मुक्ति की अवधि कितनी होती है?

मुक्ति की अवधि बाद में गणना करेंगे पहले युगों की गणना कर लेते हैं और युगों की आयु विचार में लेते हैं।
हम सभी जानते हैं कि युग चार होते हैं। सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग ।
सतयुग में 17 लाख 28 हजार वर्ष होते हैं।
त्रेता युग में 12 लाख 96000 वर्ष होते हैं।
द्वापर युग में 864000 वर्ष होते हैं।
कलयुग में चार लाख 32 हजार वर्ष होते हैं।
एक चतुर्युगी को महायुग भी कहते हैं।
सतयुग में कलयुग का चार गुना होता है। त्रेता तीन गुना होता है। द्वापर दोगुना होता है। त्रेता और द्वापर के नाम से भी आभासित होता है।तीन गुणाऔर दो गुना।
एक चतुर्युगी में 43 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं।
432000 वर्ष जो कलयुग के हैं उसमें 3 शून्य लगते हैं लेकिन यदि यही शून्य सात कर दी जाएं तो एक सर्ग की आयु आ जाती है,जो चार अरब 32 करोड़ वर्ष होती है।
71 चतुर्युगियों अर्थात महायुग का एक सृष्टि काल होता है।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार।

शतपथ ब्राह्मण में युगों का समय 10 /4 /2/22- 25 में बड़ी विचित्रता से बतलाया गया है।
वहां अग्निचयन प्रकरण में लिखा है कि ऋग्वेद के अक्षरों से प्रजापति ने 12000 वृहति छंद (प्रत्येक 36 अक्षर का) बनाए अर्थात ऋग्वेद के कुल अक्षर 4 लाख 32000 हुए। जोक कलयुग के वर्षों के बराबर है।
इसी प्रकार यजुर्वेद के 8000 और साम के 4000 मिलाकर कुल 12000 के भी चार लाख 32 हजार अक्षर हुए।
इनके जब पंक्ति छंद( 40 अक्षर का )बनाते हैं तो 1,08,000 छंद होते हैं। उतने ही यजु और साम के भी होते हैं।
एक वर्ष के 360 दिन और एक दिन के 30 मुहूर्त होने से वर्ष के 108000 मुहूर्त हुए। यहां मुहूर्त से लेकर वर्ष योग चतुर्युगी आदि की सभी संख्याएं बतला दी गई है।
आर्यों में ही नहीं प्रत्युत पारसी, स्केन्डेने्विया और बेबीलोनिया के लोगों तक में कलि की और चतुर युगी की संख्या विद्यमान है।

तैत्तिरीय उपनिषद के अनुसार।

तैतिरिय उपनिषद में भी एक दिन का 1 वर्ष लिखा हुआ और शतपथ का वर्णन वेदों के अक्षरों द्वारा मुहूर्त से लेकर चतुर्युगी तक की गिनती बतला रहा है ।ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि युगों की लंबी-लंबी संख्याएं पौराणिक गपोड़े हैं ।

अथर्ववेद के अनुसार।

स्वयं अथर्ववेद 10/7/9 में लिखा है।
” कियता स्कन्ध: प्र विवेश भूतं कियद भविष्यदन्वाशयेअस्य।
एकं यदद्गंमकृणोत्सहस्तृधा कियता स्कन्ध: प्र विवेश तत्र”।

अर्थात भूत भविष्य में काल रूपी घर एक सहस्त्र खम्भों पर खड़ा किया गया है। इन खम्भो के अलंकार से एक कल्प में होने वाली एक सहस्त्र चतुर युगो का वर्णन किया गया है ।अथर्ववेद 8/21 में एक कल्प के वर्षों की संख्या इस प्रकार बतलाई गई है।
“शतं ते अयुतं हायनान्द्वे युगे त्रीणी चत्वारि कृणम”
अर्थात सौ अयुत वर्षों के आगे दो ,तीन और चार की संख्या लिखने से कल्प काल निकल आयेगा। अयुत 10000 वर्ष का होता है। इसलिए 100 अयुत 10 लाख हुए , 10 लाख के 7 शून्य लिखकर उनके पहले दो तीन चार लिखने से चार अरब 32 करोड़ वर्ष होते हैं।यह संख्या 1000 चतुर युगो की है ।इसी को ब्रह्म दिन या एक कल्प की संख्या कहते हैं।
यजुर्वेद के अनुसार।

