Categories
Uncategorised

देश का वास्तविक गद्दार कौन? – गांधी नेहरू या सावरकर


भाग-10

क्रांति को लेकर गांधीजी और सावरकरजी का चिंतन

गांधीजी जिस आंदोलन को अहिंसक रूप से चलाने के पक्षधर थे उसे उस समय के कई विद्वानों ने जनविरोधी और क्रांतिविरोधी कहा है। प्रश्न है कि गांधीजी का आंदोलन क्या वास्तव में ही जनविरोधी और क्रांतिविरोधी था? इस प्रश्न पर विचार करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे स्वातंत्र्य समर के समय हमारी जनापेक्षाएं क्या थीं और उन जनापेक्षाओं को पूर्ण करने में क्रांति कितनी सफल हो सकती थी?

पहले आते हैं उस समय की जनापेक्षाओं पर। हमें अपने स्वातंत्र्य समर के विषय में यह कदापि नही भूलना चाहिए कि इसे हमने सैकड़ों वर्ष तक लड़ा और उस सैकड़ों वर्ष की लड़ाई का एक ही उद्देश्य था कि इस देश की पावन भूमि पर कोई विदेशी शासक हमें दीखना नही चाहिए। इसके लिए देश के लोगों ने हर वह उपाय अपनाया जिससे विदेशी शासकों से मुक्ति मिल पाना संभव हो। हमारे जनगण के मन की भूमि के कण-कण से एक ही आवाज उठती थी-क्रांति! क्रांति!! क्रांति!!!

भारत अपने अंतर्मन में मचलने वाली इसी क्रांति की ज्वालाओं का धधकता आगार बन चुका था। जनापेक्षा थी कि हमें जो भी नेता मिले वह पहले दिन से ही यह संकल्प ले कि हम विदेशियों को अपना शासक स्वीकार नही करेंगे, और उनको देश से बाहर भगाकर देश को राजनीतिक स्वाधीनता दिलाएंगे। दूसरी जनापेक्षा थी-भारत अपने आपको अति प्राचीनकाल से ही सांस्कृतिक रूप से समृद्घ सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में विकसित करने में सफल रहा था। वह अपनी संस्कृत भाषा की सामासिक संस्कृति के प्रति वचनबद्घ था। जिसे विदेशी आक्रांता शासक मिटाकर समाप्त कर देना चाहते थे, जबकि भारत उसे बचाकर चलने के लिए अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक न्याय प्राप्ति का संघर्ष कह रहा था। भारत चाहता था कि उसका नायक या क्रांति पुत्र सांस्कृतिक सामाजिक न्याय की प्राप्ति में उसका मार्गदर्शन करे। तीसरी जनापेक्षा थी-आर्थिक न्याय की प्राप्ति की। विदेशी लोग ‘लूट का माल’ समझकर हमारे देश के आर्थिक संसाधनों को लूटते जा रहे थे और देश कंगाल हो रहा था। अंग्रेजों से पूर्व के लुटेरे अर्थात मुगलों और उनसे पूर्व तुर्कों को या किसी अन्य किसी भी विदेशी जाति ने भारत को ‘लूट की सैरगाह’ बनाकर रख दिया था। अत: इन सभी लुटेरों से भारत को मुक्त कर ‘देश का धन-देश के लिए’ इस आदर्श पर काम करने की आवश्यकता थी।

वीर सावरकर इन जनापेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए ‘क्रांति’ को ही एकमात्र उपाय मानते थे। ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ (पृष्ठ 145) पर वह लिखते हैं कि-‘‘निश्चित नियमों के अनुसार आज तक किसी भी क्रांति का संचालन नही हो पाया है। क्रांति कोई घड़ी के समान सुनिर्धारित नियम के अनुसार चलने वाला यंत्र नही है। यह एक अकाट्य सत्य है कि क्रांति का नियमन एक दृढ़ संकल्प से होता है। छोटे-मोटे नियमोपनियम तो उसके एक विस्फोट में ही ‘तितर-बितर’ हो जाते हैं। क्रांति के दिग्दर्शन का तो केवल एक ही नियम है-‘‘रूको नही, बढ़ते चलो।’’

