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वैदिक संपत्ति

भाग- 342 : *जाति,आयु और भोग*

(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की पुस्तक वैदिक सम्पत्ति नामक से अपने सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।)
प्रस्तुति -देवेंद्र सिंह आर्य
चैयरमेन- ‘उगता भारत’

गतांक से आगे ….

कोई 25 वर्ष की बात है कि मध्यप्रदेश की रायगढ़ रियासत में एक छोटा सा शेर का बच्चा परकड़कर आया। राजा साहब ने उसे पाल लिया और उसके खाने के लिये मांस का प्रबन्ध करा दिया। तदनुसार उसको नित्य मांस दुकड़े बाहर से दिये जाने लगे। यह क्रम साल भर से भी ज्यादा जारी रहा। जब वह काफी बड़ा हो गया, तो एक दिन उसके कठहरे में जिन्दा बकरा डाल दिया गया। बकरे को देखते ही शेर एक कोने में जाकर बैठ गया और बकरा इधर उधर घूमने लगा। यह खबर राजा साहब को दे दी गई। राजा साहब ने उस दिन से जिन्दा बकरा देना बन्द करा दिया । परन्तु विनोद के लिए जब इच्छा होती थी तब जिन्दा बकरा कठहरे में डलवाकर तमाशा देखा करते थे। जैसी यह घटना है वैसी ही घटना का एक वर्णन नवम्बर सन् 1913 के प्रसिद्ध वैज्ञानिक अखबार ‘लिटिल पेपर’ में इस प्रकार छापा था कि, पशुओं में बच्चों की परवरिश का अद्भुत प्रेम देखा जाता है। बिल्लियाँ चूहों, शशकों और अन्य प्राणियों के बच्चों की परवरिश करती हैं। गौवें बकरी के बच्चों को पालती हैं। कुत्तियाँ लोमड़ी, खरगोश भेड़ों के बच्चों को पालती हैं और शूकरियाँ भी बिल्ली के बच्चों को पालती हैं। सबसे बड़ा प्रसिद्ध उदाहरण डबलिन (जर्मनी) के चिडियाखाने की वृद्धा सिंहनी का है, जिसने अपने माँद में एक कुत्ता पाल रक्खा था, जो उसके माँद के चूहे मारा करता था’। इसी तरह की एक बात महाभारत में भी लिखी है कि –

सा हि मोसार्गलं भीष्मसुखास्सिहत्य सादतः । दम्तान्तरविलग्नं यत्तवावलेऽल्पचेतनः ।। (महा० सभा पर्व)

अर्थात् – भूलिंग पक्षी सिंह के मुंह में अपना मुंह डालकर उसके दांतो में घुसे हुए मांस को निकाल कर खाता है। भूलिंग पक्षी बहुत बड़ा होता है। उसमें इतना मांस होता है कि सिंह उसको खाकर अपना पेट भर सकता है, परन्तु अपने मुह के अन्दर आ जाने पर भी वह उस को नहीं मारता। इन प्रमाणों से पाया जाता है कि जिन्दा प्राणीयों का मारना व्याघ्रादिकों का स्वभाव नहीं है।

    संसार का सबसे बड़ा प्राणिशास्त्री आलफ्रेड रसल वालिस ठीक ही कहता है कि 'मांसाहारी जन्तु केवल भूख लगने पर ही दूसरे प्राणियों को मारते हैं, मनोविनोद के लिए नही। पालतू बिल्लियों और चूहों के जो उदाहरण दिये बाते हैं, वे भ्रममूलक हैं' । ठीक है, हिस्र पशु यदि मनोविनोद के लिए प्राणियों की हिंसा करते, तो सरकस- बाले लोग सिंह बाघो  के साथ कैसे कुश्ती लड़ते ? इससे मालूम होता है कि हिस्र पशु भूख के ही कारण प्राणियों की हिंसा करते हैं, पर यदि समस्त संसार के मनुष्य मांस खाना छोड़ दें और रोज के मरनेवाले पशुओं का मांस जंगलों और गांवों की सरहदों में डलवा दिया जाय, तो समस्त मांसाहारी प्राणी अपनी क्षुघा निवृत कर लें और अन्य प्राणियों का अकाल में मारना बन्द कर दें।

