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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

ओ३म् आज 80वी जन्म तिथि पर –ऋषि दयानन्द जिनके मन व वाणी में वसते थे– “स्वामी दयानन्द के विचारों की देन थे हमारे प्रेरणास्रोत आर्य-विद्वान प्रा. अनूपसिंह”

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[लेख की भूमिका- हम सन् 1970 व उसके एक दो वर्ष बाद आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और सदस्य बने। हमारे सदस्य बनने में मुख्य भूमिका हमारे एक पड़ोसी मित्र श्री धर्मपाल सिंह तथा आर्यसमाज के वरिष्ठ विद्वान प्रा. अनूप सिंह जी की थी। दिनांक 15 अगस्त 2024 को प्रा. अनूपसिंह जी की 80वी पुण्य तिथि है। इस अवसर हम अपने कुछ संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं।]

देहरादून में आर्यसमाज के क्षेत्रों में एक जाना पहचाना नाम रहा है प्रा. अनूप सिंह जी का। आप आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। सुन्दर चेहरा, कद-काठी सामान्य, लम्बाई लगभग 5‘8‘‘, स्वास्थ्य व स्वरूप में आकर्षण, विद्वता में अग्रणीय, युवाओं के प्रिय तथा प्रेरक, तेजस्वी व ओजस्वी वक्ता, विद्यार्थियों के प्रिय अध्यापक, महर्षि दयानन्द के अनुयायी, निर्भीक व साहसी, आर्य प्रचारक, उपदेशक, स्वाध्यायशील, युवाओं के प्रेरक एवं प्रेरणास्रोत, आर्य विद्वानों के परिचित व सहयोगी आदि अनेक गुण आप में थे। आप का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के मुजफ्फर-नगर जिले के ‘भाजू’ कस्बे में मिडिल स्कूल के एक हैड मास्टर एवं आयुर्वेदिक चिकित्सक श्री आशा राम व माता ज्ञानो देवी के यहां 15 अगस्त सन् 1944 को हुआ था। तीन भाईयों में आप सबसे बड़े थे। राजनीति शास्त्र में एम.ए., बी.टी, तथा विधि स्नातक की शैक्षिक योग्यता अर्जित करने के बाद आपने मुजफ्फरनगर के सनातन धर्म कालेज में 3 वर्ष तक अध्यापन कराया और इसके बाद सन् 1966 से देहरादून के आर्य इन्टर कालेज, सुभाषनगर में राजनीति विज्ञान विषय के प्रवक्ता के रूप में नियुक्त होकर अध्यापन किया। इस विद्यालय में आपको इसके संस्थापक व स्वामी, जो आर्यसमाज के अनुयायी भी थे, उन श्री पन्ना लाल जी द्वारा लाया गया था। सन् 1974 में इन्दुबाला जी से आपका विवाह हुआ जो जीव विज्ञान में बी.एस.सी., बी.एड. शिक्षित थीं। विवाह के बाद इन्दुबाला जी ने राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। आपके दो पुत्र श्री मनुसिंह एवं श्री प्रशान्तसिंह हैं। देहरादून में व्यापक परिचय होने के कारण श्री अनूपसिंह की मित्र एवं शिष्य मण्डली भी काफी व्यापक रही है। एक अध्यापक, पत्रकार, राजनीति में सक्रिय योगदान करने तथा आर्यसमाज के विद्वान व ओजस्वी वक्ता होने के कारण आपका लोगों पर अपना अलग ही प्रभाव था।

