यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
प्रश्न — गीता के उक्त श्लोक का अर्थ व भाव क्या है ?
उत्तर– इस श्लोक को कुछ लोगों ने समझने में थोड़ी सी भूल की है। यहां श्री कृष्ण जी का कहने का तात्पर्य स्वयं को ईश्वर बताना नहीं है। उनका कहने का भाव यह था कि सामान्यता यह देखा गया है कि जब जब इस धरती पर अन्याय अत्याचार होते हैं तब तब कोई ना कोई महापुरुष या वीर पुरुष इस धरती पर जन्म लेता है और इन अन्याय और अत्याचारों को मिटाता है। यहाँ ‘अहम’ से तात्पर्य मनुष्य व महापुरुष से है, परमात्मा से नहीं।
इस श्लोक को यदि ईश्वर से जोड़ेंगे या इसका भाव ईश्वर लगाएंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा, ईश्वर के सारे मौलिक गुण तितर बितर हो जाएंगे, ईश्वरीय व्यवस्था डगमगा जाएगी।
ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक और एकरस है। वह निराकार से साकार नहीं हो सकता।
यह अवतारवाद की थिओरी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं। अवतार शब्द का अर्थ होता है उतरना। उतरने चढ़ने का व्यवहार एकदेसीय अर्थात एक स्थान पर रहने वाले पदार्थ/व्यक्ति में हो सकता है, सर्वव्यापक में नहीं। सर्व व्यापक का आना-जाना, चढ़ना उतरना सर्वथा असंभव है। जो सब जगह है, पहले से ही मौजूद है वह कहां से आएगा और कहां आएगा ? जो ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण पहले से ही धरती पर विद्यमान है वह पुनः क्यों अवतरित होगा ? अब रही बात कि कंस को मारने के लिए ईश्वर का अवतार हुआ। जो ईश्वर बिना शरीर के अर्थात बिना शरीर धारण किए मनुष्यों के शरीर उत्पन्न कर सकता है, क्या वह बिना शरीर के शरीर को खत्म नहीं कर सकता ?
ईश्वर बिना शरीर धारण करके, बिना अवतार लिए सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश कर रहा है। एक ही तूफान या बाढ़ आती है तो हजारों व्यक्ति डूब जाते हैं। एक छोटे से कोरोना रूपी वायरस से इस धरती पर लाखों व्यक्ति मर जाते हैं। इनसे हमें बचाने के लिए तो कोई अवतार नहीं आया। इतने सारे लोगों को मारने के लिए यदि ईश्वर को अवतरित होने की आवश्यकता नहीं पड़ी तो एक तुच्छ से कंस का वध करने के लिए उसको जन्म लेने की क्या आवश्यकता है ? यदि ईश्वर को अवतार लेकर कंस को मारना ही था तो उसे जन्म ही न दिलाता अथवा उसे माता के गर्भ में ही मार देता। फिर भला ईश्वर को कृष्ण के रूप में जन्म लेकर, फिर बड़ा होकर और फिर उससे युद्ध करके मारने की क्या ज़रूरत थी ?
इस श्लोक में कहा गया है जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब वह आता है। पर देखने में तो यह आता है कि धर्म पर सदा ही प्रहार होते रहते हैं। यदि ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि आजकल धर्म की अत्यधिक हानि हो रही है अतः आजकल हमें ईश्वर की अधिक आवश्यकता है पर आजकल कोई अवतार दिखाई नहीं दे रहा। इस संसार में धर्म व अधर्म दोनों सदा विद्यमान रहते हैं। धर्म पर चलना व उसकी रक्षा करना हम मनुष्यों का कर्तव्य है। हम अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं अथवा तनिक भी पुरुषार्थ व पराक्रम करना नहीं चाहते और इस कार्य को अथवा हर कठिन कार्य को ईश्वर की ओर घकेल देते हैं। यदि ईश्वर ही धर्म की रक्षा करेगा तो मनुष्यों की श्रेष्ठ बुद्धि व बल कब काम आएगा ? एक बात और भी विचारणीय है कि जिस प्रकार हम ईश्वर के कार्यों व क्षेत्रों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते उसी प्रकार ईश्वर भी मनुष्यों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता।
माना पाकिस्तान और चीन अधर्म को फैला रहे हैं तो धर्म की रक्षा के लिए क्या ईश्वर के अवतार की कल्पना व इच्छा की जाए ? यदि ईश्वर ही धर्म की रक्षा के लिए उतरेगा तो भारत को इतनी विशाल सेना रखना की आवश्यकता ही क्या थी। ईश्वर स्वयं उनसे निपट लेगा।
इस सृष्टि के अपने नियम हैं और उनका हम उल्लंघन नहीं कर सकते उसी प्रकार ईश्वर के भी अपने नियम हैं और वह स्वयं इन नियमों में बंधा हुआ है और वह चाह कर भी इन नियमों को नहीं तोड़ सकता अर्थात ईश्वर अपने नियम के अनुसार ही कार्य करता है। ईश्वर का एक नियम यह भी है कि उसके टुकड़े नहीं हो सकते और उसके सर्वव्यापकता गुण नष्ट नहीं हो सकते। अवतारवाद को मानते ही ईश्वर का सर्वव्यापकता का गुण नष्ट हो जाता है।
दूसरी बात ईश्वर के अवतारवाद को मानने से हमें उसे साकार मानना पड़ेगा जो कि सिद्धांत के विरुद्ध है। साकार मानते ही ईश्वर के सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता अजर अमर आदि समस्त गुण स्वमेव समाप्त हो जाएंगे। जिसे समाप्त करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। ईश्वर के ये मौलिक गुण कभी भी नष्ट नहीं होते, ना ही उन्हें कोई परिवर्तन आता है। अतः ईश्वर के जो गुण है वे अटल है और सदा एकरस है।
अवतारवाद के सिद्धांत को मानने से व्यक्ति अज्ञानता के अंधकार में चला जाता है, ईश्वर के आगमन की प्रतीक्षा में वह स्वयं भाग्य के भरोसे बैठने वाला बनकर पुरुषार्थहीन, आलसी, निकम्मा व निठल्ला बन जाता है।
इसीलिए अवतारवाद मानना अवैदिक है, अवैज्ञानिक है, अविवेकपूर्ण है और असत्य है।