बंगाल की CPIM सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को ममता सरकार ने आगे बढ़ाया: सुप्रीम कोर्ट में हलफनामे में चौंकाने वाले खुलासे
पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार ने बिना किसी जाँच-पड़ताल के मुस्लिम समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कोटे में शामिल कर लिया, ताकि अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधा जा सके। तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) की सरकार ने न केवल राज्य में पिछली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) सरकार द्वारा अपनाई गई तुष्टिकरण नीति को जारी रखा, बल्कि उसमें और इजाफा भी किया।
अब, ममता बनर्जी की सरकार पर 77 जातियों को मनमाने ढंग से ओबीसी श्रेणी में शामिल करने के लिए आलोचना हो रही है। इन 77 जातियों में 75 जातियाँ मुस्लिमों से संबंधित हैं। कलकत्ता हाई कोर्ट ने 22 मई को अपने ऐतिहासिक फैसले में 5 मार्च 2010 और 11 मई 2012 के बीच वामपंथी और टीएमसी सरकारों द्वारा 77 समूहों को जारी किए गए ओबीसी प्रमाण पत्र को रद्द कर दिया था।
इस बीच, पश्चिम बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर करके अपने फैसले का बचाव किया। CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने 5 अगस्त के अपने आदेश में ओबीसी श्रेणी में शामिल होने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया के बारे में सरकार से विवरण माँगा था। हालाँकि, इसके विवरणों से पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने के लिए सभी मानदंडों का उल्लंघन किया।
जटिल 3-स्तरीय प्रक्रिया, लेकिन कई खामियाँ
TOI के अनुसार, सरकार ने दावा किया कि ओबीसी सूची का विस्तार एक जटिल तीन-स्तरीय प्रक्रिया के माध्यम से किया गया। इसमें दो सर्वेक्षण और पिछड़ा वर्ग आयोग की एक सुनवाई शामिल थी। दूसरी ओर यह खुलासा किया गया है कि कुछ मुस्लिम समूहों के लिए यह प्रक्रिया एक दिन से भी कम समय में पूरी की गई। यह जटिलता और सरकारी मशीनरी की गति को देखते हुए असंभव प्रतीत होता है।
यह बात सामने आई है कि खोट्टा मुस्लिम समुदाय ने 13 नवंबर 2009 को आवेदन किया और उसी दिन पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग ने उसे ओबीसी सूची में शामिल करने की सिफारिश कर दी। इसी तरह 21 अप्रैल 2010 को आवेदन करने वाले जमादार मुस्लिम समूह को उसी दिन ओबीसी श्रेणी में शामिल कर लिया गया।
इसने एक दिन के भीतर गायेन और भाटिया मुस्लिम समुदायों को शामिल करने की सिफारिश की गई। चार दिनों में चुटोर मिस्त्री मुस्लिम समुदाय को शामिल किया और एक महीने से भी कम समय में एक दर्जन अन्य मुस्लिम समूहों को ओबीसी सूची में शामिल कर लिया गया। ओबीसी आयोग ने इस मामले में आश्चर्यजनक गति से काम किया।
ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ उप-वर्गीकरण सर्वेक्षण का काम समुदाय के सदस्यों द्वारा ओबीसी श्रेणी में शामिल होने के लिए आयोग में आवेदन करने से पहले ही कर दिया गया। काजी, कोटल, हजारी, लायेक, खस और कुछ अन्य मुस्लिम समुदायों के लिए सर्वेक्षण जून 2015 में पूरा कर लिया गया था, लेकिन उन्हें OBC में शामिल करने का आवेदन काफी बाद में, यहाँ तक कि एक या दो साल बाद दिए गए।
पश्चिम बंगाल की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसके पक्ष में अपना तर्क दिया। राज्य सरकार ने दावा किया, “विस्तृत जाँच और/या मौखिक या दस्तावेजी प्रकृति में उसके समक्ष प्रस्तुत सामग्री पर विचार करने के बाद ही 34 समुदायों में से प्रत्येक पर अंतिम रिपोर्ट आयोग द्वारा अंतिम सिफारिश के साथ तैयार की गई थी।”