परमात्मा जीवात्मा का उसके प्रारब्ध या कर्मानुसार माता-पिता व नये शरीर से सम्बन्ध कराता है। जन्म के समय शरीर इस योग्य नहीं होता कि वह स्वतन्त्रतापूर्वक कुछ कर सके। आरम्भ के कुछ वर्ष वह माता-पिता पर आश्रित रहता है। जन्म से लगभग 5 वर्ष की अवधि में उसे अपने माता-पिता व घर के अन्य सदस्यों का ज्ञान होने लगता है या काफी कुछ हो जाता है। माता-पिता उसे सामान्य ज्ञान देना आरम्भ कर देते हैं। माता तो गर्भावस्था व उसके बाद से ही उसे संस्कार देने के साथ ज्ञान कराती रहती है। जन्म लेने के समय बालक या बालिका को भाषा का ज्ञान नहीं होता। बिना भाषा के किसी प्रकार का भी ज्ञान हो ही नहीं सकता। अतः पहले भाषा का ज्ञान कराना अत्यावश्यक होता है। यह कार्य मुख्य रूप से माता ही करती है। कुछ भाषा का ज्ञान होने के बाद उसे नाना प्रकार के शब्दों का ज्ञान कराने के साथ मातृ भाषा की वर्णमाला का ज्ञान कराना भी आरम्भ किया जाता है। कुछ बच्चें विद्यालय में अध्यापकों से वर्णमाला, उसके आगे शब्दों व उनके अर्थों के ज्ञान के साथ वाक्य रचना, अंकों, गिनती व पहाड़े आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं। विद्यालय का अध्ययन आरम्भ होकर किसी का कक्षा 10 तक तो किसी का 12, 14 व किसी का 16 व उसके आगे भी अध्ययन होता है। हमारे यहां मुख्यतः अंग्रेजों व उनके मानस पुत्रों द्वारा प्रवर्तित शिक्षा व्यवस्था ही सर्वत्र है। कुछ थोड़े से बच्चे गुरूकुलों में संस्कृत व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन कर विद्वान बनते हैं। श्री अनूपसिंह जी स्कूली शिक्षा से पढ़े हुए व्यक्ति थे। जैसा कि हमने पूर्व लिखा है कि आप एम.ए.,बी.टी. करके प्राध्यापक बने और सारा जीवन आर्य इण्टर कालेज, देहरादून विद्यालय में अध्यापन से जुड़े रहे।

आपके आर्यसमाजी बनने की कहानी भी दिलचस्प है। आपको अध्ययन के लिए जिला मुजफ्फरनगर आकर एक किराये का कमरा लेकर रहना पड़ा। मकान मालिक श्री गजे सिंह आर्य कट्टर आर्य समाजी थे और प्रतिदिन अग्निहोत्र किया करते थे। यहीं से आपका आर्य समाज से परिचय हुआ, आपने उनसे हवन करना सीखा और उनके मौखिक प्रचार से सन् 1965 में आर्य समाजी बने। जब कक्षा 12 में थे, तभी आपने प्रवचन करना आरम्भ कर दिया था। यहां से आरम्भ प्रवचनों का सिलसिला आपकी मृत्यु तक जारी रहा। हमें आपके अनेक प्रवचनों को सुनने का अवसर मिला। आपकी वाणी में मधुरता के साथ ओज की मात्रा भी होती थी जिससे श्रोताओं को आप अपने वश में कर लेते थे। स्वाध्यायशील ऐसे थे कि कुछ ही घंटों में पूरी पुस्तक पढ़कर समाप्त कर देते थे। देहरादून के आर्य समाज के मंत्री रहे स्व. श्री ईश्वर दयालु आर्य ने हमें बताया था कि आप चलती फिरती एक लाइब्रेरी थे। किसी बात का प्रमाण चाहिये या फिर कोई अधूरा सन्दर्भ हो, उसे पूछने पर तत्काल पते सहित पूरा बता दिया करते थे। यह प्रतिभा बहुत कम लोगों में होती है। सन् 1968 में आप मुजफ्फरनगर की नई मण्डी आर्य समाज के मंत्री रहे थे।

जब हमने सन् 1970 में आर्य समाज, धामावाला, देहरादून में जाना आरम्भ किया तो आपके दर्शन हुए। आपके आकर्षक व्यक्तित्व का हम पर गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1975 में आप समाज के मन्त्री पद पर थे। यदा-कदा आपके प्रवचन सुनने को मिलते थे जिससे आपके प्रति हमारा आकर्षण बढ़ता रहा और कब आपसे निकट सम्बन्ध होकर मित्रता हो गई, पता ही नहीं चला। हमारे यह सम्बन्ध व मित्रता आपकी मृत्यु तक बनी रही और ऐसे गहरे आत्मीय सम्बन्ध रहे कि जिससे हमें नाना प्रकार के लाभ हुए। यदि आप आर्यसमाज धामावाला में सक्रिय न होते तो हम विश्वासपूर्वक नहीं कह सकते कि हम आर्यसमाजी बन भी पाते या नहीं? श्री अनूपसिंह जी के साथ मित्रता से हमें जो लाभ हुआ उनमें से एक लाभ स्वाध्याय करने की प्रेरणा थी। आरम्भ से ही हमें अपने दूसरे प्रभावशाली मित्र श्री धर्मपाल सिंह का सान्निध्य प्राप्त रहा। वह सामान्य से अधिक स्वाध्यायशील थे। उनका यह गुण हमारे अन्दर भी आना आरम्भ हो गया था और एक समय तो शायद ऐसा आया कि यह गुण हम मंे उनसे अधिक न हो गया हो। हमारे पास जो भी पैसे होते थे उससे हम पुस्तकें खरीदते थे या अधिकाधिक आर्य पत्र-पत्रिकाओं का शुल्क भेज देते थे। आर्यसमाज व अन्य मतों की धार्मिक संस्थाओं में जाना और वहां विद्वानों के प्रवचन सुनना आदि हम दोनों मित्रों का शौक बन गया था। सभी प्रकार की विचारधाराओं के विद्वानों के प्रवचनों से लाभ यह हुआ कि हमें आर्य विचारधारा तर्क संगत, बुद्धि संगत, सत्य और ज्ञान से युक्त होने का विश्वास हो गया और पौराणिक विचारधारा का तर्क व प्रमाण शून्य होने का निर्णय हो गया जिससे हम आर्यसमाज के सदस्य बन गये और जन्म से तब तक जो पौराणिक कृत्य करते थे, मांसाहार का भी प्रयोग किया था, वह सब आर्यसमाज की कृपा से छूट गया और हम ज्ञान लाभ व प्रगति की ओर अग्रसर होने लगे जिसका श्रेय हम श्री धर्मपाल सिंह व श्री अनूप सिंह जी को समान रूप से देते हैं। हम यहां बता दें कि श्री धर्मपालसिंह भी श्री अनूपसिंह जी से निकट संबंध रखते थे और श्री अनूपसिंह हम दोनों के मित्र होकर भी गुरू समान आदरणीय एवं पूज्य थे।

