परम व्योम अर्थात् अन्तरिक्ष से परे क्या है?
हमारी श्रद्धा भक्ति कहाँ स्थापित होती है?
यह सृष्टि कहाँ पर स्थापित है?
द्विता वि वव्रे सनजा सनीळे अयास्यः स्तवमानेभिरर्कैः।
भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसाः ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.62.7 (कुल मन्त्र 717)
(द्विता) दो प्रकार से (वि) विशेष रूप से (वव्रे) स्वीकार करता है, स्थापित करता है (सनजा) प्राचीनकाल से (सनातन) (सनीळे) परमात्मा में स्थापित, परमात्मा के निकट (अयास्यः) असीमित शक्तियाँ (अपराजेय) (स्तवमानेभिः) प्रशंसा और महिमाओं के साथ (अर्कैः) मन्त्र (भगः) सुख-सुविधाएँ (न) जैसे (मेने) महिमा को प्रगट करने वाला (परमे) सर्वोच्च, से परे (व्योमन) अन्तरिक्ष (अधारयत्) धारण करता है (रोदसी) दोनों (द्युलोक तथा भूमि, आन्तरिक तथा बाहरी पूजा) (सुदंसाः) उत्तम कार्यों को करने वाला।
व्याख्या:-
यह सृष्टि कहाँ पर स्थापित है?परम व्योम अर्थात् अन्तरिक्ष से परे क्या है?
परमात्मा ने प्राचीनकाल से इस सृष्टि को दो प्रकार से स्थापित किया है। सनातन परमात्मा ने यह कार्य अपनी असीमित और अथक शक्तियों से महिमावान् और प्रशंसित मंत्रों के साथ किया है। दोनों परमात्मा के बीच, परमात्मा के अत्यन्त निकट स्थापित है। यह सृष्टि पूर्ण सुविधाओं को प्रदर्शित करने वाली परमात्मा की महिमा और शान है जो उत्तम कार्य करता है और दोनों को धारण करता है (द्युलोक तथा पृथ्वी, बाहरी और आन्तरिक पूजा)। जबकि वह स्वयं असीम है अर्थात् परमे व्योमन है। वह सर्वोच्च तथा अन्तरिक्ष से परे है।
जीवन में सार्थकता: -हमारी श्रद्धा भक्ति कहाँ स्थापित होती है?
‘वव्रे’ का अर्थ है स्थापित और स्वीकार करने वाला। इस मन्त्र का आध्यात्मिक अर्थ भी निकलता है। परमात्मा स्तुति करने वाले और प्रशंसा करने वाले मंत्रों तथा श्रद्धा भक्ति को प्राचीनकाल से अपने निकट अन्तरिक्ष में स्वीकार करता रहा है। आन्तरिक ध्यान-साधना या बाहरी रूप से परमात्मा की प्रशंसा और स्तुति के रूप में हमारे अथक प्रयासों से हम दिव्यता के अन्तरिक्ष तक पहुँच सकते हैं जो एक साधक के लिए सबसे सुविधाजनक उपलब्धि है।
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