मनुष्य का भोजन दुग्ध व्यवसाय युक्त विष मुक्त शाकाहार है
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
मनुष्य दो पैर व दो हाथ वाला एक ऐसा प्राणी है जो बुद्धि रखता है व अपने दो पैरों पर सीधा खड़ा होकर चारों दिशाओं में से किसी भी एक दिशा में एक समय में गमन कर सकता है। मनुष्य को जीवन जीने के लिये आहार या भोजन की आवश्यकता होती है। मनुष्य के पास परमात्मा ने बुद्धि दी है। इससे विचारकर वह अपने लाभकारी भोजन का निश्चय कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति कम बुद्धि रखता है तो उसे सच्चे विद्वानों की शरण लेनी चाहिये जो एकपक्षीय व अपने स्वार्थ का पोषण करने वाले न हों। वह विद्वान ऐसे हों जिन्हें भोजन व उसके गुण-दोष का पूरा-पूरा ज्ञान हो। ऐसे विद्वानों को प्राप्त होकर हम अपने भोजन का निश्चय कर सकते हैं। संसार में हम मनुष्य भिन्न-भिन्न पशु-पक्षी योनियों को देखते हैं जिनमें गाय, बकरी, अश्व तथा भेड़ आदि हमारे पालतू व पारिवारिक पशु कहलाते हैं। इन पशुओं को अपने जीवन को जीने का परमात्मा ने स्वाभाविक ज्ञान दिया है जिसमें उनका आहार व भोजन क्या हो, इसका भी उन्हें ज्ञान रहता है। यह सभी पशु शाकाहारी हैं। यह शाकाहारी भोजन व आहार लेते हैं और मांस की ओर देखते तक नहीं हैं। यह घास-फूंस व वनस्पतियों को खाकर स्वस्थ व निरोग रहते हैं और अपनी आयु स्वस्थ व निरोग रहकर पूरी करते हैं। इनका जीवन परोपकार की मिसाल हैं। यह अपने लिये कुछ नहीं करते परन्तु मनुष्यों को सुख पहुंचाने के लिये ही परमात्मा ने इन्हें जन्म दिया है। ऐसा लगता है कि यह मनुष्यों का पुराना कोई ऋण चुका रहे हों। इनको मनुष्यों की ही तरह सुख व दुःख भी होता है। इनमें सन्तानोत्पत्ति की प्रक्रिया भी प्रायः मनुष्य के समान हैं। इनका जीवन बहुत ही व्यवस्थित होता है। यह पशु दिन में अपने भोजन व चारे को चरते हैं। सायंकाल व उसके बाद यह प्रायः भोजन नहीं करते। गायें जो घास व वनस्पतियां खाती हैं, उसे यह गोदूग्ध में बदल देती है जो मनुष्यों के अमृत के समान होता है। दुग्ध हमारे लिये शाकाहारी भोजन होता है। शैशवास्था में यह हमारे जीवन का प्रमुख आधार होता है और बुढ़ापे में जब मनुष्य के दांत नहीं रहते तो यह तब भी हमारे लिये ठोस भोजन के विकल्प के रूप में प्राप्त होता है। गोदुग्ध मनुष्य के लिये पूर्ण आहार है। इसका सेवन करने से वह सभी तत्व हमारे शरीर को प्राप्त हो जाते हैं जिनकी हमारे शरीर को आवश्यकता होती है। इसी प्रकार से बकरी का दुग्ध भी गाय के समान व कुछ बातों में गाय से भी अधिक गुणकारी होता है। हमारा अनुमान व अनुभव है कि बकरी के दुग्ध का पान करने से मनुष्य न केवल शरीरिक रूप से स्वस्थ रहता है अपितु यह बकरी के बच्चे के समान फुर्तीला बनता है और बकरी के दुग्ध का सेवन करने वाले शिशु व किशोर तथा युवक-युवतियों की बुद्धि भी तीव्र व ज्ञान ग्रहण करने में विशेष योग्यता व क्षमताओं से युक्त होती है। कमजोर बुद्धि व मन्द स्मृति वाले व्यक्तियों को यदि बकरी का दुग्ध पिलाया जाये तो वह बच्चे कुछ ही दिनों में ज्ञान के गूढ़ रहस्यों को प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो जाते हैं। देशी नस्ल की गाय के दुग्ध में भी यह सभी गुण होते हैं। हम समझते हैं कि हमें इन दुग्धधारी पशुओं के आहार पर ध्यान देना चाहिये। जैसा आहार होगा वैसी ही गुणवत्ता इन प्राणियों के दुग्ध में होगी।