अभिजीत मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत हलफनामे के अनुसार, प्रक्रिया उन समुदायों द्वारा आवेदन से शुरू होती है जो ओबीसी सूची में शामिल होना चाहते हैं। इनमें वर्ग का नाम, उसकी जनसंख्या, उसका निवास क्षेत्र के साथ-साथ उनकी सामाजिक, शैक्षिक, वैवाहिक, व्यावसायिक और आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी दी जाती है। मुखर्जी फिलहाल पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग में अतिरिक्त सचिव और पदेन संयुक्त आयुक्त (आरक्षण) हैं।
अभिजीत मुखर्जी ने अपने हलफनामे में दावा किया है कि पश्चिम बंगाल की सरकार ने इस मामले में तीन-स्तरीय प्रक्रिया का बेहद सावधानीपूर्वक पालन किया है। आयोग अपने सदस्यों (2012 से पहले) या राज्य सरकार के सांस्कृतिक अनुसंधान संस्थान (CRI) और उनके साथ काम करने वाले मानवविज्ञानियों (2012 के बाद) के माध्यम से अनुरोध करने पर क्षेत्र का सर्वेक्षण करता है।
आयोग आवेदन की सुनवाई और ऐसे सर्वेक्षण के दौरान दावे के किसी भी विरोध के बारे में जनता को सूचित करता है। आयोग प्रस्ताव को स्वीकृत या अस्वीकृत करने का निर्णय लेने से पहले सार्वजनिक सुनवाई में प्रस्तुत दस्तावेजों, सर्वेक्षण प्रतिक्रियाओं, प्रश्नों और साक्ष्यों की समीक्षा करता है।
राज्य सरकार ने कहा कि यह सिफारिश स्वीकृति के बाद सरकार पर सामान्य रूप से बाध्यकारी है और सरकार उस समूह को ओबीसी सूची में शामिल कर लेती है। उसके बाद कैबिनेट को इसे स्वीकृत करने के लिए कहा जाता है और बाद में प्राधिकरण के बाद इसे आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है।
कलकत्ता हाई कोर्ट की टिप्पणी
इस साल मई में कलकत्ता हाई कोेर्ट की न्यायमूर्ति तपब्रत चक्रवर्ती और राजशेखर मंथा की पीठ ने 5 मार्च 2010 और 11 मई 2012 के बीच वामपंथी और तृणमूल कॉन्ग्रेस सरकारों द्वारा 77 समूहों को जारी किए गए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) प्रमाण पत्र रद्द कर दिए थे। न्यायाधीशों ने पाया कि पश्चिम बंगाल प्रशासन ने 2006 की सच्चर समिति की रिपोर्ट का ‘व्यापक रूप से’ उपयोग किया।
कोर्ट ने यह पाया कि इसके व्यापक उपयोग से कुख्यात निष्कर्ष निकाला गया कि भारत में मुस्लिम अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के सदस्यों की तुलना में बदतर स्थिति में हैं। कलकत्ता हाई कोर्ट के अनुसार, मुस्लिमों को पिछड़ा बताने और उन्हें ओबीसी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए राज्य द्वारा इस्तेमाल की गई सच्चर समिति की रिपोर्ट में संवैधानिक वैधता का अभाव था।
न्यायालय ने पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नियुक्त आयोग की लापरवाही पर भी सवाल उठाया, क्योंकि उसने ओबीसी श्रेणी में शामिल समूहों के सामाजिक वंचना की गहराई का पता लगाने के लिए गहन जाँच करने में विफल रहा। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल पुरानी हो चुकी मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 2011 से 2022 के बीच ओबीसी श्रेणियों को अधिसूचित करना उचित नहीं है।
इसके अलावा, कलकत्ता हाई कोर्ट ने कहा कि पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा) (सेवाओं और पदों में रिक्तियों का आरक्षण) अधिनियम 2012 पारित करके और नए ओबीसी की पहचान करने की प्रक्रिया में आयोग की भागीदारी को समाप्त करके, पश्चिम बंगाल सरकार ने ‘राज्य की संवैधानिक शक्ति के साथ धोखाधड़ी’ की है।
