प्रियांशु सेठ
जब तक इन बातों का ज्ञान न हो जाय,तब तक अपने प्रियतम को कैसे पहचाने?कैसे समझे कि हम किसके दर्शन कर रहे हैं या हमें दर्शन हो गए?
याज्ञवल्क्य ने एक बार गार्गी से कहा था-
“ब्रह्म के जाननेवाले उसे अक्षर,अविनाशी,कूटस्थ कहते हैं।वह न मोटा है,न पतला।न छोटा है,न लम्बा।न अग्नि की तरह लाल है।यह बिन स्नेह के है,बिना छाया के और बिना अंधेरे के है।न वायु है,न आकाश है।वह अप्रसंग है।रस से रहित,गन्ध से रहित है।उसके नेत्र नहीं,कान नहीं,वाणी नहीं,मुख नहीं,मात्रा नहीं।”
(बृह० ३।७।७)
“वह महान् है।दिव्य है।अचिन्त्य रूप है।सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर प्रतीत होता है।वह दूर से अधिक दूर है।तथापि यहां ही हमारे निकट है।देखनेवालों के लिए वह यहीं(हृदय की गुफा में)छिपा हुआ है।”
फिर इसी उपनिषद्(२।२।१)में लिखा है-
“वह हर जगह प्रकट है,निकट है।गुहाचर(हृदय की गुफा में विचरनेवाला)प्रसिद्ध है।वह एक बड़ा आधार है,जिसमें यह सब पिरोया हुआ है,जो चलता है,सांस लेता है और आंख झपकता है।यह सारा स्थूल और सूक्ष्म,जो तुम जानते हो,यह सब उसी में पिरोया हुआ है।वह पूजा के योग्य है।सबसे श्रेष्ठ है।प्रजाओं की समझ से परे है।”
वेदों में उसका वर्णन इस प्रकार है-
१.
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुष:।
पादोअस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।
ऋ० १०।९०।३; यजु० ३१।३।।
‘इतनी बड़ी(भूत,भविष्यत् और वर्तमान काल से सम्बद्ध जितना जगत् है,यह सारी)इस प्रभु की महिमा है और प्रभु स्वयं इससे बड़ा है।(तीनों कालों में होने वाले)सारे भूत इसका एक पाद है और इसका(शेष)विपाद जो अमृत एवं अविनाशी-स्वरूप है,वह अपने प्रकाश में है।”
प्रयोजन यह है कि उसकी तो कोई सीमा है नहीं।हां, कुछ दिग्दर्शन कराने के लिए कह दिया कि यह सारी दुनिया,ये सारे लोक,ये सारी पृथिवियाँ,ये सारे नक्षत्र इत्यादि,ये सब उसके एक पैर में आते हैं।बाकी तीन पैर अभी और हैं।
२.
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।।
ऋ० १।१६४।४६।।
“उस एक शक्ति को अनेक रूपों में वर्णन करते
हैं;इन्द्र,मित्र,वरुण और अग्नि कहते हैं।वही दिव्य सौन्दर्य का
भण्डार है।उसी प्रकाशस्वरूप प्रभु को यम और मातरिश्वा कहते हैं।”
३.
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आप: स प्रजापति:।।
यजु० ३२।१।।
“वही अग्नि, वही आदित्य, वही वायु, वही चन्द्रमा, वही शुक्र, वही ब्रह्म, वही जल और वही प्रजापति है।”
४.
य: पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्य: पर्वतान् प्रकुपितां अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्र:।।
ऋ० २।१२।२।।
“जिसने(आदि में पिघली हुई होने के कारण)लहराती हुई पृथिवी को दृढ़ जमा दिया और जिसने प्रकुपित हुए(आदि में अग्नि-वर्षण करते हुए)पर्वतों को शान्त किया,जिसने अन्तरिक्ष को बड़ा विशाल बनाया,जिसने द्यौ को धारण किया,हे मनुष्यों!वही शक्तिशाली प्रभु है।”
५.
यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुर्नैषो अस्तीत्येनम्।
सो अयं पुष्टीर्विज इवा मिनाती श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्र:।।
ऋ० २।१२।५।।
“जिसके विषय में पूछते हैं वह कहाँ है और कई यहां तक कह देते हैं कि वह नहीं है,वही है जो कि भयंकर बनकर ऐसे शत्रुओं(घमण्ड में उनकी प्रजा की पीड़ित करनेवालों)की पुष्टियों को शक्तियों की तरह मरोड़ डालता है,उसके लिए श्रद्धा रखो।हे मनुष्यों, वही शक्तिशाली प्रभु है।”
६.