श्री अनूप सिंह जी से जुड़ा हमारा एक निजी संस्मरण है। सन् 1984 की 2 जनवरी को हमारे परिवार में प्रथम सन्तान के रूप में एक पुत्री ने जन्म लिया। धर्मपत्नी को जब सरकारी चिकित्सालय में प्रसव के लिए प्रविष्ट किया तो चिकित्सकों ने कुछ जटिलतायें बता कर एक अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर करने को कहा। हम घबरा गये और इससे पूर्व की हम किसी प्राइवेट नर्सिगं होम में जायें, हम श्री अनूपसिंह जी के निवास पर परामर्श व मार्गदर्शन हेतु पहुंचे। उस समय उनके शिर में माइग्रेन की तीव्र पीड़ा हो रही थी और वह हिलने व डूलने में भी कष्ट अनुभव कर रहे थे। चिकित्सालय के डाक्टरों से हुई बातचीत के बारे में बताने पर वह एकदम तैयार हुए और स्कूटर से अस्पताल पहुंचे। उनसे बातचीत की और हमें हस्ताक्षर कर देने के लिए कहा। उसके कुछ ही घंटों बाद पुत्री का जन्म हो गया और किसी प्रकार की कोई जटिलता नहीं हुई। यह पुत्री अब बैंक में अधिकारी है। श्री अनूपसिंह का आर्यसमाज के एक साधारण सदस्य के प्रति यह सत्य-स्नेह व प्रेम का प्रेरणाप्रद उदाहरण है जो हमें इन पंक्तियों को लिखते हुए स्मरण हो आया। इसके अतिरिक्त भी उन्होंने अनेक अवसरों पर हमें बहुत उपयोगी परामर्श दिये। वह हमारी किसी प्रकार की भी समस्या के समाधान में तत्पर रहते थे जिससे हमें जो लाभ हुए हैं वह कभी भुलाये नहीं जा सकते।

