लेखक- स्वामी चिदानंद संन्यासी (भूतपूर्व महासचिव, भारतीय हिंदू शुद्धि सभा)
[भूमिका- क्या आप जानते हैं कि शुद्धि व्यवस्था जिसे आजकल हम घर-वापसी कहते हैं, को आंदोलन बनाने की शुरुआत आर्यसमाज के विद्वान् संन्यासी स्वामी श्रद्धानंद ने की थी। भारत में जब ईसाई और मुसलमानों की कपटी और क्रूरता भरी नीति ने लाखों हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन कर डाला था, तो उस दौर में स्वामी श्रद्धानंद जी ने लाखों की तादाद में ईसाई और मुसलमान बन चुके हिंदू भाइयों और माताओं की शुद्धि करके हिंदू समाज की रक्षा की। वास्तव में, स्वामी दयानंद की आर्यसमाज रूपी क्रांति ने हिंदू समाज को जीना सीखा दिया । -प्रियांशु सेठ]
आज से एक हज़ार वर्ष पूर्व मोहम्मदी आक्रमणकारियों ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया। जो-जो अन्याय और अत्याचार उन्होंने आर्य जाति के साथ किये हैं, उन्हें सभी इतिहास वेत्ता जानते हैं। उन अत्याचारों और अन्यायों का सान्मुख्य करने के लिये ही आर्य जाति ने, राणा प्रताप और क्षत्रपति शिवाजी से नररत्न, समर्थ गुरु रामदास और गुरु नानक से साधु, गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द से धर्म तथा राजनीति के शूरवीर उत्पन्न किये। जिन्होंने आर्यवर्त में इस्लाम के राजकीय शासन का तख़्त हिला कर डामाडोल और निर्बल कर दिया। परन्तु हिन्दू समाज जहाँ क्षात्र शक्ति के अस्त्रों से स्वधर्म रक्षा के यज्ञ में लगा हुआ था, वहाँ साथ ही साथ जातीय वैमनस्य ने पारस्परिक शत्रुता का रूप पकड़ लिया जो आगे आकर हमारा ही घातक बन गया और अब तक भी बना हुआ है।
यद्यपि सिक्ख गुरुओं ने आर्यजाति की रक्षा के लिये मुसल्मानफौजी मज़हब का सान्मुख्य करने के लिये क्षात्रशक्ति और तदनुसार कृपाण को हाथ में पकड़ कर अपने सुगम धर्म (सिक्ख) की स्थापना की। जो सबको मिलाता और ग्रहण करता जाता था। किन्तु वह सम्प्रदाय इस्लाम की कट्टर धर्मान्धता के दाँत खट्टे करके भी आप जाति के पारस्परिक वैमनस्य और छुआछूत के दुर्ग को भेदन न कर सका। समय ने पलटा खाया और इस्लाम की क्षात्रशक्तियाँ छिन्न भिन्न हो गईं। जब तलवार की शक्ति जाती रही और बाह्य तीसरी शक्ति ने भारतवर्ष में आकर हिन्दू मुस्लिम दोनों ही जातियों को अपने हाथों में दबोच लिया। जिसका भयंकर परिणाम यह हुआ, कि इस्लाम तथा उस के साथ-साथ नवागत ईसाई मत ने भी आर्य जाति की इस निर्बलता, पृथकता, वैमनस्यता और मूर्खता का अनुभव कर पूरा पूरा लाभ उठाने का संकल्प किया। हर जगह और हर प्रकार से अनाथ बच्चों को, विधवाओं को, तथा हिन्दू धर्म के विशेष ज्ञान से अपरिचत आँगल प्रदेशों में रहने वाले हिंदू स्त्री-पुरुषों और दलित जातियों को अपने माया फरेब से निरन्तर अपने गल्ले में लाने और मिलाने का क्रम जारी रखा। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ, कि आठ सौ वर्ष के भीतर-भीतर पौने सात करोड़ हिन्दुओं को इस्लाम में, और अनुमानतः 46 लाख हिंदुओं को इसाई गल्ले के अन्दर समेट लिया।
