बिखरे मोती भाग – 447 *’ विशेष ‘ क्या-क्या गुल खिलाती है भगवद्-भक्ति -*
(देवी-सम्पद की महिमा:-)
अहमन्यता के कारणै,
पाले बहुत हैं भ्रम ।
दैवी – सम्पद के बिना,
नहीं मिलेगा ब्रह्म॥2710॥
तत्त्वार्थ :- भक्ति के मार्ग
दो बढ़ी बाधाएँ हैं- पहली है अद्धेष्टा होना अर्थात् द्वेष रहित होना, और दूसरी अहमन्यता का
होना अर्थात् अहम्का होना,अपने को निमित्त नहीं कर्ता समझना। इस छोटी सी चूक से सारे मनोविकार उत्पन्न हो जाते हैं और साधक शिखर पर पहुंचते-पहुंचते धराशायी हो जाता है। अब प्रश्न पैदा होता है कि मनुष्य को करना क्या है? ‘मैं’ – मेरा को ‘तू’ – तेरा में बदलना है,निष्काम रहना है, ब्रह्मभाव में जीना है, जीवनपर्यन्त देवी-सम्पदा का अर्जन करना है अर्थात् भक्ति और भलाई में रत रहना है, पुण्यात्मा होते हुए भी अमानित्त्व रहना है, अहंकार नहीं करना है अन्यथा साधक परम पिता परमात्मा के तद्रूप नहीं हो पायेगा।
कैसे और कब मनुष्य के चेहरे पर दिव्यता आती है:-
देवी-सम्पदा को धनी,
कोई बिरला होय।
कल्मष सब निर्मूल हों,
दिव्यता गहना होय॥2711॥
क्रमशः