जब हम आर्यसमाज के सदस्य बने तो हमने देखा कि आर्यसमाज में प्रवेश करने का लगभग 15-20 चौड़ा एक द्वार है। इसके दोनों ओर लगभग 10 फीट चैड़ी पांच-2 दुकाने बनाकर उसे पगड़ी लेकर किराये पर दिया गया था। हमारे मित्रों व पुराने सदस्यों ने बताया कि दुकानें इस लिए बनाई गई हैं कि पगड़ी व किराये के धन से वेद प्रचार अधिक होगा परन्तु हमने आर्यसमाज द्वारा आर्यसमाज की दीवारों से बाहर वेदप्रचार होता कभी नहीं देखा। श्री अनूप सिंह तब आर्यसमाज की अन्तरंग सभा के सदस्य थे और आपने दुकानों को बना कर किराये पर देने का प्रबल विरोध किया था। सबकी अपनी-अपनी परिभाषायें व कथन हो सकते हैं परन्तु हमें लगता है कि वेद प्रचार तो स्वामी विरजानन्द सरस्वती, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी ज्ञानानन्द (मेहता जैमिनी जी), महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. गणपति शर्मा, पं. कालूराम शर्मा, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य बृहस्पति शास्त्री, पं. रूद्रदत्त शास्त्री, स्वामी अमर स्वामी, कुंवल सुखलाल आर्य मुसाफिर, स्वामी मुनीश्वरानन्द, पं. उदयवीर शास्त्री, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि ने किया है। उनके व उन जैसे ऋषिभक्तों के किए गये कार्यों को ही हम वेद प्रचार कह सकते हैं। आर्यसमाज का भवन बना कर वहां रविवार को एक हवन कर लेने व स्वयं या किसी अन्य का प्रवचन करा देने और किसी एक व्यक्ति का भजन सुन लेने को यदि वेद प्रचार कहा जाये, तो हमें लगता है कि यह सीमित अर्थों में वेदप्रचार कहा जा सकता है। हमने चार-पांच दशक पूर्व आर्यसमाज में वेदप्रचार कम तथा पदों व सम्पत्ति के लिए प्रयत्न करने वाले लोग अधिक देखें हैं। ऐसे में हमें यहां श्री पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य बृहस्पति शास्त्री जी, पं. रूद्रदत्त शास्त्री जी के व्यक्तित्व की प्रेरणा एवं अनूपसिंह, श्री धर्मपाल सिंह, श्री धर्मेन्द्र सिंह आर्य, श्री भोलानाथ आर्य तपोवन, प्रो. डा. मुक्तिनाथ, डा. नवदीप कुमार, कर्नल रामकुमार आर्य, श्री ईश्वरदयालु आर्य, श्री दौलत सिंह राणा, श्री संसार सिंह रावत, श्री ठाठ सिंह, श्री शिवनाथ आर्य, श्री राजेन्द्र काम्बोज एवं पं. चन्द्र दत्त शर्मा आदि का साथ व सान्निध्य मिलना हम अपना सौभाग्य समझते हैं। श्री अनूपसिंह को हमने सारा जीवन आर्यसमाज की गलत बातों के विरूद्ध में स्ंाघर्ष करते हुए देखा जिनका साथ हमने भी दिया। ऐसा ही हमने आर्यसमाज के एक महान संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती को भी देखा जिन्होंने आर्यसमाज की सदस्यता से त्याग-पत्र दे दिया था और उसके बाद भी उन्होंने आर्यसमाज की जो सेवा जारी रखी वह इतिहास की धरोहर हैं एवं स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।

सन् 1994 में अधिवक्ता श्री राजेन्द्र कुमार काम्बोज आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश द्वारा आर्यसमाज, धामावाला, देहरादून के प्रशासक बनाये गये। उन्होंने जो संचालन समिति बनाई उसमें श्री अनूपसिंह जी के साथ इन पंक्तियों के लेखक को सत्संगों की व्यवस्था करने व कार्यक्रमों के संचालन का भार सौंपा। हमने श्री अनूपसिंह जी के मार्गदर्शन में इस कार्य को पूरी लगन व परिश्रम से निभाया। श्री राजेन्द्र कुमार जी का कार्यकाल आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के इतिहास में स्वर्णिम काल रहा है। इस काल में यदि विरोधी पक्ष से जुड़े हुए लोग सत्संगों में आते थे तो उन्हें निष्पक्ष भाव से यज्ञ का यजमान, भजन गाने का समय देना, उनके प्रवचन कराना और उनकी वरिष्ठता व ज्ञान के स्तर के अनुसार उन्हें सभा व सम्मेलन का अध्यक्ष भी बनाया गया व फूल मालाओं से उनका सम्मान किया गया। सत्संग में आने वाले प्रत्येक सदस्य को प्रेरित कर उन्हें संक्षिप्त प्रवचन करने, भजन गाने, कविता सुनाने आदि की प्रेरणा की जाती रही जिसका प्रभाव यह हुआ कि छोटे बच्चे भी कविता, गीत व भजन गाने व सुनाने लगे। एक युवा पुत्री आती थी, वह सत्यार्थप्रकाश का पाठ करती थी। एक विद्यार्थी पुत्री स्वलिखित कवितायें लिख कर लाती थी और उसे उन्हें सुनाने का पूरा अवसर दिया जाता था। हमें एक बार की घटना याद है कि आर्यसमाज के लिए अपरिचित एक युवक पहली बार अंग्रेजी वाद्य यन्त्र गिट्टार और कई अन्य यन्त्रों को लेकर आया और उसने गिट्टार बजा कर एक भजन प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी। अन्तिम प्रवचन चल रहा था और उसके बाद सूचनायें देने, संगठन सूक्त व शान्ति पाठ के साथ सत्संग समाप्त होना था। कार्यक्रम का संचालन करते हुए हमे आर्यजगत के वरिष्ठ विद्वान श्री अनूप सिंह जी ने बुला कर कहा कि यह युवक है, इंजीनियर है, पहली बार आर्यसमाज में आया है, गिट्टार पर कोई धुन सुनाना चाहता है, इसे प्रवचन के बाद समय दे दो। हमने उनके परामर्श व आज्ञा का पालन किया। हमारे भजनोपदेशक पं. सुगनचन्द जी ने भजन गाया और उस युवक ने गिट्टार पर संगीत द्वारा संगति दी। भजन था — ‘‘कैसा सुन्दर खेल रचाया ऐ मेरे भगवान, करते हैं तेरा गुणगान।” हमने इस भजन की आडियो रिकार्डिंगं भी कर ली थी। यह भजन हमें बहुत अच्छा लगा व श्रोताओं को भी अच्छा लगा जिसका प्रमाण भजन समाप्ति पर श्रोताओं द्वारा तालियों की गड़गड़ाहट थी जो रिकार्ड की गई कैसट में भी सुरक्षित हो गई थी। इस भजन को बाद में हमने घर पर टेप रिकार्डर की सहायता से अनेकों बार सुना और आनन्द का लाभ किया। जीवन में अब तक यह भजन कहीं किसी भजनोपदेशक वा यूट्यूब आदि पर सुनने को नहीं मिला।