कहने का मतलब यह कि जब हिस्र पशुओं का हिंसा करना स्वभाव ही नहीं है, जब वे मांस मिलने पर किसी की हिंसा करते ही नहीं और जब पर्याप्त मांस मिलने पर वे प्राणियों का मारना छोड़ सकते हैं तब यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणियों का मारना उनका स्वभाव है। वे प्राणियों को तभी मारते हैं जब मनुष्य अन्य प्राणियों को मार- कर खा जाता है। यदि मनुष्य वन्य प्राणियों को मारकर खाना छोड़ दे, तो हिस्र पशु भी जिन्दा जानवरों का मारना छोड़ दें। परन्तु जब मनुष्य प्राणियों को मारकर खाना नहीं छोड़ता, तो परमेश्वर भी हिंसक पशुओं के द्वारा होनेवाली हिंसा का इलाज नहीं कर सकता। यही कारण है कि संसार में हिंसा का साम्राज्य हो गया है और यह निर्णय करना कठिन हो गया है कि कितनी हिंसा ईश्वरी न्यायव्यवस्था से हो रही है और कितनी मनुष्यों के अत्याचार से।

मनुष्य कृत और ईश्वर कृत हिंसा में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य कृत्त है, वही ईश्वर कृत है। मनुष्य कर्म करता है और परमेश्वर उसी कर्म के अनुसार फल दे देता है। अर्थात् आगे-आगे मनुष्यों के कर्म और पीछे पीछे-पीछे परमेश्वर की व्यवस्था काम कर रही है, इसलिए मनुष्य कृत और ईश्वर कृत हिंसा में कुछ भी अन्तर नहीं है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि परमेश्वर हिंस्र पशुओं के द्वारा मनुष्यों और मनुष्यों के प्रिय पशुओं को अल्पआयु में मरवाकर मनुष्यों को उनकी हिंसा प्रवृत्ति का प्रतिफल देता है, तो यह हिंसा मनुष्यों की ही की हुई समझी जा सकती है। ईश्वर की कराई हुई नहीं। इसलिए मनुष्यों को उचित है कि वे किसी भी प्राणी की हिंसा न करें और प्रत्येक प्राणी को ऐसा मौका दें कि वह अपने भोगों को भोगता हुआ अपनी पूर्ण आयु तक जीयो और अपने श्रम से ऋण चुकाकर चला जाय । इस प्रकार का सृष्टि सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने से सृष्टि कारण कार्य की मीमांसा को हृदयङ्गम करने से – मनुष्य सृष्टि का उचित उपयोग कर सकता है और संसार के उचित उपयोग से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। पर स्मरण रखना चाहिये कि मनुष्य केवल उपर्युक्त सिद्धान्तों के जान लेने मात्र ही से सुष्टि का उचित उपयोग नहीं कर सकता और न वह केवल सृष्टि के कारण कार्य की श्रृंखला को समझकर ही न्याययुक्त व्यवहार कर सकता है। क्योंकि जानना और बात है और करना दूसरी बात है। इसलिए मनुष्य को उचित है कि वह मोक्ष साधना के साथ ही साथ सृष्टि का उपयोग करे। इसका कारण यही है कि सुष्टि का उचित उपयोग करें। इसका कारण यही है कि सृष्टि का उचित उपयोग मोच साधना के साथ ही हो सकता है अतएव आवश्यक जान पड़ता है कि हम यहां थोड़ा सा मोक्ष के आभ्यन्तरिंक विषय का भी सारांश लिख दे।

क्रमशः

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