पेड़ो की रक्षा के प्रबल पक्षधर थे- कौटिल्य*
(दिनेश चंद्र वर्मा – विनायक फीचर्स)
वृक्षों की सुरक्षा के प्रति हम आज जिस चिंता और जागरूकता का परिचय दे रहे हैं, कौटिल्य ने यह चिंता सैकड़ों वर्ष पूर्व व्यक्त की थी तथा अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि जो व्यक्ति विपत्ति के समय के अतिरिक्त यदि साधारण दशा में वृक्ष समूहों (वनों) को किसी प्रकार की क्षति पहुंचाये तो उससे न केवल क्षतिपूर्ति कराई जाये, बल्कि उसे दण्डित भी किया जाये। यथा-
द्रव्य वनन्छिदां च देवमत्ययं
च स्थापयेदन्यात्र पद् भय:। (कौटिल्य अर्थशास्त्र 2117)
वस्तुत: मौर्य युग में वृक्ष (पेड़ों), वनों एवं वन्यप्राणियों का बड़ा महत्व था। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से उन्हें बहुत उपयोगी माना जाता था। वनों की रक्षा एवं वृद्धि का विभाग एक पृथक अमात्य के आधीन रहता था। इस अमात्य को ‘कुप्याध्यक्ष’ कहा जाता था।
इसके अधीन द्रव्यपाल तथा वन पाल आदि कर्मचारी होते थे। ये कर्मचारी वनों से विभिन्न पदार्थो को संग्रहित करते थे तथा काष्ठ से विविध सामग्री बनाने हेतु (कर्मान्तों) कारखानों का संचालन करते थे।
कौटिल्य ने इमारती लकड़ी के समुचित उपयोग के लिए किस लकड़ी से क्या वस्तु बनाई जानी चाहिए, इसका भी उल्लेख किया है। उनके अनुसार सागौन, तिनिश, धन्वन, अर्जुन, मधूक, तिलक, साल, शिशुप, अरिमेद, राजादन, शिरीष, खदिर (खैर), सरल,तालगर्ज, अश्वकर्ण, सोमवल्क, कशाभ्र, प्रियक, धव, सारादारु, आदि वृक्षों की काष्ठï ठोस, मजबूत और कठोर होती है। इस काष्ठ का प्रयोग मकान बनाने में किया जाना चाहिए। यथा-‘शाकतिनिशधन्वार्जन मधूकतिलकसाल शिशु परिमेद- राजादनशिरीष खदिर सरलताल सजश्वि कर्ण सोम – वल्कशाभ्रप्रियक धवादिस्सार दारुवर्णÓ (कौटिल्य अर्थशास्त्र 2117)
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बांसों, लताओं, रेशेदार वृक्षों, विभिन्न घांसों,पत्तो, फूलों,औषध- पादपों, जहरीले पौधों, विषैले जंतुओं, जंगली पक्षियों,इनकी हड्डियां और चमड़े, दांत,सींग, खुर, आदि का उल्लेख किया है तथा इनके उपयोग तक बताये हैं। कौटिल्य ने द्रव्यवन (सारदारु आदि इमारती काष्ठ के वनों को) दुर्ग यान और रथ का मूल कहा है-
द्रव्यवनं, दुर्ग कर्मणा या नरथयोश्च योनि (कौटिल्य अर्थशास्त्र 7/14)
कौटिल्य ने मनुष्यों की आजीविका तथा नगरों की रक्षा के लिए भी वनों को महत्वपूर्ण बताया है।
कौटिल्य ने जंगली पशुओं से मिलने वाली खालों का भी अपने अर्थशास्त्र में उल्लेख किया है। उन्होंने इन खालों की विशेषताओं का जिक्र करते हुए कई पशुओं की खालों को ‘रत्न’ कहा है तथा इनकी गणना मणि और मुक्ता के समतुल्य की है। कोषाध्यक्ष कीमती रत्नों के साथ इन खालों का भी संग्रह करता था।
कौटिल्य ने उन खालों को श्रेष्ठ बताया है जो नरम तथा घने बालों वाली होती हैं। कौटिल्य ने खालों का वर्गीकरण कांतनावक, प्रेयक, उत्तरपर्वतक, बिसी, महाबिसी, कालिका, चंद्रोत्तरा, सामूर, चीनसी, सामूली, खातिना, नलतुला, कपिला, और वृतपुच्छा आदि नामों से किया है।
उन्होंने इन खालों के गुण, अवगुण और उपयोग भी बताये हैं।
कौटिल्य ने कुछ वृक्षों या पेड़ों के रेशों से वस्त्र बनाने का भी उल्लेख किया है। सन के वस्त्र तो बनते ही थे, नागवृक्ष, लिकुच, वकुल और वट के रेशों से भी वस्त्र बनाये जाते थे। नागवृक्ष के रेशे पीले रंग के, लिकुच के गेहुंए रंग के, वकुल के सफेद रंग के तथा वट के मक्खन के रंग के रेशे होते थे। इन रेशों से उत्कृष्ट प्रकार के वस्त्रों को तैयार किया जाता था। (विनायक फीचर्स)