ऐसी अनेक र्नइं परम्परायें उस समय स्थापित हुईं लेकिन 15 महीने बाद यह स्वर्णिम काल समाप्त होकर पुनः पहले वाली स्थिति स्थापित हो गई। ऐसी स्थिति में हमने स्वयं को अध्ययन और लेखन में लगाया और स्वयं को अपने समाज के साप्ताहिक सत्संगों से दूर कर लिया था। हमें लगता है कि हमारा वह निर्णय उचित था। सन् 1994-95 के श्री राजेन्द्र कुमार जी के कार्यकाल में आर्यसमाज में जो कार्यक्रम हुए वह भी इस समाज के इतिहास में अपूर्व थे। हिन्दी दिवस पर हिन्दी के महत्व पर श्री अनूप सिंह जी का व्याख्यान ‘‘हिन्दी नहीं रहेगी तो देश टूट जायेगा” शीर्षक से किया गया। इसके बारे में यह बताना उचित होगा कि इस प्रवचन का विस्तृत समाचार दिल्ली के आर्य पत्र ‘‘आर्य सन्देश” में प्रकाशित हुआ था। हमने यह पत्र श्री अनूप सिंह जी को देखने को दिया। कई दिन बाद उन्होंने हमें इसे लौटाया और बोले कि मनमोहन जी, क्या यह प्रवचन मैंने ही दिया था? यह प्रवचन इतना सरस, सहज, ज्ञानवर्धक व प्रभावशाली था कि हमने इसे अनेकों बार पढ़ा और इसके अनेक स्थलों पर हम भावविभोर हो गये। इसी क्रम में स्वतन्त्रता-दिवस पर स्वतन्त्रता सेनानियों को बड़ी संख्या में आमत्रिंत कर आर्यसमाज के एक आयुवृद्ध स्वतन्त्रता सेनानी व ज्ञानी विद्वान सदस्य की अध्यक्षता में उनका आर्यसमाज की ओर से सम्मान किया गया। इस आयोजन में उपस्थिति अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों के संस्मरण सुनें और इसी विषय से सम्बन्धित प्रवचन हुए। एक अन्य अवसर पर ‘‘आर्य समाज की पत्रकारिता को देन” विषय पर जनपद देहरादून के प्रमुख व वरिष्ठ पत्रकारों को आमंत्रित कर उनको सम्मानित करना व उनके इस विषय पर विचार सुनना तथा अपनी बात कहना, विषयक आयोजन हुआ। इसी प्रकार से सभी पर्वों, आर्य महापुरूषों के जन्म दिवसों व पुण्य तिथियों पर उनको स्मरण कर विशेष प्रवचन की व्यवस्था करना, प्रत्येक कार्यक्रम की विस्तृत विज्ञप्ति तैयार कर सभी पत्रों को समय पर देना और उनका प्रमुखता से सभी पत्रों में प्रत्येक सप्ताह प्रकाशित होना जिससे नगर व जनपद में आर्यसमाज की एक विशेष छवि निर्मित हुई थी।