आर्यजाति के इस भयंकर धर्मसंकट को देखकर एक तेजस्वी और महात्मा का आर्यजाति में प्रादुर्भाव हुआ। जिसका ध्यान सहसा इस दुर्दशा की ओर आकर्षित हुआ और उसने अपनी तपस्या, विद्वत्ता तथा तेज आर्यजाति की सेवा के लिये अर्पण कर उसे बचाने के लिये श्रुति-स्मृति से विमुख ‘किं कर्तव्य विमूंढ़’ जाति के लिये “शुद्धि = ब्रह्माण्ड” के द्वारा आर्यजाति की रक्षा हो सकती है। ऐसा निश्चय करके उसके सामने रक्षा का उद्देश्य रख दिया। परन्तु रूढ़ियों को छुड़ाने और पार्शक्य पन की ग्रन्थियों को खोलने के लिये भीषण प्रयास और बड़े बलिदान की आवश्यकता हुआ करती है उसको भी उसने पूरा किया। उस प्रादुर्भूत स्वामी के अनथक प्रयास से जहाँ स्वकीय समाज अप्रसन्न सा था, वहाँ विधर्मियों का समाज भी उससे कुछ कम क्षुब्ध और कुपित नहीं था, परिणाम स्वरूप महान स्वामी जी मुसलमानों, इसाईयों और कुछ अदूरदर्शी अपने लोगों की आँखों में खटकते रहे, और उनका अन्तिम जीवनोत्सर्ग भी बुराईयों के प्रतिकार में हुआ। आर्य्यजाति के रक्षक आर्यसमाज के दूसरे मनस्वी और महान स्तम्भ श्री पण्डित लेखराम जी ने अपने गुरु के आदेश-आर्यधर्म-प्रचार के कारण ही एक मुसलमान के छुरे से घायल होकर अपने जीवन का पवित्र बलिदान किया, यद्यपि अभी तक आर्य जाति ने पूर्ण रूपेण “शुद्धि” को अपनाया नहीं था, और न आर्य्यजाति की रक्षा के लिये इस ब्रह्मास्त्र की शक्ति को ही अनुभव किया था, कि सहसा मालाबार और मुल्तान की दुर्घटनाओं से व्यथित और घायल हिंदुओं के प्राणों में नवजीवन संचार के लिए आवश्यक घटना हुई। संयुक्त प्रदेश मालाबार, पंजाब आदि प्रान्तों के गांवों के हज़ारों मलकाने अर्धमर्य नौमुसलिम राजपूत जो धार्मिक आचार विचार में प्रायः हिन्दू ही थे, और जिन्होंने अनेक बार आर्य जाति में सम्मलित होने के लिये राजपूत महासभा से प्रार्थना की थी। अन्ततः उन्हें राजपूत महासभा ने शुद्धि करने का विचार निश्चय किया और इसको पूरा करने के लिये भारतीय हिन्दू शुद्धिसभा की स्थापना हुई, जिसका सभापतित्व स्वर्गीय श्री पूज्य श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज से ग्रहण करने को निवेदन किया गया और स्वामी जी ने उसे स्वीकार कर वीरता, धीरता के साथ कार्य आरम्भ कर दिया, बस वहीं से शुद्धि का व्यापक झण्डा खड़ा होता है, जिनसे मुल्ला मौलवियों के कान खड़े हुए और उन्होंने घबड़ाकर गुलशने मोहम्मद उजड़ने लगा, लुटने लगा, इस्लाम तबाह होने लगा, इत्यादि इत्यादि शोरोगुल मचाना शुरू कर दिया। हज़ारों बरस से कई करोड़ हिन्दुओं को लोभ, मोह, छल, कपट, नीति, कुनीति और दुनिति से मुसलमान बनाते हुए इन मुल्लामौलवियों को ज़रा भी हिचक न थी, उन्हीं धर्मान्ध मुलाओं का हिन्दुओं को अपने ही अंग प्रतिअंग मलकानादि नौमुस्लिम नाम धारियों को अपने में मिलाते हुए देखकर मानो उनका सर्वस्व लुट गया। हाहाकर मच गया, कोहराम पड़ गया और इस्लामी संसार का स्तम्भ डगमगाने लगा, इसे कहते हैं धर्मान्धता, असहिष्णुता, अन्यायपरिता, और कट्टरता, आश्चर्य है कि इस प्रकार बीसवीं शताब्दी की इस सभ्यता सहिष्णुता के प्रसार युग में एक मज़हब के भीतर से ऐसे ऐसे कट्टर और धर्मान्ध लोग उत्पन्न हो सकते हैं।