यो रघ्रस्य चोदिता य: कृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरे:।
युक्तग्राव्णो योअविता सुशिप्र: सुतसोमस्य स जनास इन्द्र:।।
ऋ० २।१२।६।।
“जो दीन-दुःखियों को हिम्मत बंधाता है,जो विपद्ग्रस्त भक्त की पुकार सुनता है,जो यज्ञमय जीवन-धारियों का प्रतिपालक है,लोगों!वही सुन्दर और छबीला देव इन्द्र है।”
७.
यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्।
विवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।
अ० १०।७।३२।।
“भूमि उसकी पाद-प्रतिष्ठा है।अन्तरिक्ष उसका उदर है।द्युलोक उसका माथा है।उस परम ब्रह्म को प्रणाम हो!”
८.
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णव:।
अग्निं यश्चक्र आस्य तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।
अ० १०।७।३३।।
“सूर्य और नित्य नया चन्द्रमा उसकी आंखें हैं,आग उसका मुख है।उस परम ब्रह्म को नमस्कार हो!”
९.
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरदृश्यमानो बहुधा वि जायते।
अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्ध कतम: स केतु:।।
अ० १०।८।१३।।
“वह प्रजापति(सबके)अन्दर विराजमान है।वह दिखाई नहीं देता(पर)नाना प्रकार से प्रकट हो रहा है।सकल संसार उस(की शक्ति)के एक भाग का फल है।शेष भाग की क्या कहें?और कैसे कहें?”
१०.
यत: सूर्य उदेत्यस्तं यत्र च गच्छति।
तदेव मन्येअहं ज्येष्ठं तदु नात्येति किं चन।।
अ० १०।८।१६।।
“सूर्य उसी से उदय होता और उसी में लीन हो जाता है।सचमुच वही सबसे बड़ा है।उसके बराबर और कोई नहीं हो सकता।”
ऐसा ईश्वर रहता कहाँ है?कोई भी तो ऐसा स्थान नहीं,जहां वह न रहता हो।परन्तु उसके दर्शन हृदय ही में होते हैं।उपनिषद् ने उसका पूरा पता भी बता दिया है-
सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात्सर्वगत: शिव:।।
श्वेताश्वतर ३।११।।
“वह भगवान् सब ओर मुख,सिर और ग्रीवावाला है।सर्वव्यापी है और समस्त प्राणियों की हृदयरूपी गुफा में निवास करता है।इसलिए वह(शिव)कल्याण-स्वरूप प्रभु सब जगह पहुंचा हुआ है।”
अंगुष्ठमात्र: पुरुषोअन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।
श्वेताश्वतर ३।१३।।
“अंगुष्ठ-मात्र परिणामवाला अन्तर्यामी परम पुरुष(परमेश्वर)सदा ही मनुष्यों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित है।मन का स्वामी है तथा निर्मल हृदय और शुद्ध मन से ध्यान में लाया जाता है(प्रत्यक्ष होता है)।जो इस परब्रह्म परमेश्वर को जान लेते हैं;वे अमर हो जाते हैं।”
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोअस्य जन्तो:।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातु: प्रसादान्महिमानमीशम्।।
श्वेता० ३।२०।।
“वह सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म और बड़े से भी बहुत बड़ा परमात्मा,जीव-हृदयरूपी गुफा में छिपा हुआ है।उस सबकी रचना करने वाले,प्रभु की कृपा से(जो भक्त)इस संकल्प-रहित प्रभु को और उसकी महिमा को देख लेता है,वह सब प्रकार के दुःखों से रहित हो जाता है।”
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नात: परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।
श्वेता० १।१२।।
“इसको जानो,जो सदा तुम्हारे आत्मा में वर्तमान है।इससे परे कुछ जानने योग्य नहीं है।”
शंकर भगवान् ने ‘शिवधर्मोत्तर’ से जो श्लोक आत्मदर्शन के सम्बन्ध में प्रमाण दिए हैं,उनमें से पहले श्लोक में यह लिखा है-
शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिन:।
“योगीजन शिव को अपने आत्मा में देखते हैं,न कि प्रतिमाओं में।”
यहां निम्न उदाहरणों द्वारा प्रश्नों का उत्तर देकर सरलतापूर्वक समझाने का प्रयत्न किया है।
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