हमें याद है कि कृष्ण जन्माष्टमी व रामनवमी के पर्व भव्य रूप में मनाये गये थे। कृष्ण जन्माष्टमी पर मथुरा से पधारे पौराणिक विद्वान आचार्य वासुदेवानन्द जी ने महर्षि का जिन भक्ति व श्रद्धापूर्ण शब्दों में स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस प्रवचन का प्रैसनोट हमने तैयार किया था, जो प्रमुखता से स्थानीय एवं आर्य पत्रों में प्रकाशित हुआ था। प्रवर पौराणिक विद्वान आचार्य वासुदेवानन्द के शब्द थे कि आर्य समाज में ‘‘न दिखावट है, न बनावट है, न सजावट है और न मिलावट है।” इस समाचार को स्मरण कर व देख कर हमें आज भी प्रसन्नता होती है। एक विशेष बात यह थी कि प्रवचन के बाद जब इन विद्वान महोदय को जलपान कराया गया तो हमारे समाज के सभी वर्ग जिसमें अनुसूचित जाति के बन्धु भी थे, उनके साथ आमने सामने बैठे और उन्होंने बहुत ही विनम्रता के साथ हमारी दुग्ध, मिष्ठान्न व फलों की तुच्छ भेंट स्वीकार की। आर्थिक दक्षिणा हम उनको नहीं दे सके थे। एक बात और उल्लेखनीय है कि जब हम व श्री राजेन्द्र काम्बोज इन विद्वान महोदय को लेने देहरादून के एक प्रमुख विशाल पौराणिक मन्दिर ‘‘गीता भवन” पहुंचे तो आप समय पर आने के लिए पूरी तरह से तैयार थे। हमारे पहुंचने पर आप चलने के लिए खड़े हो गये थे। आपने पूछा कैसे चलना है, हमने उन्हें कहा कि हमारे पास यह मोपेड है, इस पर चलेगें। वह तैयार हो गये। फिर उन्होंने पूछा कि हमारे साथी श्री राजेन्द्र काम्बोज कैसे आयेगें, हमने कहा कि यह पैदल आ जायेगें, दोनों स्थानों के बीच की दूरी अधिक नहीं थी। इस पर वह नहीं माने और कहा कि हम सब पैदल ही चलेगें। जब हम तीनों पैदल आ रहे थे तो हमने देखा कि मार्ग में हमारी मातायें, स्त्रियां व पुरूष, उन विद्वान महामना महात्मा को अचानक सामने आते देखकर उनके पैरों में झुक कर प्रणाम कर रहे थे। उनका वह गौरव और माताओं व पुरूषों की श्रद्धा देखकर हम दंग रह गये थे। इस पर भी हमने पाया कि उन विद्वान महाशय में कहीं कोई अहंकार व लोभ की प्रवृत्ति नाम मात्र भी नहीं थी जबकि हमारे विद्वान दक्षिणा पर झगड़ पड़ते थे। इन महात्माजी को आमंत्रित करने का सुझाव श्री अनूप सिंह जी का था जिन्होंने हमें गीता भवन जाकर वहां जन्माष्टमी पर्व पर मथुरा आदि स्थानों से पधारे किसी पौराणिक विद्वान व संन्यासी को आमंत्रित करने को कहा था।

श्री अनूप सिंह जी का एक गुण यह था कि उनके आर्यसमाज के वरिष्ठ विद्वानों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध थे। इन नामों में पं. प्रकाशवीर शास्त्री, पं. शिवकुमार शास्त्री, स्वामी सत्यप्रकाश जी, स्वामी योगेश्वरानन्द जी (योगनिकेतन, ऋषिकेश), स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, पं. उमाकान्त उपाध्याय, स्वामी अमर स्वामी सरस्वती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, स्वामी रामानन्द जी, इन्दौर, स्वामी अग्निवेश, स्वामी इन्द्रवेश, पं. ओ३म् प्रकाश वर्मा आदि के नाम सम्मिलित हैं। अनेक केन्द्रीय वा राज्यों के मंत्रियों से भी आपके अच्छे सम्बन्ध थे। इनमें से कुछ लोगों से आपने हमें समय-समय पर मिलाया था। एक बार दिल्ली में एक आर्य महासम्मेलन के अवसर पर हैदराबाद में निजाम पर बम फेंकने वाले श्री नारायण राव व उनके अन्य साथी से भी आपने हमें मिलाया था। इन ऐतिहासिक व्यक्तियों से मिलकर हमें प्रसन्नता हुई थी। बाद में जब श्री नारायण राव जी की मृत्यु हुई तो हमने उन पर कुछ सामग्री की खोज की और एक विस्तृत लेख तैयार किया जो आर्य जगत की प्रसिद्ध पत्रिका ‘‘दयानन्द सन्देश” में प्रकाशित हुआ था। श्री अनूपसिंह हमारे पारिवारिक मित्र थे। उनके साथ मसूरी, लखनऊ, दिल्ली, हरिद्वार आदि कुछ स्थानों की यात्रायें करने का भी हमें अवसर मिला जिससे हम उन्हें निकट से जान सके। इन स्थानों पर उनके साथ होटल आदि में रात्रि विश्राम करने व पर्याप्त समय व्यतीत करने के कारण हमने उनके निजी जीवन को भी समझा था। उनके मुख से हमें हमेशा प्रेरणादायक व आर्यसमाज के उत्थान व उन्नति के विचार ही सुनने को मिले जिनका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता रहा।