शुद्धि से ही श्री श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द जी मुसलमानों की द्वेष की अग्नि भड़कती है जिसने अन्त में अपना यह पैशाचिक रूप प्रगट कर ही दिया, भारत के उद्धार और हिन्दू मुस्लिम ऐक्य के लिये सिर को हथेली पर रखने वाले, दिल्ली की सब से बड़ी उस जामामस्जिद के भंवर पर जहाँ कभी कोई हिंदू नहीं बैठा था, वहीं से बैठकर हिंदू मुसलिम दोनों ही को उपदेश करने वाले स्वामी जी इसलिये मुल्ला मौलवियों और पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ मुसलमानों की आँखों में चुभने लगे और उनके शत्रु हो गये, क्योंकि स्वामी ने शुद्धि का झण्डा ऊँचा उठाकर आर्यजाति को मरने से बचाने का संकल्प किया था, किन्तु अन्य मुसलमान-इसाईयों की भाँति आर्य्यतर धर्मान्याईयों को अपने में मिलाने का नहीं किन्तु अपने ही चिरकालीन बिछुड़े हुये भाइयों को वापस लेने का कार्य आरम्भ किया था अस्तु-
स्वामी जी पर मुसलमानी अखबारों ने, मुसलमान मुल्ला मौलवियों ने, पढ़े लिखे मज़हबी मुसलमानों ने गवर्नमेन्ट का पक्ष लेने वाले सर रहीम से लेकर राष्ट्रीयता का दम भरने वाले मौ० मोहम्मद अली, मौ० शौकत अली, किचलू तथा इस्लामी मज़हब के नाम पर आग भड़का कर पैसा कमाने वाले हसन निजामी आदि अनेक मुस्लिम नेताओं ने लेखों और अपने भाषणों द्वारा निरन्तर विषोदगार और प्रहार उनके अन्तिम समय तक प्रचलित रक्खा।
धर्मवीर स्वामीजी ने 13 फरवरी 1923 ई० को शुद्धि का झंडा उठाकर सारे आर्यजगत में हलचल और नई चेतना पैदा कर दी। परिणाम स्वरूप लाखों धर्म विचलित हिन्दू फिर से आर्यजाति में सम्मलित हुये, करोड़ों हिन्दुओं के पैर फिसलते फिसलते बच गये और सोई हुई आर्य्यजाति जग पड़ी और एकबार उठकर बैठ गई। तीन वर्ष दस मास और आठ दिन के भीतर इस तपस्वी आर्य पुंगव सन्यासी आर्य कुल शिरोमणि ने दिखला दिया कि सोये हुये सिंह जागते हैं तो किस प्रकार शृगालों के झुंड में अविलंब अपना प्रभुत्व स्थापित कर बैठते हैं ऐसा कर्मवीर निर्भय महापुरुष भला कब नीच शत्रुओं की आखों में न खटकता शुद्धि का कार्य आरम्भ करते करते भी आततायी हत्यारों की छुरियों का संकेत पहुंचा, परन्तु अमर आत्मा क्या कुंठित छुरियों और पत्थरों से भयभीय होने वाला था, जिस वीर योद्धा ने गोरखों की अनेक संगीनों के सामने अपनी छाती खोल दी थी, क्या वह नीच हत्यारे छिप छिप कर धोके से घात करने वाले मज़हबी कायरों छुरियों से भय खा सकता था? कदापि नहीं।
ऐ हिन्दुओ! मत समझो कि स्वामी जी मर गये। उनकी आत्मा हमारे में शामिल है। और उनके अग्नि द्वारा भस्म किये त्वचा, अस्थि और मज्जा की राख से जमना के तीर दिल्ली नगर में विशाल वृक्ष उत्पन्न होगा जिसकी जड़ें पाताल में पहुँच कर नये नये वीर उत्पन्न करेंगी। जमना का पवित्र शुद्धि के उस वृक्ष को सींच कर दृढ़ और स्थिर बनायेगा और उस शुद्धि के वृक्ष की शाखायें भारतवर्ष से बाहर समस्त देशों में फैल कर आदर्श की स्थापना करेगा और विक्षुब्ध, अज्ञानान्धकार, आत्माओं की आर्य ज्योति से जगमगायेगा।
आर्य वीरों! उठो और इस सन्देश को सुनो और अपने कर्तव्य को समझ कर कार्य क्षेत्र में कूद पड़े। ज्योति के पाठकों आज का मेरा यही शुभ सन्देश है।
[संलग्न लेख का स्रोत- ज्योति ‘मासिक’ पत्रिका का “बलिदान अंक”; फरवरी, मार्च – सन् 1927; संपादिका – विद्यावती सेठ बी०ए०]