महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ
भाग 1
१. जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण कर्म स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७)
२. जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ सुख के लिए दे रखे हैं उसके गुण भूल जाना ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७)
३. जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया या मूठी में धर लिया ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता क्योंकि आकाश अनन्त और सब में व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता वैसे ही अनन्तर सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना कभी नहीं सिद्ध हो सकता। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७)
४. जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे। अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७)
५. दिन और रात्रि के सन्धि में अर्थात् सूर्योदय और अस्त समय में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४)
६. जब तक इस होम का प्रचार रहा तब तक आर्य्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७)
७. इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७)
८. ‘जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को “जीव” मानता हूँ।’ (सत्यार्थ.-स्वमन्त.)
९. क्या पाषाणादि मूर्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी लाया जा सकता है? नहीं नहीं, मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिर कर चकनाचूर हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११)
१०. जैसे “शक्कर-शक्कर” कहने से मुख मीठा नहीं होता वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये बिना “राम-राम” कहने से कुछ भी नहीं होगा। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११)