मृत्यु से कुछ ही महीने पूर्व मसूरी के आर्यसमाज के एक उत्सव में रात्रि की सभा में उनका प्रवचन हृदय को इस सीमा तक प्रभावित करने वाला था कि हमें लग रहा था कि उस दिन हम मन्त्रमुग्धता की स्थिति में पहुंच गये थे। हम अपना विचार उन्हें बताने में संकोच कर रहे थे परन्तु हमने देखा की प्रवचन की समाप्ति पर बड़ी संख्या में स्त्री व पुरूष श्रोताओं ने उन्हें घेर लिया और उनके उस प्रवचन की बहुत प्रशंसा की। तब हमने उन्हें कहा कि आज के प्रवचन की जो तारीफ लोग कर रहे हैं उससे भी अधिक ज्ञानामृतपान की अनुभूति हमारी अपनी है। उनका हमसे इतना प्रेम था कि मसूरी पहुंच कर कार्यक्रम में प्रवचन करने जाने से पूर्व उन्होंने हम से पूछा था कि मैं क्या पहनू धोती-कुर्ता या पैण्ट-शर्ट। हमने उन्हें कहा था कि आर्य समाज में उपदेशक का धोती व कुर्तें में प्रवचन करना अधिक प्रभावशाली होता है और उन्होंने हमारी भावना का आदर किया था।

श्री अनूपसिंह जी एक कुशल लेखक थे। 10 मई, 1983 से प्रकाशित ‘‘अनूप सन्देश” साप्ताहिक उनका अपना निजी पत्र रहा जिसका वह सम्पादन व प्रकाशन करने के साथ सम्पादकीय एवं अन्य लेख आदि भी लिखते थे। गोरक्षा के आप प्रबल समर्थक थे और उनके पत्र में इस सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री एवं निःशुल्क विज्ञापन प्रकाशित हुआ करते थे। उनके गोरक्षा प्रेम का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दिल्ली के गोरक्षा सत्याग्रह में सक्रिय भाग लिया था और अपको गोली लगते-लगते बची थी। आपके पत्र अनूप सन्देश में क्रान्तिवीरों को विशेष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। उनकी जन्म एवं पुण्य तिथियों पर विशेष लेख आप प्रकाशित करते थे। इसके साथ ही आपने आर्य समाज की पत्ऱ-पत्रिकाओं एवं स्मारिकाओं आदि में भी विद्वतापूर्ण लेख लिखे जो समय-समय पर प्रकाशित होते रहे। आपके लेख आर्यसमाज के पत्रों से भिन्न रीडर्स एण्ड डाइजेस्ट, आनन्द बाजार पत्रिका, धर्मयुग, पंजाब केसरी, कादम्बनी आदि पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। पंजाब केसरी में तो सम्पादकीय विभाग में नियुक्ति का प्रस्ताव भी आपको प्राप्त हुआ था। आपने एक लघु-पुस्तक ‘बाईबिल के गपोड़े’ भी लिखी है जिसे पढ़कर इस विषयक उनके ज्ञान का परिचय मिलता है। आपने स्थानीय स्तर पर ईसाईयों द्वारा निर्धन हिन्दुओं के धर्मान्तरण को रोकने व धर्मान्तिरित लोगों को वैदिक धर्म में लाने के लिए भी प्रयास किये थे। देहरादून में होने वाली गोहत्या को रोकने के लिए भी आप कुछ प्रतिनिधियों सहित जिलाधीश महोदय से मिले थे और इसका वृतान्त उन्होंने हमें आपस की बातचीत में सुनाया था। विश्व जागृति मिशन के संस्थापक श्री सुधांशु जी महाराज दिल्ली के आर्य समाज, दीवानहाल के पुरोहित व भजनोपदेशक रहे हैं। उन दिनों वह श्री अनूपसिंह जी को गुरूजी कहते थे और एकाधिक अवसर पर उन्होंने उनके चरण स्पर्श भी किये।