विद्वान न्यायाधीशों ने इस बात पर जोर दिया कि आयोग ने मुसलमानों को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों की कैसे अवहेलना की। अदालत ने आगे बताया कि कलकत्ता विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग ने धार्मिक मानदंडों पर आधारित नए ओबीसी के पहले समूह की घोषणा करने के फैसले को सही ठहराने के लिए पिछली वामपंथी सरकार के साथ सहयोग किया था।
न्यायाधीशों ने मुस्लिमों को ‘राजनीतिक वस्तु’ के रूप में इस्तेमाल करके अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पश्चिम बंगाल प्रशासन की कड़ी आलोचना की। कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा लगभग पाँच लाख ओबीसी प्रमाण-पत्रों को रद्द करने के बाद सीएम ममता बनर्जी ने घोषणा की, “मैं कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसले को स्वीकार नहीं करती। ओबीसी आरक्षण वैसे ही जारी रहेगा।”
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) ने जून 2023 में पाया कि पश्चिम बंगाल में रोहिंग्या मुस्लिमों और बांग्लादेश से आए अवैध अप्रवासियों मुस्लिमों को भी ओबीसी प्रमाण-पत्र जारी कर दिए गए थे। एनसीबीसी ने आगे पाया कि पश्चिम बंगाल में हिंदू बहुसंख्यक हैं, लेकिन राज्य में मुस्लिम ओबीसी जातियाँ हिंदू ओबीसी जातियों से अधिक हैं।
विवाद की पृष्ठभूमि
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कॉनग्रेस (TMC) से पहले राज्य में सीपीआईएम की सरकार थी। उसने सन 1994 से सन 2009 के बीच 66 वर्गों को ओबीसी घोषित किया था। इनमें से करीब 12 वर्ग मुस्लिम समुदाय के थे। सीपीआईएम सरकार ने 5 मार्च से 10 सितंबर 2010 के बीच सात कार्यकारी आदेश जारी करके 42 अतिरिक्त वर्गों को ओबीसी की मान्यता दी।
यह कदम संभवतः 2011 के चुनावों को ध्यान में रखते हुए लिया गया था। इन 42 वर्गों में से 41 मुस्लिम समुदाय से थे। नतीजतन, ये नए समूह पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा प्रस्तावित नौकरियों में प्रतिनिधित्व और आरक्षण के लिए योग्य हो गए। अपने मुस्लिम वोट बैंक को और अधिक समायोजित करने के लिए सीपीआईएम ने फरवरी 2010 में सरकारी पदों पर मुस्लिमों के लिए 10% आरक्षण भी दे दी।
हालाँकि, इन सब कामों के बावजूद सीपीआईएम चुनाव में हार गई और तृणमूल कॉन्ग्रेस जीत गई। इसके बाद मई 2011 में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार सँभाला। उन्होंने वामपंथी शासन की तुष्टिकरण नीति को जारी रखा। 11 मई 2012 के कार्यकारी आदेश में TMC सरकार ने ओबीसी के रूप में अतिरिक्त 35 नए वर्गों जोड़ा।
इनमें से 34 वर्ग मुस्लिम समुदाय के थे। इस तरह केवल दो वर्षों में वामपंथी और टीएमसी सरकारों ने ओबीसी समूह में 77 नए वर्ग (जिनमें से 75 मुस्लिम थे) जोड़े। ममता बनर्जी की सरकार ने एक नए कानून के जरिए इन 77 समूहों को ओबीसी ए (अधिक पिछड़ा) और ओबीसी बी (पिछड़ा) नाम की दो श्रेणियों में विभाजित कर दिया।
इसके बाद 18 जनवरी 2011 को अमल चंद्र दास नाम के व्यक्ति ने वामपंथी सरकार के फैसले को चुनौती देते हुए पहली याचिका दायर की। उन्होंने 42 जातियों को केवल धार्मिक मान्यताओं के आधार पर ओबीसी के रूप में नामित करने के फैसले पर सवाल उठाया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा ओबीसी की पहचान में मदद करने के लिए स्थापित आयोग का सर्वेक्षण पूर्वनिर्मित था।
साल 2012 से साल 2020 तक अमल चंद्र दास, पूरबी दास और आत्मदीप ने पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा) (सेवाओं और पदों में रिक्तियों का आरक्षण) अधिनियम 2012 की संवैधानिकता और इसके कई प्रावधानों को चुनौती देते हुए तीन और याचिकाएँ दायर कीं। सभी चार याचिकाओं को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक साथ जोड़ा और उन पर फैसला सुनाया।