ओ३म् “आर्य-हिन्दू समाज को चुनौतियों पर विजय पाने के लिये समाज सुधार करने सहित संगठित होना होगा”
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हमें अपने धर्म व संस्कृति की शक्ति व सामथ्र्य का समय समय पर अध्ययन करते रहना चाहिये। हमारे सामने वर्तमान में मुख्य चुनौतियां क्या हैं?, इसका भी हमें ज्ञान होना चाहिये। हमारे धर्म व संस्कृति तथा इसके अनुयायियों के विरुद्ध देश व विश्व स्तर पर कहीं कोई साजिश तो नहीं हो रही है, इसका भी हमें ज्ञान होना चाहिये। हमें अपने देश का इतिहास भी पढ़ते रहना चाहिये। महाभारत काल तक का हमारा इतिहास अति उज्जवल, स्वर्णिम एवं गौरवमय है। यह ज्ञान हमें ऋषि दयानन्द के साहित्य तथा रामायण एवं महाभारत ग्रन्थों से होता है। 5000 वर्ष पूर्व महाभारत की घटना के बाद देश का उत्तरोतर पतन हुआ। सत्य एवं यथार्थ ज्ञान पर आधारित वैदिक धर्म एवं संस्कृति में अज्ञान तथा अंधविश्वासों का आक्रमण हुआ जिसका कारण आर्यों की वेदाध्ययन एवं सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा उनकी रक्षा के प्रति अकर्मणयता तथा उपेक्षा थी। इसके साथ वेदानुयायियों का आलस्य-प्रमाद तथा धर्म में रुचि में कमी होना भी था। ऐसे और भी अनेक कारण रहे हैं।
धर्म में अन्धविश्वासों सहित वैदिक अहिंसात्मक यज्ञों में अज्ञानियों व स्वार्थी लोगों ने पशुओं की हिंसा करना आरम्भ कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि सज्जन व साधु प्रकृति के पुरुष हिंसात्मक यज्ञों से दूर जाने लगे थे। कालान्तर में महात्मा बुद्ध तथा महावीर स्वामी जी का जन्म हुआ। इन युगपुरुषों ने यज्ञों में अहिंसा का विरोध किया। इन आचार्यों ने यज्ञ, वेद और ईश्वर के अस्तित्व को मानना भी छोड़ दिया था। इन युगपुरुषों की मृत्यु होने के बाद इनके अनुयायियों ने इनको महिमा मण्डित किया और इनके नाम से मत व मतान्तर चलाये। यह सिलसिला रुका व थमा नहीं अपितु समय के साथ देश-विदेश में बढ़ता गया जिसके कारण अन्य देशों में पारसी, ईसाई एवं इस्लाम मतों का आविर्भाव व प्रचलन हुआ। इन सभी मतों में जो शिक्षायें, विचार, मान्यतायें व सिद्धान्त हैं वह तत्कालीन समाज की स्थिति के अनुरूप अपने मत व लोगों के हितों को देखकर निर्धारित किये गये प्रतीत होते हैं। जिस युग व काल में मत-मतान्तर प्रचलित हुए उस समय वेद वा वैदिक ज्ञान विलुप्त हो चुके थे। वैदिक ऋषि परम्परा समाप्त हो चुकी थी। वेदों के सत्य अर्थाें का प्रचार-प्रसार बन्द था। इस कारण भारत देश सहित विश्व में भी अविद्यान्धकार फैल गया था।
मत-मतान्तरों में अविद्या का प्रभाव व विद्यमानता सभी मतों के अध्ययन करने पर स्पष्ट होती है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य व सत्यधर्म का अनुसंधान किया और अपने अथक, अपूर्व श्रम तथा तपस्वी ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन के कारण वह सत्य धर्म को जानने व प्राप्त करने में सफल हुए। वैदिक धर्म ही सत्य धर्म का पर्याय है। वेदों की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। परमात्मा ने ही सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार आदि ऋषियों को चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा ऋषियों को दिया था। ईश्वर सब सत्य विद्याओं और सभी पदार्थ जो विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल, अर्थात् वेद ज्ञान सहित सभी सूर्य, चन्द्र आदि पदार्थों का रचयिता, प्रकाशक व उत्पत्तिकर्ता है। वह सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। अतः उसका ज्ञान ही सत्य एवं यथार्थ है। इसी गुण से युक्त वेद भी सत्य एवं यथार्थ ज्ञान