गांधीजी ‘क्रांति’ के विपरीत ‘शांति’ की बात कर रहे थे। जब सारा देश क्रांति के लिए मचल रहा था, और क्रांति के माध्यम से ही अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की प्राप्ति का संघर्ष कर रहा था, तब क्रांति की उठती ज्वालाओं पर शांति का पानी डालने वाले गांधीजी को लोगों ने आश्चर्य और कौतूहल की दृष्टि से देखा। नोआखाली जैसे कितने ही स्थानों पर गांधीजी की शांति ने पेट्रोल का कार्य किया। जिससे क्रांति की नही, अपितु साम्प्रदायिकता की ऐसी ज्वालाएं उठीं कि गांधीजी की अहिंसा थर-थर कांपने लगी। कई अवसर ऐसे आये जब गांधीजी ने अपने आंदोलनों को उस समय रोकने का आकस्मिक आदेश जारी कर दिया जब वे अपने चरम पर थे। इससे उनके आंदोलनों को लोगों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया था। जबकि सावरकर जी का कहना था-‘‘क्रांति के जोखिम के समय में तो एक क्षण में ही जीवन मरण का निर्णय हो जाता है। उतावलापन और विलंब दोनों ही इसकी सफलता में बाधक सिद्घ होते हैं। दुविधा के इन क्षणों में क्षमतावान पुरूष ऐसे मुहूत्र्त का चयन करते हैं, जिसमें तेजी और धैर्य से अधिकाधिक लाभ मिल सके। क्रांति का संचालन, अंकगणित के नियमों के अनुसार नही होता, क्रांति की सफलता तो मानव के हृदय में विद्यमान अद्भुत आत्मिक सामथ्र्य पर ही अवलंबित होती है। अकर्मण्यता और मन्दता से तो क्रांति की धधकती ज्वाला ठंडी हो जाती है। कर्मठता और तीव्रता ही क्रांति को जीवित रखती है।’’

जिस समय द्वितीय विश्वयुद्घ आरंभ हुआ उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस थे। लार्ड लिनलिथगो ने उस समय भारत के नेताओं से बिना परामर्श किये ही यह घोषणा कर दी थी कि भारत जर्मनी के विरूद्घ युद्घ करेगा। इस पर गांधीजी ने अपनी मौन सहमति दे दी थी। जबकि नेताजी जर्मनी के नेताओं से मिलकर इस समय ब्रिटेन के लिए संकट खड़ा करने के पक्ष में थे। उनका मानना था कि ऐसा अवसर हजार वर्ष में एक बार आता है। अत: आये हुए अवसर का लाभ उठाया जाए। विदेशी शक्ति को देश की धरती से मार भगाने में एक दूसरी विदेशी शक्ति सहयोग करे और गांधीजी चुप रहें यह उचित नही था। गांधीजी तो इस बात के पक्षधर थे कि शत्रु को इस समय संकट में पड़ा देखकर हम उसकी असहायावस्था का लाभ न उठायें। पहले शत्रु को संकट से उभरने दिया जाए-तब उससे लड़ेंगे। गांधीजी भारत की उसी ‘सद्गुण विकृति’ से ग्रस्त थे जिसने इसे गुलाम कराया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि गांधीजी इस गुलामी की दीर्घ निशा को और भी लंबा करने की डगर पर चल पड़े थे। उनका यह ‘विलम्ब’ सावरकर जी और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की क्रांति के मार्ग में बाधक था। स्पष्ट है कि गांधीजी क्रांति को असफल करना चाहते थे। गांधीजी के 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की असफलता पर यदि दृष्टिपात करें तो यह आंदोलन भी गांधीजी के हर आंदोलन की भांति असफल रहा था। इसकी असफलता के कारण भी वही रहे थे जो पुराने आंदोलनों की असफलता के रहे थे। सर्वाधिक प्रमुख कारण था-गांधीजी का उतावलापन और योजनाहीन आंदोलन की रूपरेखा। गांधीजी ने यह आंदोलन उतावलेपन में चलाया और कोई योजना इस आशय की नही बनायी कि यदि बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो जाती है तो उसके पश्चात आंदोलन को अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए क्या रक्षोपाय किये जाएंगे?