यजुर्वेद 30 /18 में चारों युगों के नाम इस प्रकार है।
“कृतायादिनवदर्ष त्रेताय:कल्पिन द्वापराधि कल्पिनमास्कन्दाय सभास्थाणुम”
इसका अर्थ तैत्तरियोपनिषद में 4/3/1 में इस प्रकार है।
“कृताय सभाविनं त्रेताया आदिनवदर्शं द्वापराय बहिस्सदं कलये सभास्थुणुं”।
यहां तक चारों युगों और उनके दीर्घ समय का वर्णन वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् आदि प्राचीन आर्ष ग्रंथों में वर्णित है ।
ईरान ,स्केन्डेनेविया और बेबीलोनिया आदि विदेशियों के यहां भी पाया जाता है। इसलिए यह संख्या मनगढ़ंत नहीं है पौराणिक नहीं है।
43,20,000 वर्षों की जो एक चतुर युगी होती है ऐसी एक चतुर्युगी का सृष्टि काल होता है।
2000 चतुर युगों का एक अहोरात्र अर्थात एक सृष्टि और एक महाप्रलय होता है। और ऐसे 30 अहोरात्र का एक ब्रह्म मास और ऐसे बारह मास का एक ब्रह्म वर्ष होता है। ऐसे 100 ब्रह्म वर्षों का परान्तकाल हुआ करता है। मुक्ति एक परान्तकाल के लिए हुआ करती है। हिसाब करने से एक परान्तकाल की संख्या 31 नील 10 खराब 40 अब वर्ष होती है ।इसी एक अवधि के लिए वसु ,रुद्र ,आदित्य मरुत और साध्य सब की मुक्ति हुआ करती है।
महर्षि दयानंद कृत अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास के अनुसार मुक्ति का काल।
मुंडक उपनिषद के आधार पर स्वामी दयानंद महाराज ने लिखा है कि मुक्त जीव मुक्ति को प्राप्त होकर ब्रह्म के आनंद को लेकर तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात मुक्ति सुख को छोड़कर संसार में आते हैं।
महाकल्प की संख्या छांदोग्य उपनिषद के आधार पर ही गणना की गई है जिसका उपरोक्त में विवरण दिया जा चुका है। इसकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। महाकल्प अथवा परांत काल समानार्थक है।
महर्षि दयानंद ने इसमें यह भी उल्लेख किया है कि जब तक सृष्टि की 36000 बार उत्पत्ति और प्रलय होती है उतने समय तक जीव‌ को मुक्ति के आनंद में रहना और दुख का न होना होता है।
इतने समय के बाद पुनर्जन्म लेना होता है क्योंकि जीव अनंत काल तक मुक्त नहीं रह सकता। जिओ को कर्म भोग के अनुसार पुनः बंधन में गिरना पड़ता है।
क्योंकि जीव मुक्त होकर भी शुद्ध स्वरूप, अल्पज्ञ और परिमित गुण कर्म स्वभाव वाला रहता है। परमेश्वर के सदृश कभी नहीं होता।
अगर ईश्वर ऐसा करने लगे कि अंतकर्मों का अनंत फल देवे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए।
36 000 को 43 लाख 20 हजार से गुणा करने पर परांतकाल अथवा महाकल्प का समय 31 नील 10 खराब 40 अरब आता है।
प्रसंगवश यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि मुक्ति में जीव परमात्मा के अंदर लय अर्थात विलीन नहीं होता बल्कि जीव मुक्त रहता है। अगर परमात्मा के अंदर लय हो गया होता तो जीव अर्थात आत्मा की पृथक सत्ता समाप्त हो गई होती और पुनः जन्म मरण में आना संभव नहीं होता ।ऐसा तो केवल परमेश्वर ही अनंत स्वरूप, समर्थ, गुण, कर्म, स्वभाव वाला है इसलिए वह कभी अविद्या और दुख बंधन में नहीं गिर सकता।
बहुत से विद्वान मुक्ति में जाने से डरते हैं और डरते भी हैं कि वहां खाने पहनने और मौज करने के लिए कुछ भी नहीं मिलता।
जबकि मुक्ति में यह पंचभौतिक शरीर नष्ट होता है और आत्मा या जीव को ईश्वर की 24 शक्तियां बल ,पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति ,भाषण, विवेचन ,क्रिया, उत्साह ,स्मरण ,निश्चय ,इच्छा ,प्रेम, द्वेष ,संयोग, विभाग ,संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन ,दर्शन, स्वाद और गंध ग्रहण तथा ज्ञान प्राप्त होती है।
मोक्ष में भौतिक शरीर या इंद्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते बल्कि जीवात्मा के अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण साथ रहते हैं ।जब सुनना चाहता है तब कान जब स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा और देखने के लिए संकल्प से चक्षु और स्वाद के लिए रसना गंध के लिए नाक ,संकल्प विकल्प करने के लिए मन और निश्चय करने के लिए बुद्धि और स्मरण करने के लिए चित्त और अहंकार की शक्ति जीवात्मा को मुक्ति में प्राप्त होती है और संकल्प मात्र शरीर होता है। जिस सांकल्प शरीर कहते हैं। जैसे शरीर के आधार रहकर इंद्रियों के गोलक के द्वारा जीव अपने कार्य करता है वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनंद भोग लेता है।

ऋषि वादरि पाराशर ऋषि व्यास जी के पिता थे। जो मुक्ति में जीव का और उनके साथ मन का भाव मानते थे अर्थात जीव और मन का लय नहीं मानते।
परंतु जैमिनी ऋषि मुक्त पुरुष का मन के समान सूक्ष्म शरीर, इंद्रियों और प्राण आदि को भी विद्यमान मानते हैं।
जबकि व्यास मुनि मुक्ति में भाव और अभाव इन दोनों को मानते हैं अर्थात सूक्ष्म शरीर, इंद्रियों और प्राण आदि रहते हैं। इसका तात्पर्य हुआ की शुद्ध समर्थ युक्त जीव मुक्ति में बना रहता है परंतु अपवित्रता, पापाचरण, दुख अज्ञान आदि का अभाव मानते हैं। अर्थात मुक्ति में ये नहीं होते।

मुक्ति एक जीवन में संभव नहीं है।
राग और द्वेष को दूर करके मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है।
राग और द्वेष तत्वज्ञान या विशुद्ध ज्ञान से प्राप्त होते हैं मिथ्याज्ञान से नहीं।
तत्वज्ञान से ईश्वर प्राणिधान और निदिध्यासन की प्राप्ति होती है।
तत्पश्चात समाधि की स्थिति आती है। समाधि में पहले संप्रज्ञात समाधि तत्पश्चात असंप्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,
ग्रेटर नोएडा
चलभाष
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