से परिपूर्ण हैं। वेद स्वतः प्रमाण हैं और वेदानुकूल सिद्धान्त व मान्यतायें ही सत्य व स्वीकार करने योग्य होती हंै। मनुष्य अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम होता है। वह ईश्वर के समान सर्वज्ञ व सर्वव्यापक नहीं होता। अतः वेद ज्ञान से रहित मनुष्य की रचनाओं में अविद्या व अज्ञान का होना स्वाभाविक होता है। मध्यकाल में धर्म विषयक ज्ञान व विज्ञान का स्तर अतीव निम्न कोटि का था। अतः मत-मतान्तर, चाहें वह भारतीय हों व इतर, सर्वत्र अविद्या व अज्ञान के दर्शन होते हैं जिनका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में कराया हैं।
सृष्टि के आरम्भ में जब स्त्री-पुरुष व मनुष्य उत्पन्न हुए तो सभी का एक ही धर्म था उसे हम ‘मनुष्य धर्म’ कह सकते हैं। इसका पर्याय वैदिक वा वेदोक्त धर्म है। यही सनातन धर्म कहलाता है क्योंकि यही धर्म इस सृष्टि के आदि में प्रवर्तित होने सहित इससे पूर्व की सृष्टियों व कल्पों में भी मानव मात्र का धर्म रहा है। आदि काल से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब वर्षों से अधिक समय तक वैदिक धर्म ही न केवल आर्यावर्त वा भारत अपितु पूरे विश्व का एकमात्र सर्वसम्मत धर्म व मत था। महाभारत युद्ध के बाद अविद्या व अन्धकार के फैलने, वेदों व वैदिक ज्ञान के विलुप्त होने तथा लोगों द्वारा वेदाध्ययन में सजग व तत्पर न रहने से अवैदिक अविद्यायुक्त मतों की सृष्टि हुई। आज संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं जिनमें से कुछ वेद-विरोधी व अविद्यायुक्त मान्यताओं से युक्त हैं। इन कुछ मतों की मान्यतायें वेदविरोधी होने से यह अपने मत का प्रचार येन केन प्रकारेण करते आ रहे हैं। अतीत में कुछ मतों के अनुयायियों ने भारत देश को लूटा और यहां के राजाओं को छल से पराजित किया। राजाओं सहित प्रजाओं पर अत्याचार किये तथा वेदोक्त मतानुयायियों का धर्मान्तरण किया। हमारी माताओं व बहनों का अपमान एवं उन पर अत्याचार भी किये गये। छोटे बच्चों को भी नहीं अत्याचार करने से नहीं छोड़ा गया। इन मतों में अहिंसा की प्रतिष्ठा न होकर किसी न किसी रूप में हिंसा को स्थान दिया जाता है। आज भी देश की सत्ता को प्राप्त करने, अपनी जनसंख्या बढ़ाने, हिन्दुओं का लोभ, छल व बल से धर्मान्तरण करने की प्रक्रिया रुकी नहीं है। आर्य हिन्दुओं के लिये सबसे बड़ी चुनौती ऐसे मत व उनके अनुयायी हैं।
हिन्दू अनेक छोटे बड़े मतभेदों के कारण अनेक मतों में बंटे हुए हैं। यह संगठित नहीं है। इसी का लाभ हिन्दू विरोधी विधर्मी उठाते हैं। वोट बैंक की नीति ने भी इस देश के सांस्कृतिक स्वरूप को हानि पहुंचाई है। कुछ राजनैतिक दलों ने पड़ोसी देशों से अवैध रूप से देश में आने वाले विधर्मियों पर कभी कोई प्रभावी नियंत्रण व रोक लगाने की कोशिश नहीं की। इस कारण तथा जनसंख्या नियंत्रण कानून न होने आदि अनेक कारणों से वर्तमान में विधर्मियों का जनसंख्या में अनुपात बढ़ता रहा है ओर स्वदेशी आदिवासी आर्य हिन्दुओं का अनुपात निरन्तर कम हो रहा है। इससे भविष्य में देश के राजनैतिक स्वरूप का अनुमान लगता है। जनसंख्या के स्वरूप में परिवर्तन के परिणाम भविष्य में अत्यन्त भयंकर होंगे। समय रहते ही हिन्दू समाज से सभी अन्धविश्वासों व अविद्यायुक्त मान्यताओं, परम्पराओं व भेदभावों को सुधारना होगा और परस्पर संगठित होना होगा। यह कार्य एक ओ३म् ध्वज, वेद व वेदानुकूल ग्रन्थों व मान्यताओं की प्रतिष्ठा तथा इसके विपरीत विचारों व मान्यताओं के त्याग सहित संस्कृत व हिन्दी भाषा को अपने दैनन्दिन व्यवहार में प्रमुख स्थान देना होगा। यदि नहीं देंगे तो भविष्य में इसके दण्डस्वरूप हिन्दूजाति को अनेक दुःख भोगने पड़ेगे। यह समय की सबसे बड़ी चुनौती है। आश्चर्य है कि हमारे धर्माचार्य आज की जटिल परिस्थितियों में भी इन चुनौतियों की उपेक्षा कर आलस्य प्रमादयुक्त जीवन ही व्यतीत करते दिखाई देते हैं।
