इस पुस्तक के लिखने का तात्पर्य मात्र यही है कि हमारे समाज में यज्ञ करने की विधि में विविधता पाई जाती है, कहीं एकरूपता नहीं दिखाई देती अतः इसके सुधार हेतु यह प्रयास है। सर्वविदित है कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में हर शुभ कार्य का श्रीगणेश अर्थात् शुभारम्भ यज्ञ-कर्म से किया जाता है। खेद की बात है कि हम जहाँ भी जाते हैं (देश-विदेश में, पौराणिक मन्दिरों में, आर्यसमाज मन्दिरों में, विवाह के मण्डपों में या फिर अन्य उत्सवों के अवसरों पर) वहाँ यज्ञ कर्मकाण्ड में बहुत भिन्नता पाते हैं। भारत के भिन्न-भिन्न राज्यों के भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज से यज्ञ किये जाते हैं। सब पण्डित/पुरोहितगण अपने-अपने रीति-रिवाज और ढंग से यज्ञ कराते हैं। कुछ लोग पौराणिक ढंग से यज्ञ करते हैं. उसमें कुछ वैदिक मन्त्र होते हैं, कुछ पुराणों के होते हैं और शेष अन्य पुस्तकों से लिये जाते हैं. जबकि हमारे आर्ष ग्रन्थों एवं प्राचीन शास्त्रों में यज्ञ कर्मकाण्ड करने की विधि एक ही है। अन्य तथाकथित धर्मों में पूजा-पाठ की विधि एक है परन्तु धार्मिक कहाने वाले हम लोगों में यज्ञ कर्मकाण्ड को लेकर अनेक मत हैं। परमात्मा सबको सद्बुद्धि प्रदान करे ताकि हमारी यज्ञ पद्धति में एकरूपता हो सके।

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