्त्रार्थ में कौन पराजित हुआ और कौन विजयी हुआ ? – इसका निर्णय करने का अधिकार भी शंकराचार्य जी ने भारती को ही प्रदान किया । भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की यह कितनी अद्भुत घटना है और भारत की कितनी महान परंपरा है कि एक विद्वान दूसरे विद्वान की पत्नी को ही शास्त्रार्थ की निर्णायक बना रहा है और वह पत्नी भी कितनी महान है कि अपनी निष्पक्ष भूमिका निभाते हुए और अपनी न्यायशील बुद्धि का परिचय देते हुए इस बात में कोई संकोच नहीं कर रही कि पराजित कौन हुआ और विजयी कौन हुआ ? क्योंकि वह जानती थी कि सत्य का प्रवाह कहीं भी बाधित न होने पाए और लोगों तक सत्य सत्य के रूप में ही पहुंचे ।
समय आने पर निर्णायक क्षणों में भारती ने जहां अपने पति की पराजय घोषित करने में देर नहीं की वहीं उन्होंने अपने पति के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण को स्पष्ट करते हुए साथ ही साथ शंकराचार्य को भी चुनौती दे डाली कि माना कि उनके पति शास्त्रार्थ में पराजित हो गए हैं परंतु मैं उनकी अर्धांगिनी हूं , इसलिए मेरी पराजय के पश्चात ही उनकी पूर्ण पराजय मानी जाएगी । अतः अब आप मेरे से शास्त्रार्थ करें।
शास्त्रार्थ के आरंभ में ही शंकराचार्य जी ने मंडन मिश्र के समक्ष यह शर्त रख दी थी कि शास्त्रार्थ में जो भी हारेगा उसे ही दूसरे का शिष्य बनना पड़ेगा । ऐसे में भारती मिश्र के समक्ष यह प्रश्न गंभीर रूप में खड़ा हुआ था कि अब उनके पति मंडन मिश्र को शंकराचार्य जी का शिष्यत्व स्वीकार करना होगा । यही कारण रहा कि उन्होंने अपने पति के सम्मान के लिए स्वयं ही शंकराचार्य जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दे डाली ।
यहां पर शंकराचार्य जी की विद्वता , उदारता और महानता भी स्वीकार करनी होगी । जिन्होंने एक नारी की चुनौती को स्वीकार किया । यदि आज का कोई विद्वान उनके स्थान पर होता तो बहुत संभव है कि वह यह कहकर अपना पीछा छुड़ाने का प्रयास करता कि मैं किसी महिला से किसी प्रकार का संवाद या शास्त्रार्थ नहीं करूंगा। इसके विपरीत उन्होंने सत्य के स्थापित कराने के उद्देश्य से विदुषी भारती के शास्त्रार्थ की चुनौती को भी स्वीकार किया । इससे शंकराचार्य जी का भारत की उस सनातन परंपरा के प्रति गहन विश्वास प्रकट होता है जिसमें व्यक्ति की पराजय महत्वपूर्ण नहीं है , अपितु सत्य का सत्य के रूप में स्थापन किया जाना अधिक महत्वपूर्ण है । इसी महान परंपरा का निर्वाह करते हुए भारत के इस महान आचार्य ने निरंतर अगले 21 दिन तक मंडन मिश्र की पत्नी भारती से अपना शास्त्रार्थ जारी रखा।
दोनों विद्वानों के मध्य 21 दिन तक भारतीय शास्त्रों के ऊपर गहन मंथन चलता रहा । बड़े-बड़े गंभीर प्रश्न उठ रहे थे और सभी का उत्तर बड़े मनोयोग से दोनों पक्ष देते जा रहे थे । तर्कशक्ति दोनों की ही प्रबल थी , इसलिए प्रश्नों के उत्तर उसी तार्किकता के साथ आ रहे थे जिस तार्किकता के साथ उन्हें एक पक्ष दूसरे से पूछ रहा था । भारती महिला होने के उपरांत भी शंकराचार्य जी के प्रत्येक प्रश्न का बड़ी गंभीरता और तार्किकता के साथ प्रतिउत्तर देती जा रही थीं । तर्क युद्ध देखने योग्य था । दो तर्क महारथी जिस प्रकार एक दूसरे के तर्क बाणों को काट रहे थे , उससे परिवेश बहुत ही आनंददायक बन रहा था। 21वें दिन भारती को कुछ ऐसा आभास हुआ कि अब वे शंकराचार्य से हार जाएंगी।
तब भारती ने शंकराचार्य से एक नया प्रश्न पूछ लिया। जिसका व्यावहारिक ज्ञान आदि शंकराचार्य को नहीं था । बस , इसी मोड़ पर आकर शास्त्रार्थ उस दिशा में बढ़ने लगा जिसने भारती को शंकराचार्य जी पर हावी कर दिया। उन्होंने शंकराचार्य जी से पूछा- काम क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है और इससे संतान की उत्पत्ति कैसे होती है?
आदि शंकराचार्य तुरंत प्रश्न की गहराई समझ गए। प्रश्नों का कोई व्यावहारिक ज्ञान न होने के कारण शंकराचार्य जी भारती के प्रश्नों के में उलझ गए और वह उनका कोई संतोषजनक उत्तर न दे सके । अंत में उन्हें इस मोड़ पर आकर अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी ।
मूल रूप से एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्मे मंडन मिश्र सहरसा जिले के महिषी गांव के रहने वाले माने जाते हैं । इनके द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ ब्रहमसिद्धि है। मंडन मिश्र की कृतियों में निधि विवेक, भावना विवेक, विभ्रम विवेक, मीमांसा सुत्रानुमनी, स्फोटसिद्धि, ब्रह्मसिद्धि आदि प्रसिद्द हैं। इसके अतिरिक्त मीमांसा के प्रसिद्ध विद्वान् मण्डन मिश्र को व्याकरण प्रसिद्ध पुस्तक “स्फोटसिद्धि” के लेखन का श्रेय भी दिया जाता है।
आज की नारी को भारती के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए । जिसने अपने पति की पराजय को विजय में परिवर्तित करने के लिए शंकराचार्य जैसे महान विद्वान को अपनी तर्क शक्ति से पराजित किया । साथ ही भारत की ज्ञान – विज्ञान की परंपरा को बनाए रखने में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । उनका जीवन बताता है कि नारी की महानता नाचने – गाने वाली बनने में नहीं है , न ही फिल्मों में जाकर अपनी देह का सौदा करने में उसकी महानता है , अपितु इसके विपरीत वह अपनी बौद्धिक क्षमताओं का पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से प्रदर्शन करे , इसी में उसकी सशक्तिकरण की इच्छा छुपी हुई है । ऐसा करने से ही उसे सशक्त महिला के रूप में जाना जा सकेगा।
साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करने के लिए हमें अपने सांस्कृतिक इतिहास को सजीवता के साथ अपनी नई पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करना होगा।
( 15 दिसंबर 2019 को पूर्व में प्रकाशित )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत