ऋतम्भरा तुलाधार और जाजलि
ॐ ।। आध्यात्मिक योग यात्रा ।। ॐ
काशी में तुलाधार नामक वैश्य रहते थे, जो भक्तिमान, कर्तव्यनिष्ठ, धर्मात्मा, चिन्तनशील और सत्यवादी थे। ये व्यापार करते हुए भी जल में रहने वाले कमलपत्र के समान निर्लिप्त रहे। प्राणिमात्र के साथ प्रेम का व्यापार करते थे। श्रद्धा, सदाचार, वर्णाश्रम, धर्म,समता सत्य और निष्काम सेवा आदि गुणों के अभ्यास से तुलाधार को आलौकिक ज्ञान हुआ । ये त्रिकालदर्शी और अपने समय के ख्याति प्राप्त गृहस्थ सन्त थे।
उन्ही दिनों जाजलि नामक एक ब्राह्मण समुद्र के तट पर घोर तपश्चर्या परायण रहा। वह यम नियम आदि अष्टांगयोग का अभ्यास करके योग की उच्चभूमिका में अवस्थित हो गया। एक दिन जब वह जल में स्थित होकर ध्यान कर रहा था, तब ऋतम्भरा प्रज्ञा से उसको सृष्टि सम्बन्धित सूक्ष्म विज्ञान अनुभूत हुआ। पुरुष तथा प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों का हस्तकमलवत साक्षात बोध हुआ। इसके साथ ही साथ उसके चित्त में यह गर्व भी आ गया है कि मेरे समान दिव्य दृष्टि और कोई नही है । इस अहंकारात्मक भाव के उदित होने पर आकाशवाणी के माध्यम से उसी समय यह उपदेश प्राप्त हुआ कि विप्रवर आपका यह अभिमानात्मक भाव अनुचित है। काशी के तुलाधारी वैश्य भी ऐसा अभिमान नही करते , जो आपके अनुभव से भी अधिक अनुभव रखते हैं। इस आकाशवाणी के पश्चात तापस प्रवर जाजलि के मन में तुलाधार के दर्शन की उत्कंठा हुई और वह तीर्थयात्रा करता हुआ काशी में तुलाधार के यहाँ आगये । जाजलि ने देखा कि सन्त तुलाधार अपनी दुकान पर व्यापार कार्यरत्त है। जाजलि को देखते ही तुलाधार उठ खड़े हुए, उनका स्वागत करके मधुर वाक्यों में बोले कि विपरेन्द्र आप मेरे यहाँ आए हैं। आपने असाधारण तपस्या करके दिव्य ज्ञान प्राप्त किया और उससे आपको अभिमान हुआ। इसके पश्चात आकाशवाणी के द्वारा आपको मेरे विषय में ज्ञान हुआ । इसीलिए आप यहाँ आ रहे हैं। अब आप कहिये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?
तुलाधार की इन बातों को सुनकर जाजलि को आश्चर्य हुआ और उसने जिज्ञासा की कि आपको यह आलौकिक ज्ञान किस प्रकार प्राप्त हुआ है? तुलाधार ने कहा कि –
दिव्यज्ञान का अधिकारी जो पुरुष अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए किसी भी प्राणी का अहित नही करता और शरीर से, वाणी से, वाणी से और मन से दूसरों का उपकार करता है, उसके लिए विश्व में कोई वस्तु दुर्लभ नही है। इन्हीं गुणों का पालन करके कुछ अंश में मुझे भी ज्ञान हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व परमात्मा से व्याप्त है। जो पुरुष इच्छा, द्वेष और भय का परित्याग करके दूसरों के भय का कारण नही होता तथा किसी का अहित नही सोचता वह वास्तविक ज्ञान का अधिकारी है।
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