उधर ब्रिटिश सरकार गांधीजी के आंदोलन को कुचलने की तैयारी कर बैठी थी। गांधीजी ने उस ओर ध्यान ही नही दिया। फलस्वरूप यही हुआ कि गांधीजी का आंदोलन चलने से पहले ही समाप्त कर दिया गया। 9 फरवरी 1943 से गांधीजी ने उपवास रखने की घोषणा (उपवास की अवधि 21 दिन रखी गयी थी) की। सरकार गांधीजी को उपवास के कारण जेल में मरने देकर अपनी अपकीत्र्ति नही चाहती थी। इसलिए उसने घोषणा कर दी कि गांधीजी को इस काल में जेल से रिहा कर दिया जाएगा। तब गांधीजी ने कहा कि जेल से छूटने पर उन्हें उपवास की आवश्यकता ही नही पड़ेगी। प्रधानमंत्री चर्चिल ने तब कहा था-‘‘यदि गांधीजी जानबूझकर नही मरना चाहते हैं तो सरकार कोई बाधा (उनके मरने में) नही डालेगी। परिणामों की जिम्मेदारी उनकी अपनी होगी।’’ देश में उपवास को लेकर गांधीजी के प्रति न तो लोगों में कोई उत्साह था और ना ही किसी प्रकार की अशांति ही थी।

विराज महोदय अपनी पुस्तक ‘तीन गांधी हत्याएं’ में गांधीजी को संत न मानकर मतांध मानते हैं। उनका मानना है कि गांधीजी घोर अहंकारी और जिद्दी पुरूष थे। आचार्य रजनीश (ओशो) की तरह वह केवल गुरू बनकर रह सकते थे। जहां अन्य सब साथी उनके शिष्यों की तरह रहें और आंख मींचकर उनकी बात मानते चलें। जो भी कोई व्यक्ति चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, उनके साथ बराबरी के स्तर पर बात करना चाहता था उससे उनकी पट नही सकती थी। उनकी बहुत सी बातें अयुक्तियुक्त होती थीं। जब वह उनके समर्थन में कुछ उचित तर्क नही ढूंढ़ पाते थे, तब वह कहते थे कि यह मेरी अंतरात्मा की आवाज है। इस अंतरात्मा की आवाज के नाम पर वह अपने साथियों के बहुमत का मुंह बंद करके उन पर अपनी बात थोपते थे।

स्वामी श्रद्घानंद जी लिखते हैं :-‘‘जब सिद्घांत का प्रश्न होता था, तब गांधीजी हिन्ंदुओं की भावनाओं का रंचमात्र भी ध्यान रखे बिना अत्यंत दृढ़ रहते थे। परंतु मुसलमान यदि उसी सिद्घांत का उल्लंघन करें, तो वह बहुत नरमी बरतते थे। मुझे यह बात किसी तरह समझ नही आती कि अपने देश के करोड़ों लोगों को अपनी नग्नता ढांपने के साधन से वंचित करने और उन्हीं कपड़ों को एक दूरस्थ देश तुर्की भेज देने में कौन सी नैतिकता थी?’’

क्रांतिकारी आंदोलन के आलोचक और अपने आंदोलनों में योजनाहीन पद्घति अपनाने के अभ्यस्त गांधीजी इस प्रहार मुस्लिम साम्प्रदायिककता को बढ़ाते चले गये, जिसने एक दिन देश का बंटवारा करा दिया। गांधीजी की इस ‘देशभक्ति’ को क्या कहा जाए-देश के प्रति समर्पण या कुछ और………? कुछ भी हो इन सब बातों से एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि गांधीजी और सावरकरजी का स्वतंत्रता प्राप्ति के साधनों को लेकर और क्रांति को लेकर छत्तीस का आंकड़ा था। गांधीजी यदि पश्चिम की सोचते थे तो सावरकरजी उसी समय पूरब की सोचते थे, और यह पश्चिम और पूरब का चिंतन ही दोनों में महान अंतर उत्पन्न कर देता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version