यदि हम अश्व की बात करें तो यह पशु शक्ति में हमसे व अन्य अनेक प्राणियों से अधिक क्षमता रखता है। यह तेज दौड़ता है और हमें मीलों दूर कुछ ही समय में पहुंचा सकता है। इसे दौड़ने के लिये सीमेंट या तार-कोल की सड़कों की भी आवश्यकता नहीं होती। यह गांव क्या और पहाड़ क्या, इसे कहीं भी ले जा सकते हैं। महाराणा प्रताप के चेतक घोड़े को हम सभी जानते हैं। महाराणा प्रताप की विजय गाथा में इस चेतक घोड़े का योगदान भी सम्मिलित है। घोड़े का एक गुण यह भी है कि यह कभी बैठता या लेटता नहीं है। यह अहर्निश जागरुक रहता है। यह खड़े रहकर ही अपनी नींद व थकान को दूर कर लेता है और अपने स्वामी के काम करने के साथ उसके जीवन की रक्षा भी करता है। घोड़ा पूर्ण शाकाहारी है। दौड़ने में मांसाहारी पशु से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। इसकी चुस्ती व स्फूर्ती देखते ही बनती है। यह भी हमें यह सन्देश देती है कि हमें गाय, बकरी, अश्व व भेड़ के शाकाहारी आहार व भोजन से शिक्षा लेकर स्वयं भी वैसा ही भोजन करना चाहिये। भेड़ भी एक शाकाहारी पशु है। भेड़ से हमें अपने शरीर को शीतकाल में शीत से बचाने में सहायता मिलती है। भेड़ से हमें ऊन मिलती है जिससे हम स्वेटर, कम्बल, शाल व नाना प्रकार के ऊनी वस्त्र बनाकर उससे लाभ लेते हैं। भेड़ का जीवन भी अन्य कुछ पशुओं के समान परोपकारमय जीवन है। इससे व अन्य पशुओं से हमें शाकाहारी भोजन करने सहित परोपकारी जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है। यह भी बता दें की मनुष्य के दांतों तथा इन पारिवारिक पशुओं के दातां में समानता है जिससे यह सन्देश मिलता है कि हम सब आहार की दृष्टि से परमात्मा द्वारा शाकाहारी प्राणी ही बनाये गये हैं। जो इस प्राकृतिक सन्देश के विपरीत व्यवहार व कार्य करता है वह सृष्टि के नियमों की अवहेलना करने का दोषी कहा जा सकता है। आश्चर्य है कि आजकल बड़े-बड़े पढ़े लिखे लोग भी शाकाहारी भोजन न कर पशु-पक्षियों के मांस सहित तामसिक भोजनों को करते हैं जिसमें मछली, मुर्गी व मुर्गे तथा उनके अण्डे अदि कई प्रकार के तामसिक पदार्थ सम्मिलित है। विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि यह मनुष्यता के विपरीत व्यवहार है। ऐसा करना प्रकृति से कुछ न सीखना व जीभ के स्वाद के लिये अन्य प्राणियों को दुःख व कष्ट देना है। मांसहार सही मायनों में हिंसा एवं क्रूरता है। ऐसे लोग परमात्मा के कर्म-फल विधान से भी अपरिचित रहते हैं। वह नहीं जानते कि भविष्य में उन्हें भी इस प्रकार का पशु बनना पड़ सकता है और तब वही दुःख जो इन्होंने इस जन्म में पशु-पक्षियों को दिये हैं, वैसे ही दुःख इन्हें भी भोगने पड़ सकते हैं। ईश्वर मनुष्य के सभी शुभ व अशुभ अर्थात् पाप व पुण्य कर्मों का यथावत्, न कम न अधिक, फल देता है। हमारा ऐसा कोई कर्म नहीं होता जिसके फल से हम बच सकते हैं। कोई धर्म व उनका धर्मगुरु हमारे किसी पाप कर्म के दण्ड व फल से हमारी रक्षा नहीं कर सकता। ऐसे दावे असत्य होते हैं व भ्रम पैदा करते हैं। सब मनुष्यों को अपने किये हुए कर्मों के फल अवश्य ही भोगने होते हैं। यदि इन बातों को सभी धर्मगुरु समझ लें तो सारा विश्व शाकाहारी, स्वस्थ, अनेक रोगों व दुःखों से मुक्ति पा सकता है।