ऋषि दयानन्द ने वर्तमान की स्थिति को 150 वर्ष पूर्व ही जान लिया था। इसका समाधान ही उन्होंने वेद प्रचारक अपने धर्म ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में दिया है। सत्यार्थप्रकाश पूर्णतया वेद एवं ईश्वरीय विधानों व शिक्षाओं के सर्वथा अनुकूल है। इसे अपनाये बिना आर्य हिन्दू जाति की रक्षा नहीं हो सकती। सन्मार्ग का अनुसरण तथा असद् मार्ग का त्याग ही हिन्दूजाति की रक्षा का मूल मंत्र है। यह मन्त्र ऋषि दयानन्द ने अपने उपदेशों, वेदों के प्रमाणों तथा आर्य समाज के नियमों के रूप में हमारे सामने रखा है। हमें इसका पालन व आचरण करना है। यदि करेंगे तो बचेंगे अन्यथा विगत 1200 वर्षों से देश के इतिहास में जो होता आ रहा है, वह पहले से भी विदू्रप में दोहराया जा सकता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि देश की सरकार मत-मतान्तर से ऊपर उठकर देश में सब मतों व पन्थों के लिये समान जनसंख्या नीति बनाये और उसको तोड़ने वालों के लिये सख्त दण्ड का प्रावधान करे। यह करना ही होगा अन्यथा देश का स्वरूप वह नहीं रहेगा जो आज है। सुधी पाठक इस विषय को समझते हैं इसलिये इसका और विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।
आर्य हिन्दुओं की एक जटिल समस्या है हिन्दू समाज व धर्म में अन्धविश्वासों की भरमार, वेदविरुद्ध मान्यताओं का आचरण तथा आपस के भेदभाव। सभी अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं व सामाजिक भेदभावों को जानना व उन्हें दूर करना होगा। हम विधर्मियों के गुलाम बने तो इन्हीं कारणों से बने थे। वैदिक सत्य घर्म का पतन भी इन्हीं कारणों से हुआ था। ऋषि दयानन्द का देशवासियों को इन्हीं बातों से आगाह करना और सत्यपथ वेदमार्ग का अनुसरण कराने के लिए ही वेद प्रचार, वेदभाष्य करना, वैदिक साहित्य का सृजन, आर्यसमाज की स्थापना, शिक्षा प्रसार आन्दोलन तथा देश की आजादी के लिये प्रेरणा देनी पड़ी। देश की आजादी में आर्यसमाज का सर्वाधिक योगदान रहा। हिन्दू जाति व देश को शक्तिशाली बनाने के लिये ही आर्यसमाज को देश से अन्धविश्वास दूर करने तथा वैदिक मान्यताओं को अपनाने का आन्दोलन करना पड़ा। जो चुनौतियां हिन्दू आर्य जाति के सम्मुख ऋषि दयानन्द व उससे पूर्व थी, वही चुनौतियां आज भी हैं। तब से अब तक हमने इन चुनौतियों पर विजय प्राप्त नहीं की। इस पर विचार कर और विजय प्राप्त कर ही हम आर्य हिन्दू जाति की रक्षा कर सकते हैं। अन्धविश्वासों की इस श्रृंखला में सामाजिक भेदभावों के अन्तर्गत महाभारत के बाद देश में जो जन्मना जाति प्रथा चली, उसने हिन्दू समाज का सबसे अधिक अहित किया है। समाज के लिए अभिशाप इस जन्मना जातिवाद का उन्मूलन करने का आर्यसमाज ने प्रयास किया था। आर्य समाज को इस कार्य में कुछ सफलता भी मिली। अभी बहुत कुछ कार्य करना शेष है। हम देख रहे हैं कि जाति के नाम से जनगणना की मांग की जा रही है। यह हिन्दू समाज को कमजोर व नष्ट करने का षडयन्त्र है। देशवासियों को ऐसी बातों से सावधान रहना होगा। इन सब चुनौतियों सहित देश में साम्यवादी दल भी हिन्दू समाज व आर्यसमाज के लिये चुनौती हैं। सभी चुनौतियों को हम अपने अन्धविश्वास दूर कर, परस्पर संगठित होकर तथा वेदमार्ग को अपनाकर ही सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसी में आर्य जाति की रक्षा व उन्नति का रहस्य छिपा हुआ है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य