श्री अनूपसिंह जी की मृत्यु कमर के भीतर के स्थान पर कैंसर के रोग से दिनांक 21 जून, 2001 को दिल्ली के ‘‘जी.बी. पन्त हास्पीटल’’ में हुई। यद्यपि यह रोग कई महीनों से था परन्तु कैन्सर होने का ज्ञान मृत्यु से 7 दिन पूर्व 14 जून को उन्हें पन्त हस्पताल में भर्ती कराने के अवसर पर हुआ। मृत्यु के दिन मृत्यु से कुछ समय पहले आपका बोलना बन्द हो गया था। प्राण के छूटने तक आप ‘‘ओ३म्” का जप करते रहे और कुछ घंटों बाद इसी अवस्था में उन्होंने शरीर छोड़ दिया। श्री अनूपसिंह का हरिद्वार के एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक डा. एस.के. शर्मा से भी उपचार कराया गया। एक दिन परामर्श के समय आपने डाक्टर को कहा कि मैंने इस जीवन में तो कोई बुरा काम किया नहीं परन्तु पिछले जीवन का मुझे कुछ ज्ञान व स्मृति नहीं है। मुझे लगता है कि मुझे भोग तो भोगने ही हैं, अब मैं ठीक नहीं हो सकूंगा। इस पर डाक्टर महोदय ने हमारी उपस्थिति में कहा था कि अब आप अवश्य ठीक हो जायेगें। मेरे पास रोगी तब ही आता है जब उसके भोग समाप्त हो चुके होते हैं। इस पर अनूपसिंह जी चुप हो गये थे। डाक्टर महोदय ने दवायें लिख दी थी जिन्हें हमने क्रय कर लिया था परन्तु उनसे स्थाई लाभ नहीं हो सका था।

रोगावस्था के दिनों में एक बार श्री अनूपसिंह जी ने हमें बताया था कि युवावस्था में आप सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। जब आरम्भ में आप मुजफ्फनगर से देहरादून आये थे तो यदा-कदा यहां के प्रमुख पल्टन बाजार में आया-जाया करते थे। आपके आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर अनेकों दुकानदार बाहर आ जाते थे और आपकी भव्य व सुन्दर मुखाकृति तथा व्यक्तित्व को देखकर प्रसन्न होते थे। आपस में एक दूसरे को कहते थे कि कितना सुन्दर युवक है। आपने एक बार यह भी बताया था कि विवाह से पूर्व आपको मिठाई खाने का शौक था। आप पल्टन बाजार, देहरादून के एक रेस्टोरेन्ट में इच्छानुसार स्वादिष्ट मिष्टान्न वा पदार्थ खाया करते थे जिसमें आपका सारा मासिक वेतन व्यय हो जाया करता था। आपने एक बार हमें भी इस होटल में अल्पाहार कराया था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व देहरादून में अपने निवास पर आपने हमसे एक दिन कहा कि यदि मेरी मृत्यु हो जाती है तो एक छोटी सी गाड़ी मंगा कर उसमें कुछ लोगों के साथ हरिद्वार में गंगा के किनारे मेरी अन्त्येष्टि करा देना। हमने शान्त व चुप रहकर वह सब बातें सुनी थी। हम उन्हें क्या कहते, भावी सम्भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। मृत्यु के बाद उनकी अन्त्येष्टि वैदिक रीति से हरिद्वार में गंगा तट के किनारे गुरूकुल पौंधा के आचार्य पं. भीमसेन शास्त्री जी व ब्रह्मचारियों के द्वारा की गई। मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व एक स्थानीय डाक्टर के परामर्श पर आपको दिल्ली के जी.बी. पन्त अस्पताल में उपचार के लिए सभी पारिवारिक जनों के साथ ले गये थे। इन डाक्टर महोदय से दिल्ली के डाक्टरों के नाम एक पत्र भी हमने लिखवाया था जिससे वहां अस्पताल में प्रविष्ट होने व उपचार में सुविधा हो। दिल्ली के अस्पताल पहुंचते ही डाक्टरों ने उन्हें भर्ती कर लिया। उन्हें देखकर, बिना किसी परीक्षण के ही, बता दिया था कि उन्हें कैन्सर है। पन्त हस्पताल में मृत्यु के समय आपकी घर्मपत्नी श्रीमती इन्दुबाला जी, दोनों पुत्र व आपके मित्र स्वामी अग्निवेश साथ थे। इससे पूर्व आचार्य हरिदेव जी अब स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, आचार्य धर्मपाल शास्त्री, श्री रामनाथ सहगल व स्व. प. प्रकाशवीर शास्त्री के छोटे भाई डा. सत्यवीर त्यागी आपका हाल पूछने अस्पताल आये थे। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द और आर्य समाज की मान्यताओं व सिद्धान्तों से निर्मित एक संस्कारित जीवन का पटाक्षेप हुआ। हम स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं कि हमें उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ और हम आर्य समाज के अनुयायी बनकर अपने जीवन को कुछ उपयोगी व सार्थक बना सके। आज उनकी 80वी जयन्ती पर हम उनकी स्मृति को सश्रद्ध प्रणाम करते हैं। .

-मनमोहन कुमार आर्य

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