चिकित्सा व शरीर शास्त्री बताते हैं कि परमात्मा ने मांसाहारियों एवं शाकाहारियों की पाचन प्रणाली व पाचन के अवयव भिन्न-भिन्न प्रकार के बनाये हैं। मनुष्य शाकाहारी प्रणाली है इसलिये इसके उदर व पाचन के अंग-प्रत्यंग शाकाहारी पशुओं के समान हैं। मांसाहारी पशुओं के पांचन के अंग व अवयव मनुष्यों समान नहीं होते अपितु मांसाहारी सिंह आदि के समान होते हैं। मनुष्य कच्चा भोजन फल व वनस्पतियों को पचा सकता है परन्तु कच्चे मांस को नहीं। दूसरी ओर मांसाहारी पशु कच्चे मास को खाते हैं व उसे पचाते भी हैं। वह मनुष्यों की तरह पका हुआ मांस नहीं खाते। मनुष्य के दांतों की बनावट शाकाहारियों पशुओं के समान है जबकि मांसाहारी पशुओं के दांतों की बनावट मनुष्य व शाकाहारी पशुओं से भिन्न है। छोटे बच्चों के सामने यदि वनस्पतियों व फलों को तोड़ा जाये तो उन्हें बुरा नहीं लगता परन्तु यदि बच्चों व बड़ों के सामने भी किसी बकरी व मुर्गी आदि को मारा व काटा जाये तो वह उन्हें देखने में घबराहट व दुःख का अनुभव करते हैं। कईयों को मांस देखकर वमन हो जाता है। यह परमात्मा की ओर से आत्मा के भीतर प्रेरणास्वरूप होता है। हमने एक वीडियों में बहुत से बच्चों को अपने घरवालों को पशुओं को मारने का विरोध करते देखा है। वह पीटे जा रहे हैं परन्तु विरोध करना छोड़ नहीं रहे। यह ऐसी मार्मिक वीडियों थी जिसे हम अपने मन की कोमलता के कारण पूरी नहीं देख सके। एक विदेशी बच्ची का वीडियों भी हमारे पास है जो किसी भी रूप में मांसाहार का विरोध करती है और कहती है पशुओं को मारने से उनको दुःख होता है, इसलिये वह उनके मांस का सेवन नहीं कर सकती। शाकाहार के पक्ष में और मांसाहार के विरोध में अन्य अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। हमने विद्वानों से यह भी सुना है कि शाकाहारी मनुष्यों व पशुओं की मांसाहारी पशुओं व मनुष्यों से अधिक आयु होती है। शाकाहारी लोग कम बीमार होते हैं जबकि मांसाहारी अधिक। मांसाहारियों के शरीर से एक विशेष प्रकार की दुर्गुन्ध आती है जबकि शाकाहारी मनुष्यों में वह गन्ध नहीं होती। शाकाहारी अधिक फुर्तीले होते हैं। विदेशों में भी स्त्री व पुरुषों द्वारा मांसाहार कम हो रहा है। अब तो अमेरिका जैसे देश में गाय आदि अनेक पशुओं से बातचीत करना, उनके साथ खेलना और उनको सहलाने आदि से अकेलेपन व अवसाद जैसी बीमारियों की सफल चिकित्सा भी की जा रही है।
इन सब कारणों से मनुष्य का भोजन वनस्पतियों की तरह उत्पन्न गेहूं, चावल, सब्जी, दालें, दुग्ध तथा नाना प्रकार के फल आदि हैं। इससे मनुष्य स्वस्थ रहकर दीर्घायु को प्राप्त हो सकता है। मांसाहार ईश्वरीय ज्ञान वेदों में भी निषिद्ध है। मांस खाने से मनुष्य का स्वभाव हिंसक बनता है। हृदय व रक्तचाप सहित मधुमेह आदि रोगों में भी मांसाहार वर्जित किया जाता है। इससे रोग के अधिक बढ़ने से रोगी का जीवन संकट में पड़ जाता है। परमात्मा ने ने सभी पशुओं पक्षियों को अपने पूर्व के मनुष्य जन्म के कर्मों का भोग करने के लिये पशु जन्म दिया है। उनको मारने व खाने से ईश्वर की व्यवस्था में बाधा पहुचाने से हम ईश्वर के प्रति अपराध करने के दोषी भी होते हैं। इसका फल हमें यथायोग्य व्यवहार के द्वारा चुकाना होगा। मांसाहारी यम व नियमों का पूरा पालन न कर पाने से योग विद्या को सिद्ध नहीं कर सकता। इसलिए हमें सावधान होना चाहिये और मांसाहार का सर्वथा व पूर्ण